महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-079
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युधिष्ठिरेण काम्यकवनमुपागतं नारदंप्रति भूप्रादक्षिण्येन तीर्थयात्राफलप्रश्नः ।। 1 ।। नारदेन तत्कथनाय पुलस्त्यभीष्मसंवादानुवादारम्भः ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-79-1x |
`धनञ्जयोत्सुकास्ते तु वने तस्मिन्महारथाः। न्यवसन्त महाभागा द्रौपद्या सह कृष्णया' ।। | 3-79-1a 3-79-1b |
धनं जयोत्सुकानां तु भ्रातॄणां कृष्णया सह। श्रुत्वा वाक्यानि विमना धर्मराजोप्यजायत ।। | 3-79-2a 3-79-2b |
अथापश्यन्महात्मानं देवर्षिं तत्र नारदम्। दीप्यमानं श्रिया ब्राह्म्या दीप्ताग्निसमतेजसम् ।। | 3-79-3a 3-79-3b |
तमागतमभिप्रेक्ष्य भ्रातृभिः सह धर्मराट्। प्रत्युत्थाय यथान्यायं पूजां चक्रे महात्मने ।। | 3-79-4a 3-79-4b |
स तैः परिवृतः श्रीमान्भ्रातृभिः कुरुसत्तमः। विबभावतिदीप्तौजा देवैरिव शतक्रतुः ।। | 3-79-5a 3-79-5b |
यथा च वेदान्सावित्री याज्ञसेनी तथा पतीन्। न जहौ धर्मतः पार्थान्मेरुमर्कप्रभा यथा ।। | 3-79-6a 3-79-6b |
`अर्ध्यं पाद्यमथानीय त्वभ्यवायदच्युतः। नारदस्तु महातेजाः स्वस्त्यस्त्वित्यभ्यभाषत ।। | 3-79-7a 3-79-7b |
ततो युधिष्ठिरो राजा दृष्ट्वा देवर्षिसत्तमम्। यथार्हं पूजयामास विधिवत्कुरुनन्दनः' ।। | 3-79-8a 3-79-8b |
प्रतिगृह्य च तां पूजां नारदो भगवानृषिः। आश्वासयद्धर्मसुतं युक्तरूपमिवानघ ।। | 3-79-9a 3-79-9b |
उवाच च महात्मानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्। ब्रूहि धर्मभृतां श्रेष्ठ केनार्थः किं ददानि ते ।। | 3-79-10a 3-79-10b |
अथ धर्मसुतो राजा प्रणम्य भ्रातृभिः सह। उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा नारदं देवसंमितम् ।। | 3-79-11a 3-79-11b |
न्वयि तुष्टे महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते। कृतमित्येव मन्येऽहं प्रसादात्तव सुव्रत ।। | 3-79-12a 3-79-12b |
यदि त्वहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ। संदेहं मे सुनिश्रेष्ठ तत्वतश्छेत्तुमर्हसि ।। | 3-79-13a 3-79-13b |
प्रदक्षिणां यः कुरुते पृथिवीं तीर्थतत्परः। किं फलं तस्य कार्त्स्न्येन तद्भवान्वक्तुमर्हति ।। | 3-79-14a 3-79-14b |
नारद उवाच। | 3-79-15x |
शृणु राजन्नवहितो यथा भीष्मेण धीमता। पुलस्त्यस्य सकाशाद्वै सर्वमेतदुपश्रुतम् ।। | 3-79-15a 3-79-15b |
पुरा भागीरथीतीरे भीष्मो धर्मभृतांवरः। पित्र्यं व्रतं समास्थाय न्यवसन्मुनिभिः सह ।। | 3-79-16a 3-79-16b |
शुभे देशे तथा राजन्पुण्ये देवर्षिसेविते। गङ्गाद्वारे महाभाग देवगन्धर्वसेविते ।। | 3-79-17a 3-79-17b |
स पितॄंस्तर्पयामास देवांश्च परमद्युतिः। ऋषींश्च तर्पयामास विधिदृष्टेन कर्मणा ।। | 3-79-18a 3-79-18b |
कस्य चित्त्वथ कालस्य जपन्नेव महायशाः। ददर्शाद्भुतसंकाशं पुलस्त्यमृषिसत्तमम् ।। | 3-79-19a 3-79-19b |
स तं दृष्ट्वोग्रतपसं दीप्यमानमिव श्रिया। प्रहर्षमतुलं लेभे विस्मयं परमं ययौ ।। | 3-79-20a 3-79-20b |
उपस्थितं महाभागं पूजयामास भारत। भीष्मो धर्मभृतां श्रेष्ठो विधिदृष्टेन कर्मणा ।। | 3-79-21a 3-79-21b |
शिरसा चाघमादाय शुचिः प्रयतमानसः। नाम संकीर्तयामास तस्मिन्ब्रह्मर्षिसत्तमे ।। | 3-79-22a 3-79-22b |
भीष्मोऽहमस्मि भद्रं ते दासोऽस्मि तव सुव्रत। तव संदर्शनादेव मुक्तोऽहं सर्वकिल्वपैः ।। | 3-79-23a 3-79-23b |
रएवमुक्त्वा महाराज भीष्मो धर्मभृतांवरः। वाग्यतः प्राञ्जलिर्भूत्वातूष्णीमासीद्युधिष्ठिर ।। | 3-79-24a 3-79-24b |
तं दृष्ट्वा नियमेनाथ स्वाध्यायाम्नायकर्शितम्। भीष्मं कुरुकुलश्रेष्ठं मुनिः प्रीतमनाऽभवत् ।। | 3-79-25a 3-79-25b |
`ततः स मधुरेणाथ स्वरेण सुमहातपाः। उवाच वाक्यं धर्मज्ञः पुलस्त्यः प्रीतमानसः' ।। | 3-79-26a 3-79-26b |
।। इति श्रीमन्माहाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।। 79 ।। |
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