महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-137
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लोमशेन रैभ्याश्रमंगतं युधिष्ठिरंप्रति यवक्रीतोपाख्यानकथनारम्भः ।। 1 ।। भरद्वाजपुत्रेण यवक्रीतेन स्वपितृमित्रे रैभ्ये तत्पुत्रयोरर्वावसुपरावस्वोश्चासूयया निवैवोपदेशं वेदाधिगमाय इन्द्रंप्रति तपश्चरणम् ।। 2 ।। इन्द्रनिवारितेनापि यवक्रीतेन बलात्कारेण तस्माद्वरग्रहणम् ।। 3 ।। भरद्वाजेन लब्धवरं यवक्रीतंप्रति गर्वेण रैभ्यपीडाप्रतिषेधाय बालध्युपाख्यानकथनम् ।। 4 ।।
लोमश उवाच। | 3-137-1x |
एषा मधुविला नाम समङ्गा संप्रकाशते। एतत्कर्दमिलं नाम भरतस्याभिषेचनम् ।। | 3-137-1a 3-137-1b |
अलक्ष्म्या किल संयुक्तो वृत्रं हत्वा शचीपतिः। आप्लुतः सर्वपापेभ्यः समङ्गायां व्यमुच्यत ।। | 3-137-2a 3-137-2b |
एतद्विनशनं कुक्षौ मैनाकस्य नरर्षभ। अदितिर्यत्रपुत्रार्थं तदन्नमपचत्पुरा ।। | 3-137-3a 3-137-3b |
एनं पर्वतराजानमारुह्य भरतर्षभाः। अयशस्यामसंशब्द्यामलक्ष्मीं व्यपनोत्स्यथ ।। | 3-137-4a 3-137-4b |
एते कनखला राजन्नृषीणां दयिता नगाः। एषा प्रकाशते गङ्गा युधिष्ठिर यशस्विनी ।। | 3-137-5a 3-137-5b |
सनत्कुमारो भगवानत्र सिद्धिमगात्पुरा। आजमीढावगाह्यैनां सर्वपापैः प्रमोक्ष्यसे ।। | 3-137-6a 3-137-6b |
अपां ह्रदं च पुण्याख्यं भृगुतुन्दं च पर्वतम्। तूष्णीं गङ्गां च कौन्तेय सानुजः समुपस्पृश ।। | 3-137-7a 3-137-7b |
आश्रमः स्थूलशिरसो रमणीयः प्रकाशते। अत्र मानं च कौन्तेय क्रोधं चैव विवर्जय ।। | 3-137-8a 3-137-8b |
एष रैभ्याश्रमः श्रीमान्पाण्डवेय प्रकाशते। भारद्वाजो यत्रकविर्यवक्रीतो व्यनश्यत ।। | 3-137-9a 3-137-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-137-10x |
कथं युक्तोऽभवदृषिर्भरद्वाजः प्रतापवान्। किमर्थं च यवक्रीतः पुत्रोऽनश्यत वै मुनेः ।। | 3-137-10a 3-137-10b |
एतत्सर्वं यथावृत्तं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः। कर्मभिर्देवकल्पानां कीर्त्यमानैर्भृशं रमे ।। | 3-137-11a 3-137-11b |
लोमश उवाच। | 3-137-12x |
भरद्वाजश्च रैभ्यश्च सखायौ संबभूवतुः। तावूषतुरिहात्यन्तं प्रीयमाणौ वनान्तरे ।। | 3-137-12a 3-137-12b |
रैभ्यस्य तु सुतावास्तामर्वावसुपरावसू। आसीद्यवक्रीः पुत्रस्तु भरद्वाजस्य भारत ।। | 3-137-13a 3-137-13b |
रैभ्यो विद्वान्सहापत्यस्तपस्वी चेतरोऽभवत्। तयोश्चाप्यतुला प्रीतिरभवद्भरतर्षभ ।। | 3-137-14a 3-137-14b |
