महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-193
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मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरंप्रतिकलौ भविष्यल्लोकवृत्तान्तकथनम् ।। 1 ।।
कलियगान्ते कल्कित्वेनावतरिष्यता हरिणा दुष्टजनसंहारः ।। 2 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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वैशंपायन उवाच। | 3-193-1x |
युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो मार्कण्डेयं महामुनिम्। पुन- पप्रच्छ सामात्यो भविष्यां जगतो गतिम् ।। | 3-193-1a 3-193-1b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-193-2x |
आश्चर्यभूतं भवतः श्रुतं नो वदतांवर। मुने भार्गव यद्वृत्तं युगादौ प्रभवाप्ययौ ।। | 3-193-2a 3-193-2b |
अस्मिन्कलियुगे त्वस्ति पुनः कौतूहलं मम। समाकुलेषु धर्मेषु किंनु शेषं भविष्यति ।। | 3-193-3a 3-193-3b |
किंवीर्या मानवास्तत्रकिमाहारविहारिणः। किमायुषः किंवसना भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-193-4a 3-193-4b |
कां च काष्ठां समासाद्य पुनः संपत्स्यते कृतम्। विस्तरेण मुने ब्रूहि विचित्राणीह भाषसे ।। | 3-193-5a 3-193-5b |
इत्युक्तः स मुनिश्रेष्ठः पुनरेवाभ्यभाषत। रमयन्वृष्णिशार्दूलं पाण्डवांस्च महानृषिः ।। | 3-193-6a 3-193-6b |
शृणु राजन्मया दृष्टं यत्पुरा श्रुतमेव च। अनुभूतं च राजेनद्रदेवदेवप्रसादजम् ।। | 3-193-7a 3-193-7b |
भविष्यं सर्वलोकस्य वृत्तान्तं भरतर्षभ। कलुषं कालमासाद्य कथ्यमानं निबोध मे ।। | 3-193-8a 3-193-8b |
कृते चतुष्पात्सकलो निर्व्याजोप्राधिवर्जितः। वृषः प्रतिष्ठितो धर्मो मनुष्ये भरतर्षभ ।। | 3-193-9a 3-193-9b |
अधर्मपादविद्धस्तु त्रिभिरंशैः प्रतिष्ठितः। त्रेतायां द्वापरेऽर्धेन व्यामिश्रो धर्म उच्यते ।। | 3-193-10a 3-193-10b |
त्रिभिरंशैरधर्मस्तु लोकानाक्रम्य तिष्ठति। तामसं युगमासाद्य तदा भरतसत्तम ।। | 3-193-11a 3-193-11b |
चतुर्थांशेन धर्मस्तु मनुष्यानुपतिष्ठति। आयुर्वीर्यं मनो बुद्धिर्बलं तेजश्च पाण्डव ।। | 3-193-12a 3-193-12b |
मनुष्याणआमनुयुगं ह्रप्तन्तीति निबोध मे। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव युधिष्ठिर ।। | 3-193-13a 3-193-13b |
व्याजैर्धर्मं चरिष्यन्ति धर्मवैतंसिका नराः। सत्यं संक्षेप्स्यते लोके नरैः पण्डितमानिभिः ।। | 3-193-14a 3-193-14b |
सत्यहान्या ततस्तेषामायुरल्पं भविष्यति। आयुषः प्रक्षयाद्विद्यां न शक्ष्यन्त्युपशिक्षितुम् ।। | 3-193-15a 3-193-15b |
विद्याहीनानविज्ञानाल्लोभोप्यभिभविष्यति। लोभमोहपरा मूढाः कामासक्ताश् मानवाः ।। | 3-193-16a 3-193-16b |
