महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-107
← आरण्यकपर्व-106 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-107 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-108 → |
कपिलेन हयचोरत्वभ्रमेण स्वजिघांसूनां सर्वसागराणां नयनानलेन भस्मीकरणम् ।। 1 ।। सगरनिदेशान्निर्गतेनांशुमता कपिलप्रसादनन हयानयनपूर्वकं पितामहयज्ञसमापनम् ।। 2 ।। सगरइवांशुमत्यपि स्वर्गते तत्सुतेन - दिलीपेन गङ्गावतरणआय यतमाननापि तदपारयतैव त्रिदिवगमनम् ।। 3 ।।
लोमश उवाच। | 3-107-1x |
*तेतं दृष्ट्वा हयं राजन्संप्रहृष्टतनूरुहाः। अनादृत् महात्मानं कपिलं कालचोदिताः ।। | 3-107-1a 3-107-1b |
संफुद्धाः संप्रधावन्त वाजिग्रहणकाङ्क्षिणः। ततः क्रुद्धो महाराज कपिलो मुनिसत्तमः ।। | 3-107-2a 3-107-2b |
वासुदेवेति यं प्राहुः कपिलं मुनिपुङ्गवम्। स चक्षुर्विकतं कृत्वा तेजस्तेषु समुत्सृजन् ।। | 3-107-3a 3-107-3b |
ददाह सुमहातेजा मन्दबुद्धीन्स सागरान्। षष्टिं रतानि सहस्राणि युगपन्मुनिसत्तमः ।। | 3-107-4a 3-107-4b |
तान्दृष्ट्वा भस्मसाद्भूतान्नारदः सुमहातपाः। सगरान्तिकमागत्य तच्च तस्मै न्यवेदयत् ।। | 3-107-5a 3-107-5b |
स तच्छ्रुत्वा वचो घोरं राजा मुनिमुखोद्गतम्। महूर्तं विमना भूत्वा स्थाणोर्वाक्यमचिन्तयत् ।। | 3-107-6a 3-107-6b |
`स पुत्रनिधनोत्थेन दुःखेन समभिप्लुतः। आत्मानमात्मनाऽऽश्वास्य हयमेवान्वचिन्तयत्' ।। | 3-107-7a 3-107-7b |
अशुमन्तं समाहूय असमञ्जसुतं तदा। पौत्रं भरतशार्दूल इदं वचनमब्रवीत् ।। | 3-107-8a 3-107-8b |
षष्टिस्तात सहस्राणि पुत्राणाममितौजसाम्। कापिलं तेज आसाद्य मत्कृतेनिधनं गताः ।। | 3-107-9a 3-107-9b |
तव चापि पिता तात परित्यक्तो मयाऽनघ। धर्मं संरक्षमाणेन पौराणां हितमिच्छता ।। | 3-107-10a 3-107-10b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-107-11x |
किमर्थं राजशार्दूलः सगरः पुत्रमात्मजम्। त्यक्तवान्दुस्त्यजं वीरं तन्मे ब्रूहि तपोधन ।। | 3-107-11a 3-107-11b |
लोमश उवाच। | 3-107-12x |
असमञ्ज इति ख्यातः सगरस्य सुतो ह्यभूत्। यं शैव्या जनयामास पौराणां स हि दारकान् ।। | 3-107-12a 3-107-12b |
`क्रीडतः सहसाऽऽसाद्य तत्रतत्र महीपते'। चूडासु क्रोशतो गृह्यनद्यां चिक्षेप दुर्बलान् ।। | 3-107-13a 3-107-13b |
ततः पौराः समाजग्मुर्भयशोकपरिप्लुताः। सगरं चाभ्यभाषन्त सर्वे प्राञ्जलयः स्थिताः ।। | 3-107-14a 3-107-14b |
