महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-230
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मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरंप्रतिस्कन्दचरित्रकीर्तनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-230-1x |
श्रिया जुष्टं महासेनं देवसेनापतीकृतम्। सप्तर्षिपत्नयः षड् देव्यस्तत्सकाशमथागमन् ।। | 3-230-1a 3-230-1b |
ऋषिभिः संपरित्यक्ता धर्मयुक्ता महाव्रताः। द्रुतमागम्य चोचुस्ता देवसेनापतिं प्रभुम् ।। | 3-230-2a 3-230-2b |
वयं पुत्र परित्यक्तां भर्तृभिर्देवसंमितैः। अकारणाद्रुषा तैस्तु पुण्यस्थानात्परिच्युताः ।। | 3-230-3a 3-230-3b |
अस्माभिः किल जातस्त्वमिति केनाप्युदाहृतम्। तत्सत्यमेतत्संश्रुत्य तस्मान्नस्त्रातुमर्हसि ।। | 3-230-4a 3-230-4b |
अक्षयश्च भवेत्स्वर्गस्त्वत्प्रसादाद्धि नः प्रभो। त्वां पुत्रं चाप्यभीप्सामः कृत्वैतदनृणो भव ।। | 3-230-5a 3-230-5b |
स्कन्द उवाच। | 3-230-6x |
मातरो हि भवत्यो मे सुतो वोऽहमनिन्दिताः। यद्वापीच्छत तत्सर्वं संभविष्यति वस्तथा ।। | 3-230-6a 3-230-6b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-230-7x |
विवक्षन्तं ततः शक्रं किं कार्यमिति सोऽब्रवीत्। उक्तः स्कन्देन ब्रूहिति सोऽब्रवीद्वासवस्ततः ।। | 3-230-7a 3-230-7b |
अभिजित्स्पर्धमाना तु रोहिण्या कन्यसी स्वसा। इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता ।। | 3-230-8a 3-230-8b |
तत्र मूढोस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्च्युतम्। कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय ।। | 3-230-9a 3-230-9b |
धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः। [१]रोहिणी ह्यभवत्पूर्वमेवं सङ्ख्या समाभवत् ।। | 3-230-10a 3-230-10b |
एवमुक्ते तु शक्रेण त्रिदिवं कृत्तिका गताः। [२]नक्षत्रं शकटाकारं भाति तद्वह्निदैवतम् ।। | 3-230-11a 3-230-11b |
विनता चाब्रवीत्स्कन्दं मम त्वं पिण्डदः सुतः। इच्छामि नित्यमेवाहं त्वया पुत्र सहासितुम् ।। | 3-230-12a 3-230-12b |
स्कन्द उवाच। | 3-230-13x |
एवमस्तु नमस्तेऽस्तु पुत्रस्नेहात्प्रशाधि माम्। स्नुषया पूज्यमाना वै देवि वत्स्यसि नित्यदा ।। | 3-230-13a 3-230-13b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-230-14x |
अथ मातृगणः सर्वः स्कन्दं वचनमब्रवीत्। वयं सर्वस्य लोकस्य मातरः कविभिः स्तुताः। इच्छामो मातरस्तुभ्यं भवितुं पूजयस्व नः ।। | 3-230-14a 3-230-14b 3-230-14c |
`तासां तु वचनं श्रुत्वास्कन्दो वचनमब्रवीत्'। मातरो हि भवत्यो मे भवतीनामहं सुतः। उच्यतां यन्मया कार्यं भवतीनामथेप्सितम् ।। | 3-230-15a 3-230-15b 3-230-15c |