वैरबद्धा भविष्यन्ति परस्परवधैषिणः। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः संकीर्यन्ते परस्परम् ।। | 3-193-17a 3-193-17b |
शूद्रतुल्या भविष्यन्ति तपःसत्यविवर्जिताः। अन्त्या मध्या भविष्यन्ति मध्याश्चान्त्या न संशयः ।। | 3-193-18a 3-193-18b |
ईदृशो भविता लोको युगान्ते पर्युपस्थिते। वस्त्राणां प्रवरा शाणी धान्यानां कोरदूपकः ।। | 3-193-19a 3-193-19b |
भार्यामित्राश्च पुरुषा भविष्यन्ति युगक्षये। मत्स्यामिषेण जीवन्तो दुहन्तश्चाप्यजैडकम् ।। | 3-193-20a 3-193-20b |
गोषु नष्टासु पुरुषा येऽपि नित्यं धृतव्रताः। तेऽपिलोभसमायुक्ता भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-193-21a 3-193-21b |
अन्योन्यं परिमुष्णन्तो हिंसयन्तश्च मानवाः। अजपा नास्तिकाः स्तेना भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-193-22a 3-193-22b |
सरित्तीरेषु कुद्दालैर्वापयिष्यनति चौपधीः। ताश्चाप्यल्पफलास्तेषां भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-193-23a 3-193-23b |
श्राद्धे दैवे च पुरुषा येऽपि नित्यं धृव्रताः। तेऽपिलोभसमायुक्ता भोक्ष्यन्तीह परस्परम् ।। | 3-193-24a 3-193-24b |
पिता पुत्रस् भोक्ता च पितुः पुत्रस्तथैव च। अतिक्रान्तानि भोज्यानि भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-193-25a 3-193-25b |
न व्रतानि चरिष्यन्ति ब्राह्मणा वेदनिन्दकाः। न यक्ष्यन्ति न होष्यन्ति हेतुवादविमोहिताः। निम्नेष्वीहां करिष्यनति हेतुवादविमोहिताः ।। | 3-193-26a 3-193-26b 3-193-26c |
निम्ने कृषिं करिष्यन्ति योक्ष्यन्ति धुरि धेनुक्राः। एकहायनवत्सांश्च वाहयिष्यन्ति मानवाः ।। | 3-193-27a 3-193-27b |
पुत्रः पितृवधं कृत्वा पिता पुत्रवधं तथा। `स्त्रियोऽपि पतिपुत्रादीन्वधिष्यनति युगक्षये'। निरुद्वेगो बृहद्बादी न निन्दामुपलप्स्यते ।। | 3-193-28a 3-193-28b 3-193-28c |
म्लेच्छभूतं जगत्सर्वं निष्क्रियं दानवर्जितम्। भविष्यति निरानन्दमनुत्सवमथो तथा ।। | 3-193-29a 3-193-29b |
प्रायशः कृपणानां हि तथा बन्धुमतामपि। विधवानां च वित्तानि हरिष्यन्तीह मानवाः ।। | 3-193-30a 3-193-30b |
स्वल्पवीर्यबलाः स्वाधा लोभमोहपरायणाः। तत्कथादानसंतुष्ट शिष्टानामपि बान्धवाः ।। | 3-193-31a 3-193-31b |
परिग्रहंकरिष्यति मायाचारपरिग्रहाः। संघातयन्तः तय राजानः पापबुद्धयः ।। | 3-193-32a 3-193-32b |
परस्परवधोयुक्ता मूर्खाः पण्डितमानिनः। भविष्यन्ति युगस्यान्ते क्षत्रिया लोककण्टकाः ।। | 3-193-33a 3-193-33b |
अरक्षितारो लुब्धाश् मानाहंकारदर्पिताः। केवलं दण्डरुचयो भविष्यन्ति युगक्षये ।। | 3-193-34a 3-193-34b |
आक्रम्याक्रम्य साधूनां दारांश्चापि धनानि च। भोक्ष्यन्ते निरनुक्रोसा रुदतामपि भारत ।। | 3-193-35a 3-193-35b |
