महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-271
← आरण्यकपर्व-270 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-271 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-272 → |
द्रौपद्या जयद्रथंप्रति तत्तल्लक्षणप्रदर्शनपूर्वकं युधिष्ठिरादिनिर्देशः ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
वैशंपायन उवाच। | 3-271-1x |
ततो घोरतरः शब्दो वने समभवत्तदा। भीमसेनार्जुनौ दृष्ट्वाक्षत्रियणाममर्षिणाम् ।। | 3-271-1a 3-271-1b |
तेषां ध्वजाग्राण्यभिवीक्ष्य राजा स्वयंदुरात्मा कुरुपुङ्गवानाम्। जयद्रथो याज्ञसेनीमुवाच रथे स्थितां भानुमतीं हतौजाः ।। | 3-271-2a 3-271-2b 3-271-2c 3-271-2d |
आयान्तीमे पञ्चरथा महान्तो मन्ये च कृष्णे पतयस्तवैते। सा जानती ख्यापय नः सुकेशि परंपरं पाण्डवानां रथस्थम् ।। | 3-271-3a 3-271-3b 3-271-3c 3-271-3d |
द्रौपद्युवाच्। | 3-271-4x |
किं ते ज्ञातैर्मूढ महाधनुर्धरै- रनायुष्यं कर्म कुत्वाऽतिघोरम्। एते वीराः पतयो मे समेता न वः शेषः कश्चिदिहास्ति युद्धे ।। | 3-271-4a 3-271-4b 3-271-4c 3-271-4d |
आख्यातव्यं त्वेव सर्वं मुमूर्षो- र्मया तुभ्यं पृष्टया धर्म एषः। न मे व्यथा विद्यते त्वद्भयं वा संपश्यन्त्याः सानुजं धर्मराजम् ।। | 3-271-5a 3-271-5b 3-271-5c 3-271-5d |
यस् ध्वजाग्रे नदतो मृदङ्गौ नन्दोपनन्दौ मधुरौ सुयुक्तौ। एनं स्वधर्मार्थविनिश्चयज्ञं सदा जनाः कृत्यवन्तोऽनुयान्ति ।। | 3-271-6a 3-271-6b 3-271-6c 3-271-6d |
य एष जाम्बूनदशुद्धगौरः। प्रचण्डघोणस्तनुरायताक्षः। एतं कुरुश्रेष्ठतमं वदन्ति युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ।। | 3-271-7a 3-271-7b 3-271-7c 3-271-7d |
अप्येष शत्रोः शरणागतस्य दद्यात्प्राणान्धर्मचारी नृवीरः। परैह्येनं मूढ जवेन भूतये त्वमात्मनः प्राञ्जलिर्न्यस्शस्त्रः ।। | 3-271-8a 3-271-8b 3-271-8c 3-271-8d |
अथाप्येनं पश्यसि यं रथस्यं महाभुजं सालमिव प्रवृद्धम्। संदष्टौष्ठं भ्रुकुटीसंहतभ्रुवं वृकोदरो नाम पतिर्ममैषः ।। | 3-271-9a 3-271-9b 3-271-9c 3-271-9d |
आजानेया बलिनः साधुदान्ता महाबलाः शूरमुदावहन्ति। एतस्य कर्माण्यतिमानुषाणि भीमेति शब्दोऽस्य ततः पृथिव्याम् ।। | 3-271-10a 3-271-10b 3-271-10c 3-271-10d |
नास्यापराद्धाः शेषमवाप्नुवन्ति नायं वैरं विस्मरते कदाचित्। वैरस्यान्तं संविधायोपयाति पश्चाच्छान्तिं न च तत्तप्यतीव ।। | 3-271-11a 3-271-11b 3-271-11c 3-271-11d |