मातर ऊचुः। | 3-230-16x |
यास्तु ता मातरः पूर्वं लोकस्यास्य प्रकल्पिताः। अस्माकं तु भवेत्स्थानं तासां चैव न तद्भवेत् ।। | 3-230-16a 3-230-16b |
भवेम पूज्या लोकस्य न ताः पूज्याः सुरर्षभ। प्रजाऽस्माकं हृतास्ताभिस्त्वत्कृते ताः प्रयच्छ नः ।। | 3-230-17a 3-230-17b |
स्कन्द उवाच। | 3-230-18x |
वृत्ताः प्रजा न ताः प्रक्या भवतीभिर्निषेवितुम्। अन्प्रां वः कां प्रयच्छामि प्रजां यां मनसेच्छथा ।। | 3-230-18a 3-230-18b |
मातर ऊचुः। | 3-230-19x |
इच्चाम तासां मातॄणां प्रजा भोक्तुं प्रयच्छ नः। त्वया सह पृथग्भूता ये च तासामथेश्वराः ।। | 3-230-19a 3-230-19b |
स्कन्द उवाच। | 3-230-20x |
प्रजा वो दद्मि कष्टं तु भवतीभिरुदाहृतम्। परिरक्षत भद्रं वः प्रजा साधुनमस्कृताः ।। | 3-230-20a 3-230-20b |
मातर ऊचुः। | 3-230-21x |
परिरक्षाम भद्रं ते प्रजाः स्कन्द यथेच्छसि। त्वया नो रोचते स्कन्द सहवासश्चिरंप्रभो ।। | 3-230-21a 3-230-21b |
स्कन्द उवाच। | 3-230-22x |
यावत्षोडश वर्षाणि भवन्ति तरुणाः प्रजाः। प्रबाधत मनुष्याणां तावद्रूपैः पृथग्विधैः ।। | 3-230-22a 3-230-22b |
अहं च वः प्रदास्यामि रौद्रमात्मानमव्ययम्। परमं तेन सहिताः सुखं वत्स्यथ पूजिताः ।। | 3-230-23a 3-230-23b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-230-23x |
ततः शरीरात्स्कन्दस्य परुषः पावकप्रभः। भोक्तुं प्रजाः स मर्त्यानां निष्पपात महाबलः ।। | 3-230-24a 3-230-24b |
अपतत्सहसा भूमौ विसंज्ञोऽथ क्षुधार्दितः। स्कन्देन सोऽभ्यनुज्ञातो रौद्ररूपोऽभवद्ग्रहः ।। | 3-230-25a 3-230-25b |
स्कन्दापस्मार इत्याहुर्गृहं तं द्विजसत्तमाः। विनता तु महारौद्रा कथ्यते शकुनिग्रहः ।। | 3-230-26a 3-230-26b |
मातॄणां राक्षसंप्राहुस्तं विद्यात्पूतनाग्रहम्। कष्टा दारुणरूपेण घोररूपा निशाचरी ।। | 3-230-27a 3-230-27b |
पशाची रदारुणाकारा कथ्यते शीतपूतना। गर्भान्सा मानुषीणां तु हरते घोरदर्शना ।। | 3-230-28a 3-230-28b |
अदितिं रेवतीं प्राहुर्ग्रहस्तस्यास्तु रैवतः। सोऽपि बालान्महागोरो बाधते वै महाग्रहः ।। | 3-230-29a 3-230-29b |
दैत्यानां या दितिर्माता तामाहुर्मुखमण्डिकाम्। अत्यर्थं शिशुमांसेन संप्रहृष्टा दुरासदा ।। | 3-230-30a 3-230-30b |
कुमाराश्च कुमार्यश् ये प्रोक्ताः स्कन्दसंभवाः। तेऽपि गर्भभुजः सर्वे कौरव्यसुमहाग्रहाः ।। | 3-230-31a 3-230-31b |
तासामेव तु पत्नीनां पतयस्ते प्रकीर्तिताः। आजायमानान्गृह्णन्ति बालकान्रौद्रकर्मणः ।। | 3-230-32a 3-230-32b |
गवां माता तु या प्राज्ञैः कथ्यते सुरभिर्नृप। शकुनिस्तामथारुह्यसह भुङ्क्ते शिशून्भुवि ।। | 3-230-33a 3-230-33b |
