महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-192
← आरण्यकपर्व-191 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-192 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-193 → |
हरिणा मार्कण्डेयंप्रित स्वमाहात्म्यकथनपूर्वकमन्तर्धानम् ।। 1 ।।
मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरादीन्प्रति कृष्णस्य सर्वोत्तमत्वप्रतिपादनेन तंप्रति शरणागमनचोदना ।। 2 ।।
कृष्णेन तेषां समाश्वासनम् ।। 3 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
देव उवाच। | 3-192-1x |
कामं देवाऽपि मां विप्र न हि जानन्ति तत्त्वतः। त्वत्प्रीत्या तु प्रवक्ष्यामि यथेदं विमृजाम्यहम् ।। | 3-192-1a 3-192-1b |
पितृभक्तोसि विप्रर्षे मां चैव शरणं गतः। ततो दृष्टोस्मि ते साक्षाद्ब्रह्यचर्यं च ते महत् ।। | 3-192-2a 3-192-2b |
आपो नारा इति प्रोक्तास्तासां नाम कृतं मया। तेन नारायणप्युक्तो मम तत्त्वयनं सदा ।। | 3-192-3a 3-192-3b |
अहंनारायणो नाम प्रभवः शाश्वतोऽव्ययः। विधाता सर्वभूतानां संहर्ता च द्विजोत्तम् ।। | 3-192-4a 3-192-4b |
अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रश्चाहं सुराधिपः। अहं वैश्रवणो राजा यमः प्रेताधिपस्तथा ।। | 3-192-5a 3-192-5b |
अहं शिवश्च सोमश्च कश्यपोऽथ प्रजापतिः। अहं धाता विधाता च यज्ञश्चाहं द्विजोत्तम ।। | 3-192-6a 3-192-6b |
अग्निरास्यं क्षिति पादौ चन्द्रादित्यौ च लोचने। द्यौर्मूर्धा मे दिशः श्रोत्रे तथाऽऽपः स्वेदसंभवाः। सकलं च नभः कायो वायुर्मनसि मे स्थितः ।। | 3-192-7a 3-192-7b 3-192-7c |
मया क्रतुशतैरिष्टं बहुभिस्त्वाप्तदक्षिणैः। यजन्ते वेदविदुषो मां देवसदने स्थितम् ।। | 3-192-8a 3-192-8b |
पृथिव्यां क्षत्रियेन्द्राश् पार्तिवाः स्वर्गकाङ्क्षिणः। यजन्ते मां तथा वैश्याः स्वर्गलोकजिगीषया ।। | 3-192-9a 3-192-9b |
चतुःसमुद्रपर्यन्तां मेरुमन्दरभूषणाम्। शेषो भूत्वाऽहमेवैतां धारयामि वसुंधराम् ।। | 3-192-10a 3-192-10b |
वाराहं रूपमास्थाय मयेयं जगती पुरा। मज्जमाना जले विप्र वीर्येणासीत्समुद्धृता ।। | 3-192-11a 3-192-11b |
अग्निश्च बडबावक्रे भूत्वाऽहं द्विजसत्तम। पिबाम्यापः सदा विद्वंस्ताश्चैव विसृजाम्यहम् ।। | 3-192-12a 3-192-12b |
ब्रह्म वक्रं भुजौ क्षत्रमूरू मे संस्थिता विशः। पादौ शूद्रा भवन्तीमे विक्रमेण क्रमेण च ।। | 3-192-13a 3-192-13b |
ऋग्वेदः सामवेदश्च यजुर्वेदोऽप्यथर्वणः। मत्तः प्रादुर्भवन्त्येते मामेव प्रविशन्ति च ।। | 3-192-14a 3-192-14b |
यतयः शान्तिपरमा यतात्मानो मुमुक्षवः। कामक्रोधद्वेषमुक्ता निःसंज्ञा वीतकल्मषाः ।। | 3-192-15a 3-192-15b |
सत्वस्था निरहंकारा नित्यमध्यात्मकोविदाः। मामेव सततं विप्राश्चिन्तयन्त उपासते ।। | 3-192-16a 3-192-16b |
अहं संवर्तको वह्निरहं संवर्तको यमः। अहं संवर्तकः सूर्यस्त्वहं संवर्तकोऽनिलः ।। | 3-192-17a 3-192-17b |
