महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-093
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युधिष्ठिरादिभिः क्रमेण ब्रह्मसरस्तीर्थगमनम् ।। 1 ।। तत्रशमठेन युधिष्ठिरादीन्प्रति गययज्ञवर्णनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-93-1x |
ने तथा सहिता वीरा वसन्तस्तत्रतत्र ह। क्रमेण पृथिवीपाल नैमिषारण्यमागताः ।। | 3-93-1a 3-93-1b |
तत्स्तीर्थेषु पुण्येषु गोमत्याः पाण्डवा नृप। कृताभिषेकाः प्रददुर्गाश्च वित्तं च भारत ।। | 3-93-2a 3-93-2b |
तत्र देवान्पितॄन्विप्रांस्तर्पयित्वा पुनःपुनः। कन्यातीर्थेऽश्वतीर्थे च गवां तीर्थे च भारत ।। | 3-93-3a 3-93-3b |
कालकोट्यां विपप्रस्थे गिरावुष्य च कौरवाः। बाहुदायां महीपाल चक्रुः सर्वेऽभिषेचनम् ।। | 3-93-4a 3-93-4b |
प्रयागे देवयजने देवानां पृथिवीपते। ऊषुगप्लुत्य गात्राणि तपश्चातस्थुरुत्तमम् ।। | 3-93-5a 3-93-5b |
गङ्गायमुनयोश्चैव संगमे सत्यसंगराः। विपाप्मानो महात्मानो विप्रेभ्यः प्रददुर्वसु ।। | 3-93-6a 3-93-6b |
तपस्विजनजुष्टां च ततो वेदीं प्रजापतेः। जग्मुः पाण्डुसुता राजन्ब्राह्मणैः सह भारत ।। | 3-93-7a 3-93-7b |
तत्र ते न्यवसन्वीरास्तपश्चातस्थुरुत्तमम्। संतर्पयन्तः सततं वन्येन हविषा द्विजान् ।। | 3-93-8a 3-93-8b |
ततो महीधरं जग्मुर्धर्मज्ञेनाभिसत्कृतम्। राजर्षिणा पुण्यकृता गयेनानुपमद्युते ।। | 3-93-9a 3-93-9b |
नगो गयशिरो यत्र पुण्या चैव महानदी। वानीरमालिनी रम्या नदी पुलिनशोभिता ।। | 3-93-10a 3-93-10b |
दिव्यं पवित्रकूटं च पवित्रधरणीधरम्। ऋषिजुष्टं सुपुण्यं तत्तीर्थं ब्रह्मसरोतुलम् ।। | 3-93-11a 3-93-11b |
अगस्त्यो भगवान्यत्र गतो वैवस्वतं प्रति। रउवास च स्वयं तत्र धर्मराजः सनातनः ।। | 3-93-12a 3-93-12b |
सर्वासां सरितां चैव समुद्भेदो विशांपते। यत्रसंनिहितो नित्यं महादेवः पिनाकधृक् ।। | 3-93-13a 3-93-13b |
`परिपूर्णः परंज्योतिः परमात्मा सनातनः। ब्रह्मादिभिरुपास्योऽयं भगवान्परमेश्वरः ।। | 3-93-14a 3-93-14b |
तं प्रणम्य महादेवं चतुर्वर्गफलप्रदम्। रसिद्धिक्षेत्रमिदं मत्वासर्वेषांमोक्षकाङ्क्षिणाम् ।। | 3-93-15a 3-93-15b |
तत्र ते पाण्डवा वीराश्चातुर्मास्यैस्तदेजिरे। ऋषियज्ञेन महता यत्राक्षयवटो महान्। अक्षये देवयजने अक्षयं यत्रवै फलम् ।। | 3-93-16a 3-93-16b 3-93-16c |
ये तु तत्रोपवासांस्तु चक्रुर्निश्चितमानसाः। ब्राह्मणास्तत्रशतशः समाजग्मुस्तपोधनाः ।। | 3-93-17a 3-93-17b |
चातुर्मास्येनायजन्त आर्षेण विधिना तदा। तत्र विद्यातपोवृद्धा ब्राह्मणा वेदपारगाः। कथां प्रचक्रिरे पुण्यां सदसिस्था महात्मनाम् ।। | 3-93-18a 3-93-18b 3-93-18c |
तत्र विद्याव्रतस्नातः कौमारं व्रतमास्थितः। शमठोऽकथयद्राजन्नाधूर्तरजसं गयम् ।। | 3-93-19a 3-93-19b |
शमठ उवाच। | 3-93-20x |
आधूर्तरजसः पुत्रो गयो राजर्षिसत्तमः। पुण्यानि तस्य कर्माणि तानि मे शृणु भारत ।। | 3-93-20a 3-93-20b |
यस्य यज्ञो बभूवेह बह्वन्नो बहुदक्षिणः। यत्रान्नपर्वता राजञ्शतशोऽथ सहस्रशः ।। | 3-93-21a 3-93-21b |
घृतकुल्याश्च दध्नश्च नद्यो बहुशतास्तथा। व्यञ्जनानां प्रवाहाश्च महार्हाणां सहस्रशः ।। | 3-93-22a 3-93-22b |
अहन्यहनि चाप्येवं याचतां संप्रदीयते। अन्ये च ब्राह्मणा राजन्भुञ्जतेऽन्नं सुसंस्कृतम् ।। | 3-93-23a 3-93-23b |
तत्र वै दक्षिणाकाले ब्रह्मघोषो दिवं गतः। न च प्रज्ञायते किंचिद्ब्रह्मशब्देन भारत ।। | 3-93-24a 3-93-24b |
पुण्येन चरता राजन्भूर्दिशः खं नभस्तथा। आपूर्णमासीच्छब्देन तदप्यासीन्महाद्भुतम् ।। | 3-93-25a 3-93-25b |
यत्रस्म गाथा गायन्ति मनुष्या मरतर्षभ। अन्नपानैः शुभैस्तृप्ता देशे देशे सुवर्चसः ।। | 3-93-26a 3-93-26b |
गयस्य यज्ञे के त्वद्य प्राणिनो भोक्तुमीप्सवः। तत्र भोजनशिष्टस्य पर्वताः पञ्चविंशतिः ।। | 3-93-27a 3-93-27b |
न तत्पूर्वे जनाश्चक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे। गयो यदकरोद्यज्ञे राजर्षिरमितद्युतिः ।। | 3-93-28a 3-93-28b |
कथं तु देवा हविषा गयेन परितर्पिताः। पुन शक्ष्यन्त्युपादातुमन्यैर्दत्तानि कानिचित् ।। | 3-93-29a 3-93-29b |
सिकता वा यथा लोके यथा वा दिवि तारकाः। यथा वा वर्षतोधारा असंख्येयाः स्म केनचित्। तथा गणयितुं शक्या गययज्ञे न दक्षिणाः ।। | 3-93-30a 3-93-30b 3-93-30c |
एवंविधाः सुबहवस्तस्य यज्ञा महीपतेः। बभूवुरस्य सरसः समीपे कुरुनन्दन ।। | 3-93-31a 3-93-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि त्रिनवतितमोऽध्यायः ।। 93 ।। |
3-93-10 वानीरमालिनी वेत्रपङ्क्तियुक्ता। सरो गयशिरो यत्रेति क. ध. पाठः ।। 3-93-24 ब्रह्मशब्देन वेदध्वनिना ।।
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