महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-273
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भीमेन केशग्रहणेन निपातितस्य जयद्रथस्य मूर्ध्नि पादप्रहारपूर्वकं क्षुरप्रेण पञ्चचूदीनिर्माणम् ।। 1 ।। भीमेन बन्धनपूर्वकमानीतस्य तस्य युधिष्ठिरेण मोचनम् ।। 2 ।। जयद्रयेन तपःप्रसादितान्महादेवादर्जुनवर्जमेकस्मिन्दिने पाण्डवजयरूपवराऽऽदानम् ।। 3 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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वैशंपायन उवाच। | 3-273-1x |
जयद्रथस्तु संप्रेक्ष्यभ्रातरावुद्यतायुधौ। प्रादावत्तूर्णमव्यग्रो जीवितेप्सुः सुदुःखितः ।। | 3-273-1a 3-273-1b |
`लताभिः संवृते कक्षे किरीटं रत्नभास्वरम्। अपविध्यप्रधावन्तं निलीयन्तं वनान्तरे ।। | 3-273-2a 3-273-2b |
भीमसेनस्तु तं कक्षे लीयमानं भयाकुलम्। मार्गमाणोऽवतीर्याशु रथाद्रत्नविभूपितात्'। अभिद्रुत्य निजग्राहकेशपक्षे ह्यमर्षणः ।। | 3-273-3a 3-273-3b 3-273-3c |
समुद्यम्य च तं भीमो निष्पिपेप महीतले। गले गृहीत्वाराजानं पातयामास चैव ह ।। | 3-273-4a 3-273-4b |
पुनः स जीवमानस्य तस्योत्पतितुमिच्छतः। पदा मूर्ध्नि महाबाहुः प्राहरद्विलपिष्यतः ।। | 3-273-5a 3-273-5b |
तस्य जानू ददौ भमो जघ्ने चैनमरत्निना। स मोहमगमद्राजा प्रहारवरपीडितः ।। | 3-273-6a 3-273-6b |
सरोषं भीमसेनं तु वारयामास फल्गुनः। दुःशलायाः कृतेराजा यत्त्वामाहेति कौरव ।। | 3-273-7a 3-273-7b |
भीम उवाच। | 3-273-8x |
नायं पापसमाचारो मत्तो जीवितुमर्हति। कृष्णायास्तदनर्हायाः परिक्लेष्टा नराधमः ।। | 3-273-8a 3-273-8b |
किंनु शक्यं मया कर्तुं यद्राजा सततं घृणी। त्वं च बालिशया बुद्ध्या सदैवास्मान्प्रबाधसे ।। | 3-273-9a 3-273-9b |
एवमुक्त्वा सटास्तस्य पञ्चचक्रे वृकोदरः। अर्धचन्द्रेण वाणेन किंचिदब्रुवतस्तदा ।। | 3-273-10a 3-273-10b |
विकल्पयित्वा राजानं ततः प्राह वृकोदरः। जीवितुं चेच्छसे मूढ हेतुं मे गदतः शृणु ।। | 3-273-11a 3-273-11b |
दासोस्मीति त्वया वाच्यं संसत्सु च सभासु च। एवं चेज्जीवितं दद्यामेष युद्धजितो विधिः ।। | 3-273-12a 3-273-12b |
एवमस्त्विति तं राजा कृच्छ्रमाणो जयद्रथः। प्रोवाच पुरुषव्याघ्रं भीममाहवशोभिनम् ।। | 3-273-13a 3-273-13b |
तत एनं विचेष्टन्तं वद्ध्वा पार्थो वृकोदरः। रथमारोपयामास विसंज्ञं पांसुकुण्ठितम् ।। | 3-273-14a 3-273-14b |
ततस्तं रथमास्थाय भीमः पार्तानुगस्तदा। अग्र्यमाश्रममध्यस्थामभ्यगच्छद्युधिष्ठिरम् ।। | 3-273-15a 3-273-15b |
दर्शयामास भीमस्तु तदवस्थं जयद्रथम्। तं राजा प्राहसद्दृष्ट्वा मुच्यतामिति चाब्रवीत् ।। | 3-273-16a 3-273-16b |
राजानं चाब्रवीद्भीमो द्रौपद्यै कथयेति वै। दासभावं गतो ह्येष पाण्डूनां पापचेतनः ।। | 3-273-17a 3-273-17b |
