महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-227
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स्वाहयाऽरुन्धतीवर्जं सप्तर्षिपत्नीसारूप्येणाग्निना सह रमणम् ।। 1 ।। ततो गारुडरूपस्वीकारेणाग्निरेतसां श्वेतपर्वतस्थकाञ्चनकुण्डे प्रक्षेपणम् ।। 2 ।। स्वकन्नात्तद्रेतसः षण्मुखस्य संभवः ।। ततस्तेन बाणैः क्रौञ्चगिरिविदारणपूर्वकं शक्त्या श्वेतगिरिशिखरविभेदनम् ।। 4 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-227-1x |
शिवा भार्या त्वङ्गिरसः शीलरूपगुणान्विता। तस्याः सा प्रथमं रूपं कृत्वादेवी जनाधिप ।। | 3-227-1a 3-227-1b |
जगाम पावकाभ्याशं तं चोवाच वराङ्गना। मामग्ने कामसंतप्तां त्वं कामयितुमर्हसि ।। | 3-227-2a 3-227-2b |
करिष्यसि न चेदेवं मृतां मामुपधारय। `तवाप्यधर्मः सुमहान्भविता वै हुताशन' ।। | 3-227-3a 3-227-3b |
अहमङ्गिरसो भार्या शिवा नाम हुताशन। सखीभिः सहिता प्राप्ता मन्त्रयित्वा विनिश्चयम् ।। | 3-227-4a 3-227-4b |
अग्निरुवाच। | 3-227-5x |
कथं मां त्वं विजानीषे कामार्तमितराः कथम्। यास्त्वया कीर्तिताः सर्वाः सप्तर्षीणां प्रियाः स्त्रियः ।। | 3-227-5a 3-227-5b |
शिवोवाच। | 3-227-6x |
अस्माकं त्वं प्रियो नित्यं बिभीमस्तु वयं तव। त्वच्चित्तमिङ्गितैर्ज्ञात्वा प्रेषिताऽस्मि तवान्तिकम् ।। | 3-227-6a 3-227-6b |
मैथुनायेह संप्राप्ता कामाच्चैव द्रुतं च माम्। `उपयन्तुं महावीर्य पूर्वमेव त्वमर्हसि'। [जामयो मां प्रतीक्षन्ते गमिष्यामि हुताशन] ।। | 3-227-7a 3-227-7b 3-227-7c |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-227-8x |
ततोऽग्निरुपयेमे तां शिवां प्रीतिमुदायुतः। प्रीत्या देवी समायुक्ता शुक्रं जग्राह पाणिना ।। | 3-227-8a 3-227-8b |
साऽचिन्तयन्ममेदं ये रूपं द्रक्ष्यन्ति कानने। ते ब्राह्मणीनामनृतं दोषं वक्ष्यन्ति पावके ।। | 3-227-9a 3-227-9b |
तस्मादेतद्रक्षमाणा गरुडी संभवाम्यहम्। वनान्निर्गमनं चैव सुखं मम भविष्यति ।। | 3-227-10a 3-227-10b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-227-11x |
सुपर्णी सा तदा भूत्वा निर्जगाम महावनात्। अपश्यत्पर्वतं श्वेतं शरस्तम्बैः सुसंवृतम् ।। | 3-227-11a 3-227-11b |
दृष्टीविषैः सप्तशीर्षैर्गुप्तं भोगिभिरद्भुतैः। रक्षोभिश्च पिशाचैश्च रौद्रैर्भूतगणैस्तथा ।। | 3-227-12a 3-227-12b |
राक्षसीभिश्च संपूर्णमनेकैश्च मृगद्विजैः। `नदीप्रस्रवणोपेतं नानातरुलताचितम्' ।। | 3-227-13a 3-227-13b |
सा तत्र सहसा गत्वा शैलपृष्ठं सुदुर्गमम्। प्राक्षिपत्काञ्चने कुण्डे शुक्रं सा त्वरिता शुभा ।। | 3-227-14a 3-227-14b |
शिष्टानामपि सा देवी सप्तर्षीणां महात्मनाम्। पत्नीसरूपतां कृत्वा रमयामास पावकम् ।। | 3-227-15a 3-227-15b |
दिव्यरूपमरुन्धत्याः कर्तुं न शकितं तया। तस्यास्तपःप्रभावेण भर्तृशुश्रूषणेन च ।। | 3-227-16a 3-227-16b |
षट्कृत्वस्तत्तु निक्षिप्तमग्ने रेतः कुरुत्तम। तस्मन्कुण्डे प्रतिपदि कामिन्या स्वाहया तदा ।। | 3-227-17a 3-227-17b |
तत्स्कन्नं तेजसा तत्रसंवृतंजनयत्सुतम्। ऋषिभिः पूजितं स्कन्नमनयन्स्कन्दतां ततः ।। | 3-227-18a 3-227-18b |
षट्शिरा द्विगुणश्रोत्रो द्वादशाक्षिभूजक्रमः। एकग्रीवस्त्वेककायः कुमारः समपद्यत ।। | 3-227-19a 3-227-19b |