यवक्रीः पितरं दृष्ट्वा तपस्विनमसत्कृतम्। दृष्ट्वा च सत्कृतं विप्रै रैभ्यं पुत्रैः सहानघः ।। | 3-137-15a 3-137-15b |
पर्यतप्यत तेजस्वी मन्युनाऽभिपरिप्लुतः। तपस्तेपे ततो घोरं वेदज्ञानाय पाण्डव ।। | 3-137-16a 3-137-16b |
सुसमिद्धे महत्यग्नौ शरीरमुपतापयन्। जनयामास संतापमिन्द्रस्य सुमहातपाः ।। | 3-137-17a 3-137-17b |
तत इन्द्रो यवक्रीतमुपगम्य युधिष्ठिर। अब्रवीत्कस्य हेतोस्त्वमास्थितस्तप उत्तमम् ।। | 3-137-18a 3-137-18b |
यवक्रीत उवाच। | 3-137-19x |
द्विजानामनधीता वै वेदाः सुरगणार्चित। प्रतिभान्त्विति तप्येहमिदं परमकं तपः ।। | 3-137-19a 3-137-19b |
स्वाध्यायार्थं समारम्भो ममायं पाकशासन। तपसा ज्ञातुमिच्छामि सर्वज्ञानानि कौशिक ।। | 3-137-20a 3-137-20b |
कालेन महता वेदाः शक्या गुरुमुखाद्विभो। प्राप्तुं तस्मादयं यत्नः परमो मे समास्थितः ।। | 3-137-21a 3-137-21b |
इन्द्र उवाच। | 3-137-22x |
अमार्ग एष विप्रर्षे येन त्वं यातुमिच्छसि। किं विघातेन ते विप्र गच्छाधीहि गुरोर्मुखात् ।। | 3-137-22a 3-137-22b |
लोमश उवाच। | 3-137-23x |
एवमुक्त्वा गतः शक्रो यवक्रीरपि भारत। भूय एवाकरोद्यत्नं तपस्यमितविक्रमः ।। | 3-137-23a 3-137-23b |
घोरेण तपसा राजंस्तप्यमानो महत्तपः। संतापयामास भृशं देवेन्द्रमिति नः श्रुतम् ।। | 3-137-24a 3-137-24b |
तं तथा तप्यमानं तु तपस्तीव्रं महामुनिम्। उपेत्य बलभिद्देवो वारयामास वै पुनः ।। | 3-137-25a 3-137-25b |
अशक्योऽर्थः समारब्धो नैतद्बुद्धिकृतं तव। प्रतिभास्यन्ति वै वेदास्तव चैव पितुश्च ते ।। | 3-137-26a 3-137-26b |
यवक्रीत उवाच। | 3-137-27x |
न चैतदेवं क्रियते देवराजसमीप्सितम्। महता नियमेनाहं तप्स्ये घोरतरं तपः ।। | 3-137-27a 3-137-27b |
समिद्धेऽग्नावुपकृत्याङ्गमङ्गं होष्यामि वा मघवंस्तन्निबोध। यद्येतदेवं न करोषि कामं ममेप्सितं देवराजेह सर्वम् ।। | 3-137-28a 3-137-28b 3-137-28c 3-137-28d |
लोमश उवाच। | 3-137-29x |
निश्चयं तमभिज्ञाय मुनेस्तस्य महात्मनः। प्रतिवारणहेत्वर्थं बुद्ध्या संचिन्त्य बुद्धिमान् ।। | 3-137-29a 3-137-29b |
तत इन्द्रोऽकरोद्रूपं ब्राह्मणस्य तपस्विनः। अनेकशतवर्षस्य दुर्बलस्य सयक्ष्मणः ।। | 3-137-30a 3-137-30b |
यवक्रीतस्य यत्तीर्थमुचितं शैचकर्मणि। भागीरथ्यां तत्र सेतुं वालुकाभिश्चकार सः ।। | 3-137-31a 3-137-31b |
यदाऽस्य वदतो वाक्यं न स चक्रे द्विजोत्तमः। वालुकाभिस्ततः शक्रो गङ्गां समभिपूरयन् ।। | 3-137-32a 3-137-32b |
वालुकामुष्टिमनिशं भागीरथ्यां व्यसर्जयत्। स्नातुमभ्यागतं शक्रो यवक्रीतमदर्शयत् ।। | 3-137-33a 3-137-33b |