तमुवाच च ततो ज्येष्ठो भ्राता सप्रणयं वचः। मुञ्चेममधमाचारं प्रमाणा यदि ते वयम् ।। | 3-273-18a 3-273-18b |
द्रौपदी चाब्रवीद्भीममभिप्रेक्ष्य युधिष्ठिरम्। दासोऽयंमुच्यतां रात्रस्त्वयापञ्चशिखः कृतः ।। | 3-273-19a 3-273-19b |
`एवमुक्तः स भीमस्तु भ्रात्रा चैव च कृष्णया। मुमोच तं महापापं जयद्रथमचेतनम्' ।। | 3-273-20a 3-273-20b |
स मुक्तोऽभ्येत्यराजानमभिवाद्य युधिष्ठिरम्। ववन्दे विह्वलोराजातांश्च वृद्धान्मुनींस्तदा ।। | 3-273-21a 3-273-21b |
तमुवाच धृणी राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। तथाजयद्रथं दृष्ट्वा गृहीतं सव्यसाचिना ।। | 3-273-22a 3-273-22b |
अदासो गच्छ मुक्तोसि मैवं कार्षीः पुनः क्वचित्। स्त्रीकामुक धिगस्तु त्वां क्षुद्रः क्षत्रसहायवान् ।। | 3-273-23a 3-273-23b |
एवंविधं हि क कुर्यात्त्वदनयः पुरुषाधमः। `कर्म धर्मविरुद्धं वै लोकदुष्टं च दुर्मते' ।। | 3-273-24a 3-273-24b |
गतसत्त्वमिव ज्ञात्वा कर्तारमशुभस्य तम्। संप्रेक्ष्यभरतश्रेष्ठः कृपां चक्रे नराधिपः ।। | 3-273-25a 3-273-25b |
धर्मे ते वर्धतां वुद्धिर्मा चाधर्मे मनः कृथाः। साश्च साथपादातः स्वस्ति गच्छ जयद्रथ ।। | 3-273-26a 3-273-26b |
एवमुक्तस्तु सव्रीजं तूष्णीं किंचिदवाङ्युखः। जगाम राजा दुःखार्तो गङ्गाद्वाराय भारत ।। | 3-273-27a 3-273-27b |
स देवं शरणं गत्वा विरूपाक्षमुमापतिम्। तपश्चचार विपुलं तस्य प्रीतो वृषध्वजः ।। | 3-273-28a 3-273-28b |
बलिं स्वयं प्रत्यगृह्णात्प्रीयमाणस्त्रिलोचनः। वरं चास्मै ददौ देवः स जग्राह च तच्छृणु ।। | 3-273-29a 3-273-29b |
समस्तान्सरथान्पञ्चजयेयं युधि पाण्डवान्। इति राजाऽब्रवीद्देवं नेति देवस्तमब्रवीत् ।। | 3-273-30a 3-273-30b |
अजय्यांश्चाप्यवध्यांश्च वारयिष्यसि तान्युधि। ऋतेऽर्जुनं महाबाहुं नरं नाम सुरेश्वरम् ।। | 3-273-31a 3-273-31b |
बदर्यां तप्ततपसं नारायणसहायकम्। अजितं सर्वलोकानां देवैरपि दुरासदम् ।। | 3-273-32a 3-273-32b |
मया दत्तं पाशुपतं दिव्यमप्रतिमं शरम्। अवाप लोकपालेभ्यो वज्रादीन्स महाशरान् ।। | 3-273-33a 3-273-33b |
देवदेवो ह्यनन्तात्मा विष्णुः सुरगुरुः प्रभुः। प्रधानपुरुषोऽव्यक्तोविश्वात्माविश्वमूर्तिमान् ।। | 3-273-34a 3-273-34b |
युगान्तकाले संप्राप्ते कालाग्निर्दहते जगत्। सपर्वतार्णवद्वीपं सशैलवनकाननम्। निर्दहन्नागलोकांश्चपातालतलचारिणः ।। | 3-273-35a 3-273-35b 3-273-35c |
अथान्तरिक्षे सुमहन्नानावर्णाः पयोधराः। घोरस्वरा विनदिनस्तटिन्मालावलम्बिनः। समुत्तिष्ठन्दिशः सर्वाविवर्षन्तः समन्ततः ।। | 3-273-36a 3-273-36b 3-273-36c |
ततोऽग्नीं शमयामासुः संवर्ताग्निनियामकाः। अक्षमात्रैश्च धाराभिस्तिष्ठन्त्यापूर्य सर्वशः ।। | 3-273-37a 3-273-37b |
एकार्णवे तदातस्मिन्नुपशान्तचराचरे। नष्टचन्द्रार्कपवने ग्रहनक्षत्रवर्जिते। चतुर्युगसहस्रान्ते सलिलेनाप्लुता मही ।। | 3-273-38a 3-273-38b 3-273-38c |