न कन्यां याचे कश्चिन्नापि कन्या प्रदीयते। स्वयंग्रहा भविष्यन्ति युगान्ते समुपस्थिते ।। | 3-193-36a 3-193-36b |
राजानश्चाप्यसंतुष्टाः परार्तान्मूढचेतसः। सर्वोपायैर्हरिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-37a 3-193-37b |
म्लेच्छीभूतं जगत्सर्वं भविष्यति न संशयः। हस्तो हस्तं परिमुषेद्युगान्ते समुपस्थिते ।। | 3-193-38a 3-193-38b |
सत्यं संक्षिप्यते लोके नरैः पण्डितमानिभिः। स्थविरा बालमतयो बालाः स्थविरबुद्धयः ।। | 3-193-39a 3-193-39b |
भीरुस्था शूरमानी शूरा भीरुविषादिनः। न विश्वसन्ति चान्योन्यं युगान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-40a 3-193-40b |
नैकभार्यं जगत्सर्वं लोभमोहव्यवस्थितम्। अधर्मो वर्धते तत्र न तु धर्मः प्रवर्तते ।। | 3-193-41a 3-193-41b |
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या नशिष्यन्ति जनाधिप। एकवर्णस्तदा लोको भविष्यति युगक्षये ।। | 3-193-42a 3-193-42b |
न क्षंस्यति पिता पुत्रं पुत्रश्च पितरं तथा। भार्याश्च पतिशुश्रूषां न करिष्यन्ति संक्षये ।। | 3-193-43a 3-193-43b |
ये यवान्ना जनपदा गोधूमान्नास्तथैव च। तान्देशान्संश्रयिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-44a 3-193-44b |
स्वैराहाराश्च पुरुषा योषितश्च विशांपते। अन्योन्यं न सहिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-45a 3-193-45b |
म्लेच्छभूतं जगत्सर्वं भविष्यति युधिष्ठिर। श्राद्धे न देवान्न पितॄँस्तर्पयिष्यन्ति मानवाः ।। | 3-193-46a 3-193-46b |
न कश्चित्कस्यचिच्छ्रोता न कश्चित्कस्यचिद्गुरुः। तमोग्रस्तस्तदा लोको भविष्यति जनाधिप ।। | 3-193-47a 3-193-47b |
परमायुश्च भविता तदा वर्षाणि षोडश। ततः प्राणान्विमोक्ष्यन्ति युगान्ते समुपस्थिते ।। | 3-193-48a 3-193-48b |
पञ्चमे वाऽथ षष्ठे वा वर्षे कन्या प्रसूयते। सप्तवर्षाष्टवर्षाश्च प्रजास्यन्ति नरास्तदा ।। | 3-193-49a 3-193-49b |
पत्यौ स्त्री तु तदा राजन्पुरुषो वा स्त्रियं प्रति। युगान्ते राजशार्दूल न तोषमुपयास्यति ।। | 3-193-50a 3-193-50b |
अल्पद्रव्या वृथालिङ्गा हिंसा च प्रभविष्यति। न कश्चित्कस्यचिद्दाता भविष्यति युगक्षये ।। | 3-193-51a 3-193-51b |
अट्टशूला जनपदाः शिवशूलाश्चतुष्पथाः। केशशूलाः स्त्रियश्चापि भविष्यनति युगक्षये ।। | 3-193-52a 3-193-52b |
म्लेच्छाचाराः सर्वमभक्षा दारुणा सर्वकर्मसु। भाविन पश्चिमे काले मनुष्या नात्र संशयः ।। | 3-193-53a 3-193-53b |
क्रयविक्रयकाले च सर्वः सर्वस्य वञ्चनम्। युगान्ते भरतश्रेष्ठ वित्तलोभात्करिष्यति ।। | 3-193-54a 3-193-54b |
ज्ञानानि चाप्यविज्ञाय करिष्यन्ति क्रियास्तथा। आत्मच्छन्देन वर्तन्ते युगान्ते समुपस्थिते ।। | 3-193-55a 3-193-55b |