तारारूपाणि दृश्यन्ते यान्येतानि नभस्तले। मम रूपाण्यथैतानि विद्धि त्वं द्विजसत्तम ।। | 3-192-18a 3-192-18b |
रत्नाकराः समुद्राश्च सर्व एव चतुर्दिशः। वसनं शयनं चैव विलयं चैव विद्धि मे ।। | 3-192-19a 3-192-19b |
मयैव सुविभक्तास्ते देवकार्यार्थसिद्धये। कामं क्रोधं च हर्षं च भयं मोहं तथैव च। ममैव विद्धि रोमाणि सर्वाण्येतानि सत्तम ।। | 3-192-20a 3-192-20b 3-192-20c |
प्राप्नुवन्ति नरा विप्र यत्कृत्वा कर्म शोभनम्। सत्यं दानं तपश्चोग्रमहिंसा चैव जन्तुषु ।। | 3-192-21a 3-192-21b |
मद्विधानेन विहिता मम देहविहारिणः। मयाऽभिभूतविज्ञाना विचेष्टन्ते न कामतः ।। | 3-192-22a 3-192-22b |
सम्यग्वेदमधीयाना यजन्ते विविधैर्मखैः। शान्तात्मानो जितक्रोधाः प्राप्नुवन्ति द्विजातयः ।। | 3-192-23a 3-192-23b |
---न शक्यो यो विद्वन्नरैर्दुष्कृतकर्मभिः। ---भाभिभूतैः कृपणैरनार्यैरकृतात्मभिः ।। | 3-192-24a 3-192-24b |
तस्मान्महाफलंविद्धि पदं सुकृतकर्मणः। सुदुष्प्रापं विमूढानां मार्गं योगैर्निषेवितम् ।। | 3-192-25a 3-192-25b |
यदा यदा च धर्मस्य ग्लानिर्भवति सत्तम। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ।। | 3-192-26a 3-192-26b |
दैत्या हिंसानुरक्ताश्च अवध्याः सुरसत्तमैः। राक्षसाश्चापि लोकेऽस्मिन्यदोत्पत्स्यन्ति दारुणाः ।। | 3-192-27a 3-192-27b |
तदाऽहंसंप्रसूयामि गृहेषु शुभकर्मणाम्। प्रविष्टो मानुषं देहं सर्वं प्रशमयाम्यहम् ।। | 3-192-28a 3-192-28b |
सृष्ट्वा देवमनुष्यांस्तु गन्धर्वोरगराक्षसान्। स्थावराणि च भूतानि संहराम्यात्ममायया ।। | 3-192-29a 3-192-29b |
कर्मकाले पुनर्देहमनुचिन्त्य सृजाम्यहम्। आविश्य मानषं देहं मर्यादाबन्धकारणात् ।। | 3-192-30a 3-192-30b |
श्वेतः कृतयुगे वर्णः पीतस्त्रेतायुगे मम। श्यामो द्वापरमासाद्य कृष्णः कलियुगे तथा ।। | 3-192-31a 3-192-31b |
त्रयो भागा ह्यधर्मस् तस्मिन्काले भवनति च। `यदा भवति मे वर्णः कृष्णो वै द्विजसत्तम्' ।। | 3-192-32a 3-192-32b |
अन्तकाले च संप्राप्ते कालो भूत्वाऽतिदारुणः। त्रैलोक्यं नाशयाम्येकः कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् ।। | 3-192-33a 3-192-33b |
अहं त्रिवर्त्मा विश्वात्मा सर्वलोकसुखावहः। अजितः सर्वगोऽनन्तो हृषीकेश उरुक्रमः। कालचक्रं नयाम्येको ब्रह्मन्नहमरूपकम् ।। | 3-192-34a 3-192-34b 3-192-34c |
शमनं सर्वभूतानां सर्वकालकृतोद्यमम्। एवं प्रणिहितः सम्यङ्मायया मुनिसत्तम। सर्वभूतेषु विप्रेन्द्र न च मां वेत्ति कश्चन ।। | 3-192-35a 3-192-35b 3-192-35c |
सर्वलोके च मां भक्ताः पूजयन्ति च सर्वशः ।। | 3-192-36a |
यच्च किंचित्त्वया प्राप्तं मयि क्लेशात्मकं द्विज। सुखोदयाय तत्सर्वं श्रेयसे च तवानघ ।। | 3-192-37a 3-192-37b |
यच्च किंचित्त्वया लोके दृष्टं स्थावरजङ्गमम्। विहित सर्वथैवासौ ममात्मा भूतभावनः ।। | 3-192-38a 3-192-38b |
अर्धं मम शरीरस्य सर्वलोकपितामहः। अहं नारायणो नाम शङ्खचक्रगदाधरः ।। | 3-192-39a 3-192-39b |