तं ददर्श यवक्रीतो यत्नवन्तं निबन्धने। प्रहसंश्चाब्रवीद्वाक्यमिदं स मुनिपुङ्गवः ।। | 3-137-34a 3-137-34b |
किमिदं वर्तते ब्रह्मन्किंच ते ह चिकीर्षितम्। अतीव हि महान्यत्नः क्रियतेऽयं निरर्थकः ।। | 3-137-35a 3-137-35b |
इन्द्र उवाच। | 3-137-36x |
बन्धिष्ये सेतुना गङ्गां सुखः पन्था भविष्यति। क्लिश्यते हि जनस्तात तरमाणः पुनःपुनः ।। | 3-137-36a 3-137-36b |
यवक्रीत उवाच। | 3-137-37x |
नायं शक्यस्त्वया बद्धुं महानोघस्तपोधन। अशक्याद्विनिवर्तस्व शक्यमर्थं समारभ ।। | 3-137-37a 3-137-37b |
इन्द्र उवाच। | 3-137-38x |
यथैव भवता चेद तपो वेदार्थमुद्यतम्। अशक्यं तद्वदस्माभिरयं भारः समाहितः ।। | 3-137-38a 3-137-38b |
यवक्रीत उवाच। | 3-137-39x |
यथा तव निरर्थोऽयमारम्भस्त्रिदशेश्वर। तथा यदि ममापीदं मन्यसे पाकशासन ।। | 3-137-39a 3-137-39b |
क्रियतां यद्भवेच्छक्यं त्वया सुरगणेश्वर। वरांश्च मे प्रयच्छान्यासन्यैर्विद्वान्भवितास्म्यहम् ।। | 3-137-40a 3-137-40b |
लोमश उवाच। | 3-137-41x |
तस्मै प्रादाद्वरानिन्द्र उक्तवान्यान्महातपाः। प्रतिभास्यन्ति ते वेदाः पित्रा सह यथेप्सिताः ।। | 3-137-41a 3-137-41b |
यच्चान्यत्काङ्क्षसे कामं यवक्रीर्गम्यतामिति। स लब्धकाम पितरं समेत्याथेदमब्रवीत् ।। | 3-137-42a 3-137-42b |
यवक्रीत उवाच। | 3-137-43x |
प्रतिभास्यन्ति वै वेदा मम तातस्य चोभयोः। अपि चान्यान्भविष्यावो वरा लब्धास्तथा मया ।। | 3-137-43a 3-137-43b |
भरद्वाज उवाच। | 3-137-44x |
दर्पस्ते भविता तात वराँल्लब्ध्वा यथेप्सितान्। स दर्पपर्णः कृपणः क्षिप्रमेव विनङ्क्ष्यसि ।। | 3-137-44a 3-137-44b |
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा देवैरुदाहृताः। मुनिरासीत्पुरा पुत्र बालधिर्नाम विश्रुतः ।। | 3-137-45a 3-137-45b |
स पुत्रशोकादुद्विग्रस्तपस्तेपे सुदुष्करम्। भवेन्मम सुतोऽमर्त्य इतितं लब्धवांश्च सः ।। | 3-137-46a 3-137-46b |
तस्य प्रसादो वै देवैः कृतो न त्वमरैः समः। नामर्त्यो विद्यते मर्त्यो निमित्तायुर्भविष्यति ।। | 3-137-47a 3-137-47b |
बालधिरुवाच। | 3-137-48x |
यथेमे पर्वताः शश्वत्तिष्ठन्ति सुरसत्तमाः। तावज्जीवेन्मम् सुतो निर्वाणमुत मे मतः ।। | 3-137-48a 3-137-48b |
भरद्वाज उवाच। | 3-137-49x |
तस्य पुत्रस्तदा जत्रे मेधावी क्रोधनस्तदा। स तु लब्धवरो दर्पादृषींश्चैवावमन्यत ।। | 3-137-49a 3-137-49b |
विकुर्वाणो मुनीनां च व्यचरत्स महीमिमाम्। आससाद महावीर्यं धनुषाक्षं मनीषिणम् ।। | 3-137-50a 3-137-50b |