ततो नारायणाख्यस्तु सहस्राक्षः सहस्रपात्। सहस्रशीर्पा पुरुषः स्वप्नुकामस्त्वतीन्द्रियः ।। | 3-273-39a 3-273-39b |
फणासहस्रविकटं शेषं पर्यङ्कभोगिनम्। सहस्रमिव तिग्मांशुसंघातममितद्युतिम्। कुन्देन्दुहारगोक्षीरमृणालकुमुदप्रभम् ।। | 3-273-40a 3-273-40b 3-273-40c |
तत्रासौ भगवान्देवः स्वपञ्जलनिधौ तदा। नैशेन तमसा व्याप्तां स्वां रात्रिंकुरुते विभुः ।। | 3-273-41a 3-273-41b |
सत्वोद्रेकात्प्रबुद्धस्तु शून्यं लोकमपश्यत। इमं चोदाहरन्त्यत्रश्लोकं नारायणं प्रति ।। | 3-273-42a 3-273-42b |
आपो नारास्तत्तनव इत्यपां नाम शुश्रुमः। अयनं तेन चैवास्ते तेन नारायणः स्मृतः ।। | 3-273-43a 3-273-43b |
प्रध्यानसमकालं तुप्रजाहेतोः सनातनः। ध्यातमात्रे तु भगवन्नाभ्यां पद्मः समुत्थितः ।। | 3-273-44a 3-273-44b |
ततश्चतुर्मुखो ब्रह्मा नाभिपद्माद्विनिःसृतः। तत्रोपविष्टः सहसा ब्रह्मा लोकपितामहः ।। | 3-273-45a 3-273-45b |
शून्यं दृष्ट्वा जगत्कृत्स्नं मानसानात्मनः समान्। ततो मरीचिप्रमुखान्महर्षीनसृजन्नव ।। | 3-273-46a 3-273-46b |
तेऽसृजन्सर्वभूतानि त्रसानि स्थावराणि च। यक्षराक्षसभूतानि पिशाचोरगमानुषान् ।। | 3-273-47a 3-273-47b |
सृजते ब्रह्ममूर्तिस्तु रक्षते पौरुषी तनुः। रौद्री भावेन शमयेत्तिस्रोऽवस्थाः प्रजापतेः ।। | 3-273-48a 3-273-48b |
न श्रुतं ते सिन्धुपते विष्णोरद्भुतकर्मणः। कथ्यमानानि मुनिभिर्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।। | 3-273-49a 3-273-49b |
जलेन समनुप्राप्ते सर्वतः पृथिवीतले। तदा चैकार्णवे तस्मिननेकाकाशे प्रभुश्चरन् ।। | 3-273-50a 3-273-50b |
निशायामिव खद्योतः प्रावृट्काले समन्ततः। प्रतिष्ठानाय पृथिवीं मार्गमाणस्तदाऽभवत् ।। | 3-273-51a 3-273-51b |
जले निमग्नां गां दृष्ट्वाचोद्धर्तुं मनसेच्छति। किंनु रूपमहं कृत्वासलिलादुद्धरे महीम् ।। | 3-273-52a 3-273-52b |
एवं संचिन्त्य मनसा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा। जलक्रीडाभिरुचितं वाराहं रूपमस्मरत् ।। | 3-273-53a 3-273-53b |
कृत्वा वराहवपुपं वाङ्मयं वेदसंमितम्। दशयोजनविस्तीर्णमायतं शतयोजनम् ।। | 3-273-54a 3-273-54b |
महापर्वतवर्ष्माभं तीक्ष्णदंष्ट्रंप्रदीप्तिमत्। महामेघौघनिर्घोपं नीलजीमूतसन्निभम् ।। | 3-273-55a 3-273-55b |
भूत्वा यज्ञवराहो वै अपः संप्राविशत्प्रभुः। दंष्ट्रेणैकेन चोद्धृत्यस्वे स्थाने न्यविशन्महीम् ।। | 3-273-56a 3-273-56b |
पुनरेव महाबाहुरपूर्वां तनुमाश्रितः। नरस्य कृत्वाऽर्धतनुं सिंहस्यार्धतनुं प्रभुः ।। | 3-273-57a 3-273-57b |
दैत्येन्द्रस्य सभां गत्वापाणिं संस्पृश्यपाणिना। दैत्यानामादिपुरुषः सुरारिर्दितिनन्दनः ।। | 3-273-58a 3-273-58b |
दृष्ट्वा चापूर्ववपुषं क्रोधात्संरक्तलोचनः। शूलोद्यतकरः स्रग्वी हिरण्यकशिपुस्तदा ।। | 3-273-59a 3-273-59b |