स्वभावात्क्रूरकर्माणश्चान्योन्यमभिशंसिनः। भवितारो जनाः सर्वे संप्राप्ते तु युगक्षये ।। | 3-193-56a 3-193-56b |
आरामांश्चैव वृक्षांश्च नाशयिष्यन्ति निर्व्यथाः। भविता संशयो लोके जीवितस्य हि देहिनाम् ।। | 3-193-57a 3-193-57b |
तथा लोभाभिभूताश्च भविष्यन्ति नरा नृप। ब्राह्मणांश्च हनिष्यन्ति ब्राह्मणस्वोपभोगिनः ।। | 3-193-58a 3-193-58b |
हाहाकृता द्विजाश्चैव भयार्ता वृषलार्दिताः। त्रातारमलाभन्तो वै भ्रमिष्यनति महीमिमाम् ।। | 3-193-59a 3-193-59b |
जीवितान्तकराः क्रूरा रौद्राः प्राणिविहिंसकाः। यदा भविष्यन्ति नरास्तदा संक्षेप्स्यते युगम् ।। | 3-193-60a 3-193-60b |
आश्रयिष्यन्ति च नदी पर्वतान्विषमाणि च। प्रधावमाना वित्रस्ता द्विजाः कुरुकुलोद्वह ।। | 3-193-61a 3-193-61b |
दस्युभिः पीडिता राजन्काका इव द्विजोत्तमाः। कुराजभिश्च सततं करभारप्रपीडिताः ।। | 3-193-62a 3-193-62b |
धैर्यं त्यक्त्वा महीपाल दारुणे युगसंक्षये। विकर्माणि करिष्यन्ति शूद्राणां परिचारकाः ।। | 3-193-63a 3-193-63b |
शूद्रा धर्मं प्रवक्ष्यन्ति ब्राह्मणाः पर्युपासकाः। श्रोतारश्च भविष्यन्ति प्रामाण्येन व्यवस्थिताः ।। | 3-193-64a 3-193-64b |
विपरीतश्च लोकोऽयं भविष्यत्यधरोत्तरः। एडूकान्पूजयिष्यन्ति वर्जयिष्यन्ति देवताः। शूद्राश्च प्रभविष्यन्ति न द्विजा युगसंक्षये ।। | 3-193-65a 3-193-65b 3-193-65c |
आश्रमेषुमहर्षीणां ब्राह्मणावसथेषु च। देवस्थानेषु चैत्येषु नागानामालयेषु च ।। | 3-193-66a 3-193-66b |
एडूकचिह्ना पृथिवी न देवगृहभूषिता। भविष्यति युगे क्षीणे तद्युगान्तस्य लक्षणम् ।। | 3-193-67a 3-193-67b |
दा रौद्रा धर्महीना मांसादाः पानपास्तथा। भविष्यन्ति नरा नित्यं तदा संक्षेप्स्यते युगम् ।। | 3-193-68a 3-193-68b |
पुष्पं पुष्पे यदा राजन्फले वा फलमाश्रितम्। प्रजास्यति महाराज तदा संक्षेप्स्यते युगम् ।। | 3-193-69a 3-193-69b |
अकालवर्षी पर्जन्यो भविष्यति गते युगे। अक्रमेण मनुष्याणां भविष्यनति तदा क्रियाः ।। | 3-193-70a 3-193-70b |
विरोधमथ यास्यनति वृषला ब्राह्मणैः सह। मही म्लेच्छजनाकीर्णा भविष्यति ततोऽचिरात् ।। | 3-193-71a 3-193-71b |
करभारभयाद्विप्रा भजिष्यन्ति दिशो दश। `अन्यायवर्तिनश्चापि भविष्यनति नराधिपाः' ।। | 3-193-72a 3-193-72b |
निर्विशेषा जनपदास्तथा विष्टिकरार्दिताः। आश्रमानुपलप्स्यन्ति फलमूलोपजीविनः ।। | 3-193-73a 3-193-73b |
एवं पर्याकुले लोके मर्यादा न भविष्यति। `ब्राह्मणःक्षत्रियावैश्याः परित्यक्ष्यन्ति सत्क्रियाम्' न स्थास्यन्त्युपदेशे च शिष्या विप्रियकारिणः ।। | 3-193-74a 3-193-74b 3-193-74c |
