महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-064
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कर्कोटकवचनान्नलेनायोध्यायां बाहुक इति स्वनामनिर्देशपूर्वकमृतुपर्णनृपसमीपोपसर्पणम् ।। 1 ।।
ऋतुपर्णेन तस्य सारथ्ये नियोजनम् ।। 2 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-64-1x |
तस्मिन्नन्तर्हिते नागे प्रययौ नैषधो नलः। ऋतुपर्णस्य नगरं प्राविशद्दशमेऽहनि ।। | 3-64-1a 3-64-1b |
स राजानमुपातिष्ठद्बाहुकोऽहमिति ब्रुवन्। अश्वानां वाहने युक्तः पृथिव्यां नास्ति मत्समः ।। | 3-64-2a 3-64-2b |
अर्थकृच्छ्रेषु चैवाहं प्रष्टव्यो नैपुणेषु च। अन्नसंस्कारमपि च जानाम्यन्यैर्विशेषतः ।। | 3-64-3a 3-64-3b |
यानि शिल्पानि लोकेऽस्मिन्यच्चैवान्यत्सुदुष्करम्। सर्वं यतिष्ये तत्कर्तुमृतुपर्ण भरस्व माम् ।। | 3-64-4a 3-64-4b |
`इत्युक्तः स नलेनाथ ऋतुपर्णो नराधिपः। उवाच सुप्रीतमनास्तं प्रेक्ष्य च महीपते' ।। | 3-64-5a 3-64-5b |
वसबाहुक भद्रं ते सर्वमेतत्करिष्यसि। शीघ्रयाने सदा बुद्धिर्ध्रियते मे विशेषतः ।। | 3-64-6a 3-64-6b |
स त्वमातिष्ठ योगं तं येन शीध्रां हया मम। भवेयुरश्वाध्यक्षोसि वेतनं ते शतंशतम् ।। | 3-64-7a 3-64-7b |
त्वामुपस्थास्यतश्चैव नित्यं वार्ष्णेयजीवलौ। एताभ्यां रंस्यसे सार्धं वस वै मयि बाहुक ।। | 3-64-8a 3-64-8b |
बृहदश्व उवाच। | 3-64-9x |
एवमुक्तो नलस्तेन न्यवसत्तत्रपूजितः। ऋतुपर्णस्य नगरे सहवार्ष्णेयजीवलः ।। | 3-64-9a 3-64-9b |
स वै तत्रावसद्राजा वैदर्भीमनुचिन्तयन्। सायंसायं सदा चेमं श्लोकमेकं जगाद ह ।। | 3-64-10a 3-64-10b |
क्व नु सा क्षुत्पिपासार्ता श्रान्ता शेते तपस्विनी। स्मरन्ती तस्य मन्दस्य कं वाऽऽसाद्योपतिष्ठति ।। | 3-64-11a 3-64-11b |
एवं ब्रुवन्तं राजानं निशायां जीवलोऽब्रवीत्। कामेनां शोचसे नित्यं श्रोतुमिच्छामि बाहुक। आयुष्मन्कस्य वा नारी यामेवमनुशोचसि ।। | 3-64-12a 3-64-12b 3-64-12c |
तमुवाच नलो राजा मन्दप्रज्ञस्य कस्यचित्। आसीद्बहुमता नारी तस्या दृढतरश्च सः ।। | 3-64-13a 3-64-13b |
स वै केनचिदर्थेन तया मन्दो व्ययुज्यत। विप्रयुक्तः स मन्दात्मा भ्रमत्यसुखपीडितः ।। | 3-64-14a 3-64-14b |
दह्यमानः स शोकेन दिवारात्रमतन्द्रितः। निशाकाले स्मरंस्तस्याः श्लोकमेकं स्म गायति ।। | 3-64-15a 3-64-15b |
स विभ्रमन्महीं सर्वां क्वचिदासाद्य किंचन। वसत्यनर्हस्तद्दुःखं भूय एवानुसंस्मरन् ।। | 3-64-16a 3-64-16b |
सा तु तं पुरुषं नारी कृच्छेऽप्यनुगता वने। त्यक्ता तेनाल्पभाग्येन दुष्करं यदि जीवति ।। | 3-64-17a 3-64-17b |
एका बालाऽनभिज्ञा च मार्गमाणाऽतथोचिता। क्षुत्पिपासापरीताङ्गी दुष्करं यदि जीवति ।। | 3-64-18a 3-64-18b |
श्वापदाचरिते नित्यं वने महति दारुणे। त्यक्ता तेनाल्पभाग्येन मन्दप्रज्ञेन मारिष ।। | 3-64-19a 3-64-19b |
इत्येवं नैषधो राजा दमयन्तीमनुस्मरन्। अज्ञातवासं न्यवसद्राज्ञस्तस्य नवेशने ।। | 3-64-20a 3-64-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः ।। 64 ।। |
3-64-9 मारिष आर्य ।।
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