त्वं नस्त्राता महाराज परचक्रादिभिर्भयात्। असमञ्जभयाद्धोरात्ततो नस्त्रातुनर्हसि ।। | 3-107-15a 3-107-15b |
पौराणां वचनं श्रुत्वा घोरं नृपतिसत्तमः। मुहूर्तं विमना भूत्वासचिवानिदमब्रवीत् ।। | 3-107-16a 3-107-16b |
असमञ्ज पुरादद्य सुतो मे विप्रवास्यताम्। यदि वो मत्प्रियं कार्यमेतच्छीध्रं विधीयताम् ।। | 3-107-17a 3-107-17b |
एवमुक्ता नरेन्द्रेण सचिवास्ते नराधिप। यथोक्तं त्वरिताश्चक्रुर्यथाऽऽज्ञापितवान्नृपः ।। | 3-107-18a 3-107-18b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा पुत्रो महात्मना। पौराणां हितकामेन सगरेण विवासितः ।। | 3-107-19a 3-107-19b |
अंशुमांस्तु महेष्वासो यदुक्तः सगरेण हि। तत्ते सर्वंप्रवक्ष्यामि कीर्त्यमानं निबोध मे ।। | 3-107-20a 3-107-20b |
सगर उवाच। | 3-107-21x |
पितुश् तेऽहंत्यागेन पुत्राणां निधनेन च। अलाभेन तथाऽश्वस् परितप्यामि पुत्रक ।। | 3-107-21a 3-107-21b |
तस्माद्दुःखाभिसंतप्तं यज्ञविघ्नाच्च मोहितम्। हयस्यानयनात्पौत्र नरकान्मां समुद्धर ।। | 3-107-22a 3-107-22b |
लोमश उवाच। | 3-107-23x |
अंशुमानेवमुक्तस्तु सगरण महात्मना। जगाम दुःखात्तं देशं यत्रवै दारिता मही ।। | 3-107-23a 3-107-23b |
स तु तेनैव मार्गेण समुद्रं प्रविवेश ह। अपश्यच्च महात्मानं कपिलं तुरगं च तम् ।। | 3-107-24a 3-107-24b |
स दृष्ट्वा तेजसो राशिं पुराणमृपिसत्तमम्। प्रणम्य शिरसा भूमौ कार्यमस्मै न्यवेदयत् ।। | 3-107-25a 3-107-25b |
ततः प्रीतो महाराज कपिलोंऽशुमतोऽभवत्। उवाच चैनं धर्मात्मा वरदोस्मीति भारत ।। | 3-107-26a 3-107-26b |
स वव्रे तुरगं तत्र प्रथमं यज्ञकारणात्। द्वितीयमुदकं वव्रे पितॄणां पावनेच्छया ।। | 3-107-27a 3-107-27b |
तमुवाच महातेजाः कपिलो मुनिपुङ्गवः। ददानि तव भद्रं ते यद्यत्प्रार्थयसेऽनघ ।। | 3-107-28a 3-107-28b |
त्वयि क्षमा च धर्मश्च सत्यं चापि प्रतिष्ठितम्। त्वया कृतार्थः सगरः पुत्रवांश्च त्वया पिता ।। | 3-107-29a 3-107-29b |
तव चैव प्रभावेन स्वर्गं यास्यन्ति सागराः। `शलभत्वं गता ये ते मम क्रोधहुताशने' ।। | 3-107-30a 3-107-30b |
पौत्रश्च ते त्रिपथगां त्रिदिवादानयिष्यति। पावनार्थं सागराणां तोषयित्वा महेश्वरम् ।। | 3-107-31a 3-107-31b |
हयं नयस्व भद्रं ते याज्ञिं नरपुङ्गव। यज्ञः समाप्यतां तात सगरस्य महात्मनः ।। | 3-107-32a 3-107-32b |
अंशुमानेवमुक्तस्तु कपिलेन महात्मना। आजगाम हयं गृह्य यज्ञवाटं महात्मनः ।। | 3-107-33a 3-107-33b |