सरमा नाम या माता शुनां देवी जनाधिप। साऽपिगर्भान्समादत्ते मानुषीणां सदैव हि ।। | 3-230-34a 3-230-34b |
पादपानां च या माता करञ्जनिलया हि सा। वरदा सा हि सौम्या च नित्यं भूतानुकम्पिनी ।। | 3-230-35a 3-230-35b |
करञ्जे तां नमस्यन्ति तस्मात्पुत्रार्थिनो नराः। इमे त्वष्टादशान्ये वै ग्रहा मांसमधुप्रियाः ।। | 3-230-36a 3-230-36b |
द्विपञ्चरात्रं तिष्ठन्ति सततं सूतिकागृहे। कद्रूः सूक्ष्मवपुर्भूत्वा गर्भिणीं प्रविशत्यथ ।। | 3-230-37a 3-230-37b |
भुङ्क्ते सा तत्र तं गर्भं सा तु नागं प्रसूयते। गन्धर्वाणां तु या माता सा गर्भं गृह्य गच्छति ।। | 3-230-38a 3-230-38b |
ततो विलीनगर्भा सा मानुषी भुवि दृश्यते। या जनित्री त्वप्सरसां गर्भमास्ते प्रगृह्य सा ।। | 3-230-39a 3-230-39b |
उपविष्टं ततो गर्भं कथयनति मनीषिणः। लोहितस्योदधेः कन्या धात्री स्कन्दस्य सा स्मृता ।। | 3-230-40a 3-230-40b |
लोहितायनिरित्येवं कदम्बे सा हि पूज्यते। पुरुषे तु यथा रुद्रस्तथाऽऽर्या प्रमदास्वपि ।। | 3-230-41a 3-230-41b |
आर्या माता कुमारस्य पृथक्कामार्थमिज्यते। एवमेते कुमाराणां मया प्रोक्ता महाग्रहाः ।। | 3-230-42a 3-230-42b |
यावत्षोडश वर्षाणि शिशूनां ह्यशिवास्ततः। ये च मातृगणाः प्रोक्ताः पुरुषाश्चैवये ग्रहाः ।। | 3-230-43a 3-230-43b |
सर्वे स्कन्दग्रहा नाम ज्ञेया नित्यं शरीरिभिः। तेषां प्रशमनं कार्यं स्नानं धूपमथाञ्जनम्। बलिकार्गेपहाराश् स्कन्दस्येज्या विशेषतः ।। | 3-230-44a 3-230-44b 3-230-44c |
एवमभ्यर्चिताः सर्वे प्रयच्छन्ति शुभं नृणाम्। आयुर्दीर्घं च राजेनद्रसम्यक्पूजानमस्कृताः ।। | 3-230-45a 3-230-45b |
ऊर्ध्वं तु षोडशाद्वर्षाद्ये भवन्ति ग्रहा नृणाम्। तानहं संप्रवक्ष्यामि नमस्कृत्य महेश्वरम् ।। | 3-230-46a 3-230-46b |
यः पश्यति नरो देवाञ्जाग्रद्वा शयितोपि वा। उन्माद्यति स तु क्षिप्रं तं तु देवग्रहं विदुः ।। | 3-230-47a 3-230-47b |
आसीनश्च शयानश्च यः पश्यति नरः पितॄन्। उन्माद्यतिस तु क्षिप्रं स ज्ञेयस्तु पितृग्रहः ।। | 3-230-48a 3-230-48b |
अवमन्यति यः सिद्धान्क्रुद्धाश्चापि शपन्ति यम्। उन्माद्यति स तु क्षिप्रं ज्ञेयः सिद्धग्रहस्तु सः ।। | 3-230-49a 3-230-49b |
उपाघ्राति च यो गन्धान्रसांश्चापि पृथग्विधान्। उन्माद्यति स तु क्षिप्रं स ज्ञेयो राक्षसो ग्रहः ।। | 3-230-50a 3-230-50b |
गन्धर्वाश्चापि यं दिव्याः संविशन्ति नरं भुवि। उन्माद्यति स तु क्षिप्रं ग्रहो गान्धर्व एव सः ।। | 3-230-51a 3-230-51b |
अधिरोहन्ति यं नित्यं पिशाचाः पुरुषं प्रति। उन्माद्यति स तु क्षिप्रं ग्रहः पैशाच एव सः ।। | 3-230-52a 3-230-52b |