धनुर्धराग्र्यो धृतिमान्यशस्वी जितेन्द्रियो वृद्धसेवी नृवीरः। भ्राता च शिष्यश्च युधिष्ठिरस्य धनंजयो नाम पतिर्ममैषः ।। | 3-271-12a 3-271-12b 3-271-12c 3-271-12d |
यो वै न कामान्न भयान्न लोभा- त्त्यजेद्धर्मं न नृशंसं च कुर्यात्। स एष वैश्वानरतुल्यतेजाः कुन्तीसुतः शत्रुसहः प्रमाथी ।। | 3-271-13a 3-271-13b 3-271-13c 3-271-13d |
यः सर्वधर्मार्तविनिश्चयज्ञो भयार्तानां भयहर्ता मनीषी। `बन्धुप्रियः शस्त्रभृतां वरिष्ठो महाहवेष्वप्रतिवार्यवीर्यः' ।। | 3-271-14a 3-271-14b 3-271-14c 3-271-14d |
यस्योत्तमं रूपमाहुः पृथिव्यां यं पाण्डवाः परिरक्षन्ति सर्वे। प्राणैर्गरीयांसमनुव्रतं वै स एष वीरो नकुलः पतिर्मे ।। | 3-271-15a 3-271-15b 3-271-15c 3-271-15d |
यः खङ्गयोधी लघुचित्रहस्तो महांश्च धीमान्सहदेवोऽद्वितीयः। यस्याद्यकर्म द्रक्ष्यसे मूढसत्व शतक्रतोर्वा दैत्यसेनासु सङ्ख्ये ।। | 3-271-16a 3-271-16b 3-271-16c 3-271-16d |
शूरः कृतास्त्रो मतिमान्मनस्वी प्रियंकरो धर्मसुतस्य राज्ञः। हुताशचन्द्रार्कसमानतेजा जघन्यजः पाण्डवानां प्रियश्च ।। | 3-271-17a 3-271-17b 3-271-17c 3-271-17d |
बुद्ध्या समो यस् नरो न विद्यते वक्ता तथा सत्सु विनिश्चयज्ञः। सएष शूरो नित्यममर्षणश्च धीमान्प्राज्ञः सहदेवः पतिर्मे ।। | 3-271-18a 3-271-18b 3-271-18c 3-271-18d |
त्यजेत्प्राणान्प्रविशेद्धव्यवाहं न त्वेवैष व्याहरेद्धर्मबाह्यम्। सदा मनस्वी क्षत्रधर्मे रतश्च कुन्त्याः प्राणैरिष्टतमो नृवीरः ।। | 3-271-19a 3-271-19b 3-271-19c 3-271-19d |
विशीर्यनतीं नावमिवार्णवान्ते रत्नाभिपूर्णां मकरस्य पृष्ठे। सेनां तवेमां हतसर्वयोधां विक्षोभितां द्रक्ष्यसि पाण्डुपुत्रैः ।। | 3-271-20a 3-271-20b 3-271-20c 3-271-20d |
इत्येते वै कथिताः पाण्डुपुत्रा यांस्त्वं मोहादवमत्य प्रवृत्तः। यद्येतेभ्यो मुच्यसे रिष्टदेहः पुनर्जन्म प्राप्स्यसे जीवितं च ।। | 3-271-21a 3-271-21b 3-271-21c 3-271-21d |
वैशंपायन उवाच। | 3-271-22x |
ततः पार्थाः पञ्चपञ्चेन्द्रकल्पा- स्त्यक्त्वा त्रस्तान्प्राञ्जलींस्तान्पदातीन्। यथाऽनीकं शरवर्षान्धकारं चक्रुः क्रुद्धाः सर्वतस्ते निगृह्य ।। | 3-271-22a 3-271-22b 3-271-22c 3-271-22d |
3-271-4 अनायुध्यमायुर्नाशकम् ।। 3-271-8 परैहि शरणं गच्छ। एनं धर्मराजम् ।। 3-271-10 आजानेया अश्वविशेषाः ।। 3-271-11 अपराद्धाः अपराधवन्तः ।। 3-271-16 मूढसत्व मूढबुद्धे। शतक्रतोर्वा शतक्रतोरिव ।।
आरण्यकपर्व-270 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-272 |