महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-304
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स्वावासे दुर्वाससमावासयता कुन्तिभोजेन तत्परिचर्यायै कुन्त्या नियोजनम् ।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-304-1x |
किं तद्गुह्यं न चाख्यातं कर्णायेहोष्णरश्मिना। कीदृशेकुण्डले ते च कवचं रचैव कीदृशम् ।। | 3-304-1a 3-304-1b |
कुतश्च कवचं तस्यं कुण्डलेचैव सत्तम। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तन्मे ब्रूहि तपोधन ।। | 3-304-2a 3-304-2b |
वैशंपायन उवाच। | 3-304-3x |
अहं राजन्ब्रवीम्येतत्तस्य गुह्यं विभावसोः। यादृशे कुण्डले ते च कवचं वैव यादृशम् ।। | 3-304-3a 3-304-3b |
कुन्तिभोजं पुरा राजन्ब्राह्मणः पर्युपस्थितः। तिग्मतेजा महान्प्रांशुः श्मश्रुदण्डजटाधरः ।। | 3-304-4a 3-304-4b |
दर्सनीयोऽनवद्याङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव। मधुपिङ्गो मधुरवाक्तपःस्वाध्यायभूषणः ।। | 3-304-5a 3-304-5b |
स राजानं कुन्तिभोजमब्रवीत्सुमहातपाः। भिक्षामिच्छामि वै भोक्तुं तव गेहे विमत्सर ।। | 3-304-6a 3-304-6b |
न मे व्यलीकं कर्तव्यं त्वया वा तव चानुगैः। एवं वत्स्यामि ते गेहे यदि ते रोचतेऽनघ ।। | 3-304-7a 3-304-7b |
यथाकामं च गच्छेयमागच्छेयं तथैव च। शय्यासने च मे राजन्नापराध्येत कश्चन ।। | 3-304-8a 3-304-8b |
तमब्रवीत्कुन्तिभोजः प्रीतियुक्तमिदं वचः। एवमस्तु परंचेति पुनश्चैवमथाब्रवीत् ।। | 3-304-9a 3-304-9b |
मम कन्या महाप्राज्ञ पृथा नाम यशस्विनी। शीलवृत्तान्विता साध्वी नियताऽनवमानिनी ।। | 3-304-10a 3-304-10b |
उपस्थास्यति सा त्वां वै पूजयाऽनवमत्य च। तस्याश्च शीलवृत्तेन तुष्टिं समुपयास्यसि ।। | 3-304-11a 3-304-11b |
एवमुक्त्वा तु तं विप्रमभिपूज्य यथाविधि। उवाच कन्यामभ्येत्य पृथां पृथुललोचनाम् ।। | 3-304-12a 3-304-12b |
अयं वत्से महाभागो ब्राह्मणो वस्तुमिच्छति। मम गेहे मया चास्य तथेत्येवं प्रतिश्रुतम् ।। | 3-304-13a 3-304-13b |
त्वयि वत्से परायत्तं ब्राह्मणस्याभिराधनम्। तन्मे वाक्यममिथ्या त्वं कर्तुमर्हसि कर्हिचित् ।। | 3-304-14a 3-304-14b |
अयं तपस्वी भगवान्स्वाध्यायनियतो द्विजः। यद्यद्ब्रूयान्महातेजास्तत्तद्देयमात्सरात् ।। | 3-304-15a 3-304-15b |
ब्राह्मणा हि परं तेजो ब्राह्मणा हि परं तपः। ब्राह्मणानां नमस्कारैः सूर्यो दिवि विराजते ।। | 3-304-16a 3-304-16b |
अमानयन्हि दाण्डक्यो वातापिश्च महासुरः। निहतो ब्रह्मदण्डेन तालजङ्घस्तथैव च। `वैन्ध्याद्रिश्च समुद्रश्च नद्दुषश्च विहिंसितः' ।। | 3-304-17a 3-304-17b 3-304-17c |
सोयं वत्से महाभार आहितस्त्वयि सांप्रतम्। त्वं सदा नियता कुर्या ब्राह्मणस्याभिराधनम् ।। | 3-304-18a 3-304-18b |
जानामि प्रणिधानं ते बाल्यात्प्रभृति नन्दिनि। ब्राह्मणेष्विह सर्वेषु गुरुबन्धुषु चैव ह ।। | 3-304-19a 3-304-19b |
तथा प्रेष्येषु सर्वेषु मित्रसंबन्धिमातृषु। मयि चैव यथावत्त्वंसर्वमावृत्य वर्तसे ।। | 3-304-20a 3-304-20b |
न ह्यतुष्टो जनोऽस्तीह पुरे चान्तःपुरे च ते। सम्यग्वृत्त्याऽनवद्याङ्गि तव भृत्यजनेष्वपि ।। | 3-304-21a 3-304-21b |
संदेष्टव्यां तु मन्ये त्वां द्विजातिं कोपनं प्रति। पृथे बालेति कृत्वा वै सुता चासिममेति च ।। | 3-304-22a 3-304-22b |
वृष्णीनां च कुले जाता शूरस् दयिता सुता। दत्ता प्रीतिमता मह्यं पित्रा बाला पुरास्वयम् ।। | 3-304-23a 3-304-23b |
वसुदेवस् भगिनी सुतानां प्रवरा मम। अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय तेनासि दुहिता मम ।। | 3-304-24a 3-304-24b |
तादृशे हि कुले जाता कुले मम विवर्धिता। सुखात्सुखमनुप्राप्ता ह्रदाद्ध्रदमिवापगा ।। | 3-304-25a 3-304-25b |
दौष्कुलेया विशेषेण कथंचित्प्रग्रहं गताः। बालभावाद्विकुर्वन्ति प्रायशः प्रमदाः शुभे ।। | 3-304-26a 3-304-26b |
पृथे राजकुले जन्म रूपं चापि तवाद्भुतम्। तेन तेनासि संपन्ना समुपेता च भामिनि ।। | 3-304-27a 3-304-27b |
सा त्वं दर्पं परित्यज्य दम्भं मानं च भामिनि। आराध्यवरदं विप्रं श्रेयसा योक्ष्यसे पृथे ।। | 3-304-28a 3-304-28b |
एवं प्राप्स्यसि कल्याणि कल्याणमनघे ध्रुवम्। कोपिते च द्विजश्रेष्ठे कुत्स्नं दह्येत मे कुलम् ।। | 3-304-29a 3-304-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि चतुरधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 304 ।। |
3-304-11 अनवमत्य अवमानमकृत्वा ।। 3-304-13 वस्तुं वासं कर्तुम् ।। 3-304-19 प्रणिधानं चित्तैकाग्र्यम् ।। 3-304-20 आवृत्यव्याप्य ।। 3-304-24 अग्र्यं अग्रे देयं मया प्रथममपत्यं तुभ्यं देयमिति प्रतिज्ञातमित्यर्थः ।। 3-304-25 ह्रदमिवागतेति झ. पाठः ।। 3-304-26 दौष्कुलेयाः दुष्कुले जाताः। प्रग्रहं निर्वन्यं गताः प्राप्ताः विकुर्वन्ति दौष्ठ्यं कुर्वन्ति ।।
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