यावद्युगानां विप्रर्षे सहस्रपरिवर्तनम्। तावत्स्वपिमि विश्वात्मा सर्वलोकपितामहः ।। | 3-192-40a 3-192-40b |
एवं सर्वमहं कालमिहासे मुनिसत्तम। अशिशुः शिशुरूपेण यावद्ब्रह्मा न बुध्यते ।। | 3-192-41a 3-192-41b |
मया च दत्तो विप्राग्र्य वरस्ते ब्रह्मरूपिणा। असकृत्परितष्टेन विप्रर्षिगणपूजित ।। | 3-192-42a 3-192-42b |
सर्वमेकार्णवं दृष्ट्वा नष्टं स्थावरजङ्गमम्। विक्लबोसि मया ज्ञातस्ततस्ते दर्शितं जगत् ।। | 3-192-43a 3-192-43b |
अभ्यन्तरं शरीरस्य प्रविष्टोसि यदा मम। दृष्ट्वा लोकं समस्तं च विस्मितो नावबुध्यसे ।। | 3-192-44a 3-192-44b |
ततोसि वक्राद्विप्रर्षे द्रुतं निःसारितो मया। आख्यातस्ते मया चात्मा दुर्ज्ञे योपि सुरासुरैः ।। | 3-192-45a 3-192-45b |
यावत्स भगवान्ब्रह्मा न बुध्येत महातपाः। तावत्त्वमिह विप्रर्षे विस्रब्धश्चर वै सुखम् ।। | 3-192-46a 3-192-46b |
ततो विबुद्धे तस्मिंस्तु सर्वलोकपितामहे। एकीभूतः प्रवेक्ष्यामि शरीराणि द्विजोत्तम ।। | 3-192-47a 3-192-47b |
आकाशं पृथिवीं ज्योतिर्वायुं सलिलमेव च। लोके यच्च भवेच्छेषमिह स्थावरजङ्गमम् ।। | 3-192-48a 3-192-48b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-192-49x |
इत्युक्त्वान्तर्हितस्तात स देवः परमाद्भुतः। प्रजाश्चेमाः प्रपश्यामि विचित्रा विविधाः कृताः ।। | 3-192-49a 3-192-49b |
एवं दृष्टं मया राजंस्तस्मिन्प्राप्ते युगक्षये। आश्चर्यं भरतश्रेष्ठ सर्वधर्मभृतांवरः ।। | 3-192-50a 3-192-50b |
यः स देवो मया दृष्टः पुरा पद्मायतेक्षणः। स एष पुरुषव्याघ्र संबन्धी ते जनार्दनः ।। | 3-192-51a 3-192-51b |
अस्यैव वरदानाद्धि स्मृतिर्न प्रजहाति माम्। दीर्गमायुश्च कौन्तेय स्वच्छन्दमरणं मम ।। | 3-192-52a 3-192-52b |
स एष कृष्णो वार्ष्णेय पुराणपुरुषो विभुः। आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा क्रीडन्निव महाभुजः ।। | 3-192-53a 3-192-53b |
एष धाता विधाता च संहर्ता चैव शाश्वतः। श्रीवत्सवक्षा गोविन्दः प्रजापतिपतिः प्रभुः ।। | 3-192-54a 3-192-54b |
दृष्ट्वेमं वृष्णिप्रवरं स्मृतिर्मामियमागता। आदिदेवमयं जिष्णुं पुरुषं पीतवाससम् ।। | 3-192-55a 3-192-55b |
सर्वेषामेव भूतानां पिता माता च माधवः। गच्छध्वमेनं शरणं शरण्यं कौरवर्षभाः ।। | 3-192-56a 3-192-56b |
वैशंपायन उवाच। | 3-192-57x |
एवमुक्तास्च ते पार्ता यमौ च पुरुषर्षभौ। द्रौपद्या सहिताः सर्वे नमश्चक्रुर्जनार्दनम् ।। | 3-192-57a 3-192-57b |
स चैतान्पुरुषव्याघ्र साम्ना परमवल्गुना। सान्त्वयामास मानार्हो मन्यमानो यथाविधि ।। | 3-192-58a 3-192-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 192 ।। |
3-192-2 ते त्वया ।। 3-192-31 रक्तो द्वापरमासाद्य इति. झ. पाठः ।। 3-192-47 एकीभूतो हि स्रक्ष्यामि इति झ. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-191 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-193 |