मेघस्तनितनिर्घोषो नीलाभ्रचयसन्निभः। देवारिर्दितिजो वीरो नृसिंहं समुपाद्रवत् ।। | 3-273-60a 3-273-60b |
समुत्पत्य ततस्तीक्ष्णैर्मृगेन्द्रेण बलीयसा। नारसिंहेन वपुषादारितः करजैर्भृशम् ।। | 3-273-61a 3-273-61b |
एवं निहत्य भगवान्दैत्येनद्रं रिपुघातिनम्। भूयोऽन्यः पुण्डरीकाक्षः प्रभुर्लोकहिताय च। कश्यपस्यात्मजः श्रीमानदित्या गर्भधारितः ।। | 3-273-62a 3-273-62b 3-273-62c |
पूर्णे वर्षसहस्रे तु प्रसूत भर्गमुत्तमम् ।। | 3-273-63a |
दुर्दिनाम्भोदसदृशो दीप्ताक्षो वामनाकृतिः। दण्डी कमण्डलुधरः श्रीवत्सोरसि भूषितः। जटी यज्ञोपवीती च भगवान्बालरूपधृक् ।। | 3-273-64a 3-273-64b 3-273-64c |
यज्ञवाटं गतः श्रीमान्दानवेन्द्रस्य वै तदा। बृहस्पतिसहायोऽसौ प्रविष्टो बलिनो मखे ।। | 3-273-65a 3-273-65b |
तं दृष्ट्वावामनतनुं प्रहृष्टो बलिरब्रवीत्। प्रीतोस्मि दर्शने विप्र ब्रूहि त्वं किं ददानिते ।। | 3-273-66a 3-273-66b |
एवमुक्तस्तु बलिना वामनः प्रत्युवाच ह ।। | 3-273-67a |
स्वस्तीत्युक्त्वा बलिं देवः स्मयमानोऽभ्यभाषत। मेदिनीं दानवपते देहि मे विक्रमत्रयम् ।। | 3-273-68a 3-273-68b |
बलिर्ददौ प्रसन्नात्मा विप्रायामिततेजसे। ततो दिव्याद्भुततमं रूपं विक्रमतोहरेः ।। | 3-273-69a 3-273-69b |
विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्यो जहाराशु स मेदिनीम्। ददौ शक्राय च महीं विष्णुर्देवः सनातनः ।। | 3-273-70a 3-273-70b |
एष ते वामनो नाम प्रादुर्भावः प्रकीर्तितः। तेन देवाः प्रादुरासन्वैष्णवं चोच्यते जगत् ।। | 3-273-71a 3-273-71b |
असतां निग्रहार्थाय धर्मसंरक्षणाय च। अवतीर्णो मनुष्याणामजायत यदुक्षये। यं देवंविदुषोगान्ति तस्य कर्माणि सैन्दव ।। | 3-273-72a 3-273-72b 3-273-72c |
अनाद्यन्तमजं देवं प्रभुंलोकनमस्कृतम्। यं देवं विदुषोगान्तितस् कर्माणि सैन्धव ।। | 3-273-73a 3-273-73b |
यमाहुरजितंकृष्णं शङ्खचक्रगदाधरम्। श्रीवत्सधारिणं देवं पीतकौशेयवाससम् ।। | 3-273-74a 3-273-74b |
प्रधानं सोऽस्त्रविदुषां तेन कृष्णन रक्ष्यते ।। | 3-273-75a |
सहायः पुण्डरीकाक्षः श्रीमानतुलविक्रमः। समानस्यन्दने पार्थमास्थाय परवीरहा ।। | 3-273-76a 3-273-76b |
न शक्यते तेन जेतुं त्रिदशैरपि दुःसहः। कः पुनर्मानुषो भावो रणे पार्थं विजेष्यति ।। | 3-273-77a 3-273-77b |
तमेकं वर्जयित्वातु सर्वंयौधिष्ठिरं बलम्। चतुरः पाण्डवात्राजन्दिनैकं जेप्यसे रिपून् ।। | 3-273-78a 3-273-78b |
`तस्मात्त्वंपार्थरहितान्पाण्डवान्वारयिष्यसि। एतद्धि पुरुषव्याघ्र मया दत्तो वरस्तव' ।। | 3-273-79a 3-273-79b |
वैशंपायन उवाच। | 3-273-80x |
इत्येवमुक्त्वा नृपतिं सर्वपापहरो हरः। उमापतिः पशुपतिर्यज्ञहा त्रिपुरार्दनः ।। | 3-273-80a 3-273-80b |