आविशन्ति च यं यक्षाः पुरुषं कालपर्यये। उनमाद्यति स तु क्षिप्रं ज्ञेयो यक्षग्रहस्तु सः ।। | 3-230-53a 3-230-53b |
यस् दोषैः प्रकुपितं चित्तं मुह्यति देहिनः। उनमाद्यति स तु क्षिप्रं साधनं तस्य शास्त्रतः ।। | 3-230-54a 3-230-54b |
वैक्लव्याच्च भयाच्चैव घोराणां चापि दर्शनात्। उन्माद्यति स तु क्षिप्रं सान्त्वं तस्य तु साधनम् ।। | 3-230-55a 3-230-55b |
कश्चित्क्रीडितुकामो वै भोक्तुकामस्तथाऽपरः। अभिकामस्तथैवान्य इत्येष त्रिविधो ग्रहः ।। | 3-230-56a 3-230-56b |
यावत्सप्ततिवर्षाणि भवन्त्येते ग्रहा नृणाम्। अतः परं देहिनां तु ग्रहतुल्या भवेञ्जरा ।। | 3-230-57a 3-230-57b |
अप्रकीर्णेन्द्रियं दान्तं शुचिं नित्यमतन्द्रितम्। आस्तिकं श्रद्दधानं च वर्जयन्ति तदा ग्रहाः ।। | 3-230-58a 3-230-58b |
इत्येष ते ग्रहोद्देशो मानुषाणां प्रकीर्तितः। न स्पृशन्ति ग्रहा भक्तान्नरान्देवं महेश्वरम् ।। | 3-230-59a 3-230-59b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि त्रिंसदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 230 ।। |
3-230-4 असत्यमेतत्संस्कृत्य इति ध. पाठः। अपत्यमेतत्संस्मृत्य इति ट. थ. पाठः ।। 3-230-7 विवक्षन्तमभिजिन्नक्षत्रस् पतनान्नक्षत्रसंख्या कथं समा भवेदिति प्रष्टुमिच्छन्तम् ।। 3-230-8 कन्यसी कनिष्ठा। वनं गता अधिकारं त्यक्तेति शेषः ।। 3-230-10 यस्य नक्षत्रस्याद्यक्षणे चन्द्रसूर्यगुरूणां योगस्तद्युगादिनक्षत्रम्। तच्चपूर्वं रोहिण्यभूत्। तदाभिजित्पतनकाले त्वेकन्यूनैरहोरात्रैर्भगणस्य भोगात् कृतयुगादिनक्षत्रं धनिष्ठैवाभवदित्यर्थः। संख्या कलाकाष्ठादीनाम् ।। 3-230-11 तथा च कृत्तिकाभिरेव नक्षत्रसंख्यापूर्ति कुर्विति शक्राशयं ज्ञात्वा तास्त्रिदिवं गताः। नक्षत्रं सप्तशीर्षाभं इति झ. पाठः ।। 3-230-12 ऋषिपत्नीनामिव गरुत्मत्या अपिरूपं स्वाहया धृतमिति त्सुतत्वं बोध्यम् ।। 3-230-13 स्नुषया देवसेनया ।। 3-230-14 मातृगणो विनतादिसमूहः ।। 3-230-16 ताः प्रसिद्धाः मातरो ब्राह्मीमाहेश्वरीप्रभृतयः ।। 3-230-17 त्वत्कृते त्वदर्थं ताभिर्ब्राह्मयादिभिरस्मद्भर्तॄन् मिथ्याभिशापदोषेण कोपयन्तीभिः प्रजा हृताः सङ्गाभावादित्यर्थः। संधिरार्षः। नोऽस्मभ्यं प्रयच्छ भर्तॄणामनुकूलनेनेत्यर्थः ।। 3-230-18 वृत्तामया दत्ता अपि। मया प्रार्थिता अपि मुनयो युष्मान् नाङ्गीकरिष्यन्तीति भावः ।। 3-230-19 मातॄणां ब्राह्मयादीनाम्। तासां प्रजानामीश्वराः पित्रादयः ।। 3-230-20 प्रजाः अस्मदाद्याः। नमस्कृता यूयं मयेति शेषः ।। 3-230-32 अज्ञायमाना गृहन्ति इति ध. पाठः ।। 3-230-38 मुजाता हरिणी या तु सा गर्भं पिबति प्रभो इति ट. थ. ध.पाठः ।।
आरण्यकपर्व-229 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-231 |