आचार्योपनिधिश्चैव भर्त्स्यते तदनन्तरम्। अर्थयुक्त्या प्रवात्स्यन्ति मित्रसंबन्धिबान्धवाः ।। | 3-193-75a 3-193-75b |
अभावः सर्वभूतानां युगान्ते संभविष्यति। दिशः प्रज्वलिता सर्वा नक्षत्राण्यप्रभाणि च ।। | 3-193-76a 3-193-76b |
प्रधूपितानि ज्योतींषि वाताः पर्याकुलास्तथा। उल्कापाताश्च बहवो महाभयनिदर्शकाः ।। | 3-193-77a 3-193-77b |
षङ्भिरन्यैश्च सहितो भास्करः प्रतपिष्यति। तुमुलाश्चापि निर्ह्रादा दिग्दाहाश्चापि सर्वशः। कबन्धान्तर्हितो भानुरुदयास्तमने तदा ।। | 3-193-78a 3-193-78b 3-193-78c |
अकालवर्षी भगवान्भविष्यति सहस्रदृक्। सस्यानि च न रोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-79a 3-193-79b |
अभीक्ष्णं क्रूरवादिन्यः परुषा रदितप्रियाः। भर्तॄणां वचने चैव न स्थास्यन्ति ततः स्त्रियः ।। | 3-193-80a 3-193-80b |
पुत्राश्च मातापितरौ हनिष्यन्ति युगक्षये। सूदयिष्यन्ति च पतीन्स्त्रियः पुत्रानपाश्रिताः ।। | 3-193-81a 3-193-81b |
अपर्वणि महाराज सूर्यं राहुरुपैष्यति। युगान्ते हुतभुक्वापि सर्वतः प्रज्वलिष्यति ।। | 3-193-82a 3-193-82b |
पानीयं भोजनं चापि याचमानास्तदाऽध्वगाः। न लप्स्यन्ते निवासं च निरस्ताः पथि शेरते ।। | 3-193-83a 3-193-83b |
निर्घातवायसा नागाः शकुनाः समृगद्विजाः। रूक्षा वाचो विमोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-84a 3-193-84b |
मित्रसंबन्धिनश्चापि संत्यक्ष्यनति नरास्तदा। जनं परिजनं चापि यागान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-85a 3-193-85b |
अथ देशान्दिशश्चापि पत्तनान्यापणानि च। क्रमशः संलयिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते ।। | 3-193-86a 3-193-86b |
हा तात हा सुतेत्येवं तदा वाच सुदारुणाः। विक्रोशमानश्चान्योन्यं जनो गां पर्यटिष्यति ।। | 3-193-87a 3-193-87b |
`मोवादिनस्तथा शूद्रा ब्राह्मणाः प्राकृतप्रियाः। पाषण्डजनसंकीर्णा भविष्यन्ति युगक्षये' ।। | 3-193-88a 3-193-88b |
ततस्तुमुलसंघाते वर्तमाने युगक्षये। द्विजातिपूर्वको लोकः क्रमेण प्रभविष्यति ।। | 3-193-89a 3-193-89b |
ततः कालान्तरेऽन्यस्मिन्पुनर्लोकविवृद्धये। भविष्यति पुनर्दैवमनुकूलं यदृच्छया ।। | 3-193-90a 3-193-90b |
यदा सूर्यश्च चन्द्रश्च तथा तिष्यबृहस्पती। एकराशौ समेष्यन्ति प्रपत्स्यति तदा कृतम् ।। | 3-193-91a 3-193-91b |
कालवर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च। प्रदक्षिणा ग्रहाश्चापि भविष्यन्त्यनुलोमगाः। क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम् ।। | 3-193-92a 3-193-92b 3-193-92c |
कल्की विष्णुयशा नाम द्विजः कालप्रचोदितः। उत्पत्स्यते महावीर्यो महाबुद्धिपराक्रमः ।। | 3-193-93a 3-193-93b |
