महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-068
← आरण्यकपर्व-067 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-068 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-069 → |
नलान्वेपिणा पर्णादनाम्ना विप्रेण ऋतुपर्णनृपगृहे बाहुकनामनिगृढे नले शृण्वति दमयन्तीवचनानुवादः ।। 1 ।।
बाहुकेन विजने पर्णादंप्रति दमयन्तीवचनस्योत्तरदानम् ।। 2 ।।
पर्णादेन विदर्भान्पुनरभ्येत्य दमयन्त्या बाहुकवचननिवेदनम् ।। 3 ।।
बाहुके नलशङ्किन्या दमयन्त्या प्रेपितेन सुदेवेन अयोध्यांगत्वा ऋतुपर्णे श्लोनभूते दमयन्त्याः पुनः स्वयंवरो भवितेति कीर्तनम् ।। 4 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-68-1x |
अथ दीर्घस्य कालस्य पर्णादो नाम वै द्विजः। प्रत्येत्य नगरं भैमीमिदं वचनमब्रवीत् ।। | 3-68-1a 3-68-1b |
नैषधं मृगयाणेन दमयन्ति दिवानिशम्। अयोध्यां नगरीं गत्वा भागस्वरिरुपस्थितः ।। | 3-68-2a 3-68-2b |
श्रावितश्च मया वाक्यं त्वदीयं स महाजने। ऋतुपर्णो महाभागो यथोक्तं वरवर्णिनि ।। | 3-68-3a 3-68-3b |
तच्छ्रुत्वा नाब्रवीत्किंचिदृतुपर्णो नराधिपः। न च पारिषदः कश्चिद्भाष्यमाणो मयाऽसकृत् ।। | 3-68-4a 3-68-4b |
अनुज्ञातं तु मां राज्ञा विजने कश्चिदब्रवीत्। ऋतुपर्णस्य पुरुषो बाहुको नाम नामतः ।। | 3-68-5a 3-68-5b |
सूतस्तस्य नरेन्द्रस्य विरूपो ह्रस्वबाहुकः। शीघ्रयानेषु कुशलो मृष्टकर्ता च भोजने ।। | 3-68-6a 3-68-6b |
स विनिःश्वस्य बंहुशो रुदित्वा च षुनःपुनः। कुशलं चैव मां पृष्ट्वा पश्चादिदमभाषत ।। | 3-68-7a 3-68-7b |
वैषम्यमपि संप्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रियः। आत्मानमात्मना सत्यो जितः स्वर्गो न संशयः ।। | 3-68-8a 3-68-8b |
रहिता भर्तृभिश्चैव न कुप्यन्ति कदाचन। ्राणांश्चारित्रकवचान्धारयन्ति वरस्त्रियः ।। | 3-68-9a 3-68-9bप |
विषमस्थेन मूढेन परिभ्रष्टसुखेन च। यत्सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्धुमर्हति ।। | 3-68-10a 3-68-10b |
प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैर्हृतवाससः। आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्धुमर्हति ।। | 3-68-11a 3-68-11b |
सत्कृताऽसत्कृता वाऽपि पतिं दृष्ट्वा तथागतम्। भ्रष्टराज्यं श्रित्या हीनं श्यामा न क्रोद्धुमर्हति ।। | 3-68-12a 3-68-12b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा त्वरितोऽहमिहागतः। श्रुत्वा प्रमाणं भवती राज्ञश्चैव निवेदयः ।। | 3-68-13a 3-68-13b |
एतच्छ्रुत्वाऽश्रुपूर्णाक्षी पर्णादस्य विशांपते। दमयन्ती रहोऽभ्येत्य मातरं प्रत्यभापत ।। | 3-68-14a 3-68-14b |
अयमर्थौ न संवेद्यो भीमे मातः कदाचन। त्वत्सन्निधौ नियोक्ष्येऽहंसुदेवं द्विजसत्तमम् ।। | 3-68-15a 3-68-15b |
यथा न नृपतिर्भीमः प्रतिपद्येत मे मतम्। यथा त्वया प्रकर्तव्यं मम चेत्प्रियमिच्छसि ।। | 3-68-16a 3-68-16b |
यथा चाहं समानीता सुदेवेनाशु बान्धवान्। तेनैव मङ्गलेनाद्य सुदेवो यातु मा चिरम् ।। | 3-68-17a 3-68-17b |
समानेतुं नलं मातरयोध्यां नगरीमितः। `ऋतुपर्णस्य नगरे निवसन्तमरिन्दमम्' ।। | 3-68-18a 3-68-18b |
विश्रान्तं तु ततः पश्चात्पर्णादं द्विजसत्तमम्। अर्चयामास वैदर्भी धनेनातीव भामिनी ।। | 3-68-19a 3-68-19b |
`लवाच चैनं महता संपूज्य द्रविणेन वै।' नले चेहागते विप्र भूयो दास्याभि ते वसु ।। | 3-68-20a 3-68-20b |
त्वया हि मे बहुकृतंयदन्यो न करिष्यति। यद्भर्त्राऽहं समेष्यामि शीघ्रमेव द्विजोत्तम ।। | 3-68-21a 3-68-21b |
स एवमुक्तोऽथाश्वास्य आशीर्वादैः सुमङ्गलैः। गृहानुपययौ चापि कृतार्थः सुमहामनाः ।। | 3-68-22a 3-68-22b |
ततः सुदेवमानाय्य दमयन्ती युधिष्ठिर। अब्रवीत्सन्निदौ मातुर्दुःखशोकसमन्विता ।। | 3-68-23a 3-68-23b |
गत्वा सुदेव नगरीमयोध्यावासिनं नृपम्। ऋतुपर्णं वचो ब्रूहि पतिमन्यं चिकीर्षती ।। | 3-68-24a 3-68-24b |
आस्थास्यति पुनर्भैमी दमयन्ती स्वयंवरम्। तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः ।। | 3-68-25a 3-68-25b |
तथा च गणितः कालः श्वोभूते स भविष्यति। यदि संभाविनीयं ते गच्छ शीघ्रमरिंदम ।। | 3-68-26a 3-68-26b |
सूर्योदये द्वतीयं सा भर्तारं वरयिष्यति। न हि स ज्ञायते वीरो नलो जीवन्मृतोपि वा ।। | 3-68-27a 3-68-27b |
एवं तथा यथोक्तो वै गत्वा राजानमब्रवीत्। ऋतुपर्णं महाराज सुदेवो ब्राह्मणस्तदा ।। | 3-68-28a 3-68-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपास्त्र्यानपर्वणि अष्टषष्ठितमोऽध्यायः ।। 68 ।। |
3-68-8 गोपायन्ति पालयन्ति। जितः स्वर्गस्ताभिरित शेषः ।। 3-68-26 संभाविनी संभाविता इयम्। गतिरिति शेषः ।।
आरण्यकपर्व-067 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-069 |