वामनैर्विकटैः कुब्जैरुग्रश्रवणदर्शनैः। वृतः पारिषदैर्घोरैर्नानाप्रहरणोद्यतैः ।। | 3-273-81a 3-273-81b |
त्र्यम्बको राजशार्दूल भगनेत्रनिपातनः। उमासहायो भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-273-82a 3-273-82b |
एवमुक्तस्तु नृपतिः स्वमेव भवनं ययौ। पाण्डवाश्च वने तस्मिन्न्यवसन्काम्यके तथा ।। | 3-273-83a 3-273-83b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि यजद्रथविमोक्षणपर्वणि त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 273 ।। |
3-273-9 घृणी दयावान्। बालिशया स्वल्पया। बाधसेशत्रुं हन्तुं न ददासि ।। 3-273-10 सटाः जटाः केशसंनिवेशे मध्ये मध्येपञ्चसु स्थानेषु अर्धचन्द्रेण बाणेन क्षीरवद्वाषयामासेत्यर्थः ।। 3-273-11 विकत्थयित्वाराजानमिति झ. पाठः ।। 3-273-29 बलिं उपहारम् ।। 3-273-31 महाबाहुं देवैरपि दुरासदम् इति ध. पाठः ।। 3-273-33 शृणाति हिनस्तीति शरमस्त्रम् ।। 3-273-34 नारायणसहायस्याजेयत्वं वक्तुं नारायणमाहात्म्यमेवाह देवदेव इत्यादिना ।। 3-273-35 कालाग्निरूपो नारायणो निदेहते ।। 3-273-36 विनदिनः गर्जन्तः। समुत्तिष्ठन् समुदतिष्ठन्। उत्तिष्ठन्तीत्यर्थः ।। 3-273-37 शमयामासुः पयोधरा इतिप्रपूर्वेणान्वयः। अक्षमात्रैः रथाक्षमात्राभिः स्थूलाभिः। सामान्ये नपुंसकम् ।। 3-273-40 अध्यतिष्ठदिति शेषः ।। 3-273-43 नारायणपदंनिर्वक्ति आप इति। नराज्जाता नाराः तत्तनयः नारायणस्यैव तनवः नाराः आपः अयनं निवासस्थानं यस्य ।। 3-273-45 तस्मिंश्च पद्मे पितामह उपविष्ट इतिक्रमभङ्गेन योज्यम् ।। 3-273-47 त्रसानि जंगमानि ।। 3-273-49 हे सिन्धुपते। ते तव श्रुतं श्रवणं नास्ति। यथो विष्णोरद्भुतकर्मणः कथ्यमानानि कर्माणि न वेत्सीति शेषः ।। 3-273-53 जलक्रीडायामभिरुचितं प्रीतिर्यस्य ।। 3-273-54 वराहवपुषमात्मानमिति शेषः। वाङ्ययं चतुर्वेदमयम्। वेदसंमितं वेदप्रमितयज्ञरूपम् ।। 3-273-55 वर्ष्म शरीरम् ।। 3-273-56 दंष्ट्रेण दंष्ट्रया न्यविशत् न्यवेशयत् ।। 3-273-62 गर्भे धरितः गर्भधारितः ।। 3-273-64 दुर्दिनं प्रावृट्दिनं तत्र भवोऽम्भोदः कृष्णमेघस्तत्सदृशः। श्रीवत्सेनोरसि भूषित इत्यर्थः ।। 3-273-65 वाटं स्थानम्। बलिनो बलेः। अयमिकारान्त इन्नन्तश्र शब्दो दृश्यते ।। 3-273-69 दिव्यं च तदद्धुततमं च रूपं बभूवेति शेषः ।। 3-273-72 अवतीर्णोऽवतरणं कुर्वन्नजायत आविर्भूतः। यदुक्षये यदूनां गृहे ।। 3-273-73 तस्य कर्माणि विदुषो विद्वांसः गान्ति गायन्ति ।। 3-273-75 सोऽर्जुनः अस्त्रविदुषां प्रधानं श्रेष्ठः य अजितमाहुस्तेन कृष्णेन रक्ष्यते ।। 3-273-77 तेन कृष्णसहायत्वेन हेतुना। भावः पूज्यतमः। भावः पूज्यतमे लोके इत्यनेकार्थः ।। 3-273-78 दिनैकमेकदिनमेव न सर्वदा ।। 3-273-83 जयद्रथोऽपि मन्दात्मा स्वमेवेति झ. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-272 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-274 |