संभूतः संभलग्रामे ब्राह्मणावसथे शुभे। `महात्मा वृत्तसंपन्नः प्रजानां हितकृन्नृप' ।। | 3-193-94a 3-193-94b |
मनसा तस्य सर्वाणि वाहनान्यायुधानि च। उपस्तास्यन्ति योधाश्च शस्त्राणि कवचानि च ।। | 3-193-95a 3-193-95b |
स धर्मविजयी राजा चक्रवर्ती भविष्यति। सचेमं संकुलं लोकं प्रसादमुपनेष्यति ।। | 3-193-96a 3-193-96b |
उत्थितो ब्राह्मणो दीप्तः क्षयान्तकृदुदारधीः। संक्षेपको हि सर्वस्य युगस्य परिवर्तकः ।। | 3-193-97a 3-193-97b |
स सर्वत्र गतान्क्षुद्रान्ब्राह्मणैः परिवारितः। उत्सादयिष्यति तदा सर्वम्लेच्छगणान्द्विजः ।। | 3-193-98a 3-193-98b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। |
3-193-3 शेषं जगद्भविष्यति उत्कर्षं प्राप्स्यति ।। 3-193-5 काष्ठां अवधिम्। कृतंकृतयुगम् ।। 3-193-8 कलुषं कलिम् ।। 3-193-9 निर्व्याजश्छद्महीनः। उपाधिवर्जितः लोभादिहीनः। वृषइव चतुष्पात् ।। 3-193-10 अर्धेनाधर्मेण ।। 3-193-14 धर्मवैतंसिकाः धर्मजालिकाः धर्मजालं विस्तार्य लोकान्वञ्चयन्तीत्यर्थः ।। 3-193-18 अन्त्या इति। चाण्डालाः क्षत्रियादिकर्म क्षत्रियादयश्चाण्डालकर्म करिष्यन्तीत्य्रथः ।। 3-193-19 शाणी शणसूतर्जा प्रवराशाटीति ख. पाठः ।। 3-193-26 निम्नेषु हीनेषु कर्मसु ।। 3-193-32 पापाचारपरिग्रहा इति ध. पाठः ।। 3-193-37 परार्थान्परधनानि ।। 3-193-38 हस्तो हस्तं परिमुषेद्धस्तवदेकोदरजोपि भ्राता भ्रातरं वञ्चयेदेव ।। 3-193-41 एकाहार्यं युगं सर्वमिति झ. पाठः। एकहार्यं एकविधमेव मांसशाकादिकमाहारमर्हतीति तथा। भक्ष्याभक्ष्यविभागो नास्तीत्यर्थः ।। 3-193-42 एकवर्णः वर्णविभागनाशनात् ।। 3-193-43 न रक्षति पिता पुत्रमिति ध. पाठः ।। 3-193-45 खैराचारश्चेति झ. पाठः ।। 3-193-49 प्रजास्यन्ति प्रजाः जनयिष्यन्ति ।। 3-193-55 ज्ञानानि ज्ञेयस्वरूपाणि ।। 3-193-56 श्चान्योन्यमभिशङ्किता इति ध. पाठः ।। 3-193-57 संक्षयो लोक इजि ध. पाठः ।। 3-193-59 वृषलार्दिताः शूद्रपीडिताः ।। 3-193-60 संक्षेप्स्यते नाशं गमिष्यति ।। 3-193-62 काका इव सर्वतः शङ्किनः नीचवृत्त्युपजीविनो वा ।। 3-193-65 एडूकान् अस्थ्यङ्कितनानि कुड्यानि। जालूकान्पूजयिष्यन्तीति क. ध. पाठः ।। 3-193-73 निर्विशेषाः तुल्याचारवेषाः। विष्टिकराः मृतिमदत्त्वाकारयन्ति ते ।। 3-193-75 आचार्योपि अपनिधिः निर्धनः भर्त्स्यते धिकूक्रिते। अर्थयुक्त्या धनयोगेन नतु स्नेहेन धर्मेण वा ।। 3-193-78 कबन्धान्तर्हितः राह्वन्तर्हितः ।। 3-193-91 यदेति। गुरुसूर्यचन्द्राः यदा युगपत्पुष्यक्षत्रमेष्यन्ति तदा कृतयुगप्रवृत्तिरितित्यर्तः ।। 3-193-94 सभूतः शंबलग्नामे इति ध. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-192 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-194 |