तस्यापचक्रे मेधावी तं शशाप स वीर्यवान्। भव भस्मेति चोक्तः स न भस्म समपद्यत ।। | 3-137-51a 3-137-51b |
धनुषाक्षस्तु तं दृष्ट्वा मेधाविनमनामयम्। `मुनिस्तत्कारणं ज्ञात्वा स्वयं महिषरूपधृत्। शृङ्गेणाद्रीनचलयत्ततोऽयंभस्मसादभूत्' ।। | 3-137-52a 3-137-52b 3-137-52c |
निमित्तमस्य महर्षिर्भेदयामास पर्वतान्। स निमित्ते विनष्टे तु ममार सहसा शिशुः ।। | 3-137-53a 3-137-53b |
तं मृतं पुत्रमादाय विललाप ततः पिता ।। | 3-137-54a |
लालप्यमानं तं दृष्ट्वा मुनयः परमार्तवत्। ऊचुर्वेदविदः सर्वै गाथां यां तां निबोध मे ।। | 3-137-55a 3-137-55b |
न दिष्टमर्थमत्येतुमीशोऽमर्त्यः कथंचन। महर्षिर्भेदयामास धनुषाक्षो महीधरान् ।। | 3-137-56a 3-137-56b |
एवं लब्ध्वा वरान्बाला दर्पपूर्णास्तपस्विनः। क्षिप्रमेव विनश्यन्ति यथा न स्यात्तथा भवान् ।। | 3-137-57a 3-137-57b |
एष रैभ्यो महावीर्यः पुत्रौ चास्य तथाविधौ। तं यथा पुत्र नाभ्येषि तथा कुर्यास्त्वतन्द्रितः ।। | 3-137-58a 3-137-58b |
स हि क्रुद्धः समर्थस्त्वां पुत्र पीडयितुं रुषा। रैभ्यश्चापि तपस्वी च कोपनश्च महानृषिः ।। | 3-137-59a 3-137-59b |
यवक्रीत उवाच। | 3-137-60x |
एव करिष्ये मा तापं तात कार्षीः कथंचन। यथा हि मे भवान्मान्यस्तथा रैभ्यः पिता मम ।। | 3-137-60a 3-137-60b |
लोमश उवाच। | 3-137-61x |
उक्त्वा स पितरं श्लक्ष्ण यवक्रीरकुतोभयः। विप्रकुर्वन्नृषीनन्यानतुष्यत्परया मुदा ।। | 3-137-61a 3-137-61b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 137 ।। |
3-137-1 मधुविलेति अष्टावकाङ्गसमीकरणात्पूर्वं समंगाया एव नाम मधुवहानामेति क.ध. पाठः ।। 3-137-3 अन्नं ब्रह्मौदनम् अदितिः पुत्रकामा। साध्येभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मौदनमपचदिति श्रुतेः ।। 3-137-4 अयशस्यां अयशस्करीम्। असंशब्द्यां अकीर्तनीयाम्। अयशस्यामसह्यां च अलक्ष्मीं इति ध. पाठः ।। 3-137-14 इतरो भरद्वाजस्तपस्व्येव नतु शिष्यादिसंपन्नः। कीर्तिर्बाल्यात्प्रभृति भारत इति झ. पाठः ।। 3-137-20 सर्वज्ञानानि सर्वशास्त्राणि 3-137-22 विघातेन आत्मनाशनेन ।। 3-137-26 न प्रतिभास्यन्तीति नकारावृत्त्या योज्यम् ।। 3-137-46 अमर्त्यः अमर इत्यर्थः ।। 3-137-48 अक्षयास्तन्निमित्तं मे सुतस्यायुर्भवेर्द्ध्रुवम्। इति झ. ध. पाठः ।। 3-137-52 निमित्तं पर्वतान्भेदयामासखण्डयामास ।। 3-137-55 दिष्टं दैवविहितम् ।।
आरण्यकपर्व-136 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-138 |