सोभिवाद्य ततः पादौ सगरस्य महात्मनः। मूर्ध्नि तनाप्युपाघ्रातस्तस्मै सर्वंनय्वेदयत् ।। | 3-107-34a 3-107-34b |
यथा दृष्टं श्रुतं चापि सागराणां क्षयं तथा। तं चास्मै हयमाचष्ट यज्ञवाटमुपागतम् ।। | 3-107-35a 3-107-35b |
तच्छ्रुत्वा सगरो राजा पुत्रजं दुःखमत्यजत्। अंशुमन्तं च संपूज्यसमापयत तं क्रतुम् ।। | 3-107-36a 3-107-36b |
समाप्तयज्ञः सगरो देवैः सर्वैः सभाजितः। पुत्रत्वे कल्पयामास समुद्रं वरुणालयम् ।। | 3-107-37a 3-107-37b |
प्रशास्य सुचिरं कालं राज्यं राजीवलोचनः। पौत्रे भारं समवेश्य जगाम त्रिदिवं तदा ।। | 3-107-38a 3-107-38b |
अंशुमानपि धर्मात्मा महीं सागरमेखलाम्। प्रशशास महाराज यथैवास् पितामहः ।। | 3-107-39a 3-107-39b |
तस्य पुत्रः समभवद्दिलीपो नाम धर्मवित्। तस्मिन्राज्यं समाधाय अंशुमानपि संस्थितः ।। | 3-107-40a 3-107-40b |
दिलीपस्तु ततः श्रुत्वा पितॄणां निधनं महत्। पर्यतप्यत दुःखेन तेषां गतिमचिन्तयत् ।। | 3-107-41a 3-107-41b |
गङ्गावतरणए यत्नं सुमहच्चाकरोन्नृपः। न चावतारयामास चेष्टमानो यथाबलम् ।। | 3-107-42a 3-107-42b |
तस् पुत्र समभवच्छ्रीमान्धर्मपराणः। भगीरथ इति ख्यातः सत्यवागनसूयकः ।। | 3-107-43a 3-107-43b |
अभिषिच्य तु तं राज्येदिलीपो वनमाश्रितः ।। | 3-107-44a |
तपः सिद्धिसमायोगात्स राजा भरतर्षभ। वनाज्जगाम त्रिदिवं कालयोगेन भारत ।। | 3-107-45a 3-107-45b |
ते तं दृष्ट्वा हयं राजन्संप्रहृष्टतनूरुहाः। अनादृत्य महात्मानं कपिलं कालचोदिताः। संक्रुद्धाः समधावन्त कपिलं हन्तुमुद्यताः ।। | 3-107a-1a 3-107a-1b 3-107a-1c |
तान्दृष्ट्वा हन्तुमुद्युक्तान्कपिलो रोपमूर्च्छितः। सगरस्यात्मजान्सर्वान्ददाह क्षणतो नृप ।। | 3-107a-2a 3-107a-2b |
तान्दृष्ट्वा भस्मसाद्भूतान्नारदः सुमहातपाः। सगरान्तिकमागन्य तच्च तस्मै न्यवेदयत् ।। | 3-107a-3a 3-107a-3b |
एतच्छ्रुत्वा वचो राजा घोरं मुनिमुखोद्गतम्। मुहूर्तं विमना भूत्वास्थाणोर्वाक्यमचिन्तयत् ।। | 3-107a-4a 3-107a-4b |
अशुमन्तं प्रेपयित्वा हयमानाय्य यत्नतः। यज्ञं समाप्य विधिवन्सगरो भृशदुःखितः। कृत्वांऽशुमति तद्राज्यं वनमेवान्वपद्यत ।। | 3-107a-5a 3-107a-5b 3-107a-5c |
अशुमानकरोद्राज्यं प्रजा धर्मेण रञ्जयन्। दिलीपे राज्यमाधाय वनमेवान्वपद्यत ।। | 3-107a-6a 3-107a-6b |
दिलीपोपि महाराज चिरं राज्यमकारयत् ।। | 3-107a-7a |
