महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-124
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कदाचन च्यवनाश्रममुपागताभ्यामश्विभ्यां भार्यात्वाय सुकन्याप्रति प्रार्थनम् ।। 1 ।। तदकामयमानां तां प्रत्यश्विभ्यां स्वप्रसादाच्च्यवने रूपयौवनसंपन्ने सति तुल्यरूपेषु त्रिषु कस्यचिद्वरणचोदना ।। 2 ।। भर्त्राज्ञया तया तदङ्गीकारे च्यवनेन सहाश्विभ्यां सरसोऽन्तर्जले निमज्जनम् ।। 3 ।। सुकन्यया निमज्ज्योत्थितेषु सरूपेषु त्रिषु तेषु स्वपातिव्रत्यमहिन्ना च्यवनस्यैव वरणम् ।। 4 ।। ततस्तुष्टेन च्यवनेनाश्विनोः सोमरसदापनप्रतिज्ञानम् ।। 5 ।।
लोमश उवाच। | 3-124-1x |
कस्य चित्त्वथ कालस्य त्रिदशावश्विनौ नृप। कृताभिषेकां विवृतां सुकन्यां तामपश्यताम् ।। | 3-124-1a 3-124-1b |
तां दृष्ट्वा दर्शनीयाङ्गीं देवराजसुतामिव। ऊचतुः समभिद्रुत्य नासत्यावश्विनाविदम् ।। | 3-124-2a 3-124-2b |
कस्य त्वमसि वामोरु वनेऽस्मिन्किं करोषि च। इच्छाव भद्रे ज्ञातुं त्वां तत्वमाख्याहि शोभने ।। | 3-124-3a 3-124-3b |
ततः सुकन्या संवीता तावुवाच सुरोत्तमौ। शर्यातितनयां वित्तं भार्यां मां च्यवनस्य च ।। | 3-124-4a 3-124-4b |
`नाम्ना चाहं सुकन्येति नृलोकेऽस्मिन्प्रतिष्ठिता। साऽहंसर्वात्मना नित्यं भर्तारमनुवर्तिनी' ।। | 3-124-5a 3-124-5b |
अथाश्विनौ प्रहस्यैतामब्रूतां पुनरेव तु। कथं त्वमसि कल्याणि पित्रा दत्ताऽऽगता वने ।। | 3-124-6a 3-124-6b |
भ्राजसेऽस्मिन्वने भीरु विद्युत्सौदामनी यथा। न देवेष्वपि तुल्यां हि त्वया पश्याव भामिनि ।। | 3-124-7a 3-124-7b |
अनाभरणसंपन्ना परमाम्बरवर्जिता। शोभयस्यधिकं भद्रे वनमप्यनलंकृता ।। | 3-124-8a 3-124-8b |
सर्वाभरणसंपनना परमाम्वरधारिणी। शोभेथास्त्वनवद्याङ्गि न त्वेवं मलपङ्किनी ।। | 3-124-9a 3-124-9b |
कस्मादेवंविधा भूत्वा जराजर्जरितं पतिम्। त्वमुपास्से ह कल्याणि कामभोगबहिष्कृतम् ।। | 3-124-10a 3-124-10b |
असमर्थं परित्राणे पोषणे तु शुचिस्मिते। सा त्वं च्यवनमुत्सृज्यवरयस्वैकमावयोः ।। | 3-124-11a 3-124-11b |
पत्यर्थं देवगर्भाभे मा वृथा यौवनं कृथाः। एवमुक्ता सुकन्याऽपि सुरौ ताविदमब्रवीत् ।। | 3-124-12a 3-124-12b |
रताऽहं च्यवने पत्यौ मैवं मां पर्यशङ्कतम्। तावब्रूतां पुनस्त्वेनामावां देवभिषग्वरौ ।। | 3-124-13a 3-124-13b |
युवानं रूपसंपन्नं करिष्यावः पतिं तव। ततस्तस्यावयोश्चैव वृणीष्वान्यतमं पतिम्। एतेन समयेनैनमामन्त्रय पतिं शुभे ।। | 3-124-14a 3-124-14b 3-124-14c |
सा तयोर्वचनाद्राजन्नुपसंगम्य भार्गवम्। उवाच वाक्यं यत्ताभ्यामुक्तं भृगुसुतं प्रति ।। | 3-124-15a 3-124-15b |
तच्छ्रुत्वा च्यवनो भार्यामुवाच क्रियतामिति। `सा भर्त्रा समनुज्ञाता क्रियतामित्यथाब्रवीत् ।। | 3-124-16a 3-124-16b |
श्रुत्वा तदश्विनौ वाक्यं तस्यास्तत्क्रियतामिति'। ऊचतू राजपुत्रीं तां पतिस्तव विशत्वपः ।। | 3-124-17a 3-124-17b |
ततोऽम्भश्च्यवनः शीघ्रं रूपार्थी प्रविवेश ह। अश्विनावपि तद्राजन्सरः प्राविशतां तदा ।। | 3-124-18a 3-124-18b |
ततो मुहूर्तादुत्तीर्णाः सर्वे ते सरसस्त्रयः। दिव्यरूपधराः सर्वे युवानो मृष्टकुण्डलाः। तुल्यवेषधराश्चैव मनसः प्रीतिवर्धनाः ।। | 3-124-19a 3-124-19b 3-124-19c |
तेऽब्रुवन्सहिताः सर्वे वृणीष्वान्यतमं शुभे। अस्माकमीप्सितं भद्रे पतित्वे वरवर्णिनि ।। | 3-124-20a 3-124-20b |
`त्वमश्विनोरन्यतरं च्यवनं वा यशस्विनि'। यत्र वाऽप्यभिकामाऽसि तं वृणीष्व सुशोभने ।। | 3-124-21a 3-124-21b |
सा समीक्ष्य तु तान्सर्वांस्तुल्यरूपधरान्स्थितान्। निश्चित्य मनसा बुद्ध्या देवी वव्रे स्वकं पतिम् ।। | 3-124-22a 3-124-22b |
लब्ध्वा तु च्यवनो भार्यांवयोरूपं च वाञ्छितम्। हृष्टोऽब्रवीन्महातेजास्तौ नासत्याविदं वचः ।। | 3-124-23a 3-124-23b |
यथाऽहं रूपसंपन्नो वयसा च समन्वितः। कृतो भवद्भ्यां वृद्धः सन्भार्यां च प्राप्तवानिमाम् ।। | 3-124-24a 3-124-24b |
तस्माद्युवां करिष्यामि प्रीत्याऽहं सोमपीथिनौ। मिषतो देवराजस्य सत्यमेतद्ब्रवीमि वाम् ।। | 3-124-25a 3-124-25b |
तच्छ्रुत्वा हृष्टमनसौ दिवं तौ प्रतिजग्मतुः। च्यवनश्च सुकन्या च सुराविव विजह्रतुः ।। | 3-124-26a 3-124-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 124 ।। |
3-124-1 विवृतामनाच्छादीताम् ।। 3-124-4 ततः सुकन्या सव्रीडेति झ. पाठः ।।
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