द्वितीयायामभिव्यक्तस्तृतीयायां शिशुर्बभौ। अङ्गप्रत्यङ्गसंभूतश्चतुर्थ्यामभवद्गुहः ।। | 3-227-20a 3-227-20b |
लोहिताभ्रेण महता संवृतः सह विद्युता। लोहिताभ्रे सुमहति भाति सूर्य इवोदितः ।। | 3-227-21a 3-227-21b |
गृहीतं तु धनुस्तेन विपुलं रोमहर्षणम्। न्यस्तं यत्रिपुरघ्नेन सुरारिविनिकृन्तनम् ।। | 3-227-22a 3-227-22b |
तद्गृहीत्वा धनुःश्रेष्ठं ननाद बलवांस्तदा। संमोहयन्निमाँल्लोकान्गुहस्त्रीन्सचराचरान् ।। | 3-227-23a 3-227-23b |
तस् तं निनदं श्रुत्वा महामेघौघनिःस्वनम्। उत्पेततुर्महानागौ चित्रश्चैरावतश्च ह ।। | 3-227-24a 3-227-24b |
तावापतन्तौ संप्रेक्ष्यस बालोऽर्कसमद्युतिः। द्वाभ्यां गृहीत्वा पाणिभ्यां शक्तिं चान्येन पाणिना ।। | 3-227-25a 3-227-25b |
अपरेणाग्निदायादस्ताम्रचूडं भुजेन सः। महाकायमुपश्लिष्टं कुक्कुटं बलिनां वरम्। गृहीत्वा व्यनदद्भीमं चिक्रीड च महाभुजः ।। | 3-227-26a 3-227-26b 3-227-26c |
द्वाभ्यां भुजाभ्यां बलवान्गृहीत्वा शङ्खमुत्तमम्। प्राध्मापयत् भूतानां त्रासनं बलिनामपि। द्वाभ्यां भुजाभ्यामाकाशं बहुशो निजघान ।। | 3-227-27a 3-227-27b 3-227-27c |
क्रीडन्भाति महासेनस्त्रींल्लोकान्वदनैः पिवन्। पर्वताग्रेऽप्रमेयात्मा रश्मिमानुदये यथा ।। | 3-227-28a 3-227-28b |
स तस् पर्वतस्याग्रे निषण्णोऽद्भुतविक्रमः। व्यलोकयदमेयात्मा मुखैर्नानाविधैर्दिशः ।। | 3-227-29a 3-227-29b |
स पश्यन्विविधान्भावांश्चकार निनदं पुनः। तस्य तं निनदं श्रुत्वा न्यपतन्बहुधा जनाः। भीताश्चोद्विग्रमनसस्तमेव शरणं ययुः ।। | 3-227-30a 3-227-30b 3-227-30c |
ये तुं संश्रिता देवं नानावर्णास्तदा जनाः। तानप्याहुः पारिषदान्ब्राह्मणाः सुमहाबलान् ।। | 3-227-31a 3-227-31b |
स तूत्थाय महाबाहुरुपसान्त्व्य च ताञ्जनान्। धनुर्विकृष्य व्यसृजद्बाणाञ्श्वेते महागिरौ ।। | 3-227-32a 3-227-32b |
विभेद स शरैः शैलं क्रौञ्चं हिमवतः सुतम्। तेन हंसाश्च गृध्राश्च मेरुं गच्छन्ति पर्वतम् ।। | 3-227-33a 3-227-33b |
स विशीर्णोऽपतच्छैलो भृशमार्तस्वराव्रुवन् ।। | 3-227-34a |
तस्मिन्निपतिते त्वन्ये नेदुः शैला भृशं भयात्। `घोरमार्तस्वरं चक्रुर्दृष्ट्वा क्रौञ्चं विदारितम्' ।। | 3-227-35a 3-227-35b |
सतं नादं भृशार्तानां श्रुत्वाऽपि बलिनांवरः। न प्राव्यधदमेयात्मा शक्तिमुद्यम्य चानदत् ।। | 3-227-36a 3-227-36b |
सा तदा विमला शक्तिः क्षिप्ता तेन महात्मना। बिभेद शिखरं घोरं श्वेतस् तरसा गिरेः ।। | 3-227-37a 3-227-37b |
स तेनाभिहतो दीर्णो गिरिः श्वेतोऽचलैः सह। पलायत महीं त्यक्त्वा भीतस्तस्मान्महात्मनः ।। | 3-227-38a 3-227-38b |
ततः प्रव्यथिता भूमिर्व्यशीर्यत समन्ततः। आर्ता स्कन्दं समासाद्य पुनर्बलवती बभौ ।। | 3-227-39a 3-227-39b |
पर्वताश्च नमस्कृत्यतमेव पृथिवीं गताः। अथैनमभजल्लोकः स्कन्दं शुक्लस्य पञ्चमीम् ।। | 3-227-40a 3-227-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि रमार्कण्डेयसमास्यापर्वणि सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 227 ।। |
3-227-4 शिष्टाभिः प्रहिता प्राप्तेति झ. पाठः ।। 3-227-9 ते ब्राह्मणीनामहितमिति झ. थ. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-226 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-228 |