तस् पुत्रो महीपाल भगीरथ इति श्रुतः। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च प्रजानामनुरञ्जकः ।। | 3-107a-8a 3-107a-8b |
पितरि स्वर्गते राजन्दिलीपे पुण्यशालिनि। भगीरथो महानासीद्राजा परमधार्मिकः ।। | 3-107a-9a 3-107a-9b |
स चिरं तप आतिष्ठछन्महादेवप्रसादतः। ऊर्ध्ववाहुर्निरालम्बः पादाङ्गुष्ठाश्रितावनिः ।। | 3-107a-10a 3-107a-10b |
वायुभक्षो निराहारो भक्तियुक्तेन चेतसा। तत आविरभूद्देवः पिनाकी वृपभध्वजः ।। | 3-107a-11a 3-107a-11b |
परंब्रह्म परं धाम परमात्मा सनातनः। आनादिमध्यनिधनः शङ्करः सर्वपूजितः ।। | 3-107a-12a 3-107a-12b |
भगीरथोपि तं दृष्ट्वा भगवान्तमुमापतिम्। प्रणिपत्य महादेवमस्तौषीद्धिविधैः स्तवैः ।। | 3-107a-13a 3-107a-13b |
स्तुत्वा च विविधै स्तोत्रैः कृताञ्जलिपुटो नृपः। अयाचत वरं देवं गङ्गाया धारणं प्रति ।। | 3-107a-14a 3-107a-14b |
भगवंस्तपसा तुष्टोब्रह्मा मे स्वर्गवासिनीम्। गङ्गां संप्रेषयामीति ददौ वरमनुत्तमम् ।। | 3-107a-15a 3-107a-15b |
तां वै धारयितुं शक्तं नान्यं पश्यामि शूलिनः। तं तोषय महाराजेत्पेवमुक्त्या दिवं गतः ।। | 3-107a-17a 3-107a-17b |
भवत्प्रसादसिद्ध्यर्थं तपस्तप्तं मया विभो। भवता धृतया देव गङ्गया पूतया मम। पितामहाश्च लोकाश्च सर्वे सद्भतिमाप्नुयुः ।। | 3-107a-18a 3-107a-18b 3-107a-18c |
एवंसंप्रार्थितो देवस्तथा चक्रे महेश्वरः ।। | 3-107a-19a |
ब्रह्मणा समनुज्ञता गङ्गाऽपिक्रोधमूर्च्छिता। विशाम्यहं तु पातालं स्रोतसा गृह्य शङ्करम् ।। | 3-107a-20a 3-107a-20b |
इत्याग्रहान्महाराज शिवे शिवशिरस्युत। पतित्वा तव वभ्राम वहन्वर्पान्विमोहिता। तृणेऽवश्यायकणिका यथा तद्वत्स्थिताक्वचित् ।। | 3-107a-21a 3-107a-21b 3-107a-21c |
तामदृष्ट्वाऽथ भूपालस्तोपयामास शङ्करम्। पुनश्च व्यसृजद्देवो गङ्गां वै गूहितां नृप ।। | 3-107a-22a 3-107a-22b |
प्रणिपत्य महादेवं पुरा राजा भगीरथः। पितॄनाप्लावयामास सागरं चाप्यपूरयत् ।। | 3-107a-23a 3-107a-23b |
तेऽपि स्वर्गं गता राजन्सगरस्यात्मजाः क्षणात्। पितृभ्यश्चोदकं तत्रददौ पूर्णमनोरथः ।। | 3-107a-24a 3-107a-24b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। एवं स सागरो राजन्पूरितोऽगस्त्यदूपितः ।। जगाम दुःखात्तं देशं यत्रवै दारिता मही ।। | 3-107a-25a 3-107a-25b 3-107-23b |
आरण्यकपर्व-106 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-108 |