महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-269
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द्रौपद्या स्वाभिलाषिणो जयद्रथस्य गर्हणम् ।। 1 ।। तथा बलात्स्ववस्त्रान्तकर्षिणस्तस्याक्षेपादधःपातनपूर्वकं स्वयमेव तद्रथारोहणम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-269-1x |
सरोषरागोपहतेन वल्गुना सरागनेत्रेण नतोन्नतभ्रुवा। मुखेन विस्फूर्य सुवीरराष्ट्रपं ततोऽब्रवीत्तं द्रुपदात्मजा पुनः ।। | 3-269-1a 3-269-1b 3-269-1c 3-269-1d |
यशस्विनस्तीक्ष्णविषान्महारथा- नभिब्रुवन्मूढ न लज्जसे कथम्। महेन्द्रकल्पान्निरतान्स्वकर्मसु स्तितान्समूहेष्वपि यक्षरक्षसाम् ।। | 3-269-2a 3-269-2b 3-269-2c 3-269-2d |
न किंचिदार्याः प्रवदन्ति पापं वनेचरंवा गृहमेधिनं वा। तपस्विनं संपरिपूर्णविद्यं भजन्ति चैवं सुनराः सुवीर ।। | 3-269-3a 3-269-3b 3-269-3c 3-269-3d |
अहं तु मन्ये तव नास्ति कश्चि- देतादृशे क्षत्रियसंनिवेशे। यस्त्वद्य पातालमुखे पतन्तं पाणौ गृहीत्वा प्रतिसंहरेत ।। | 3-269-4a 3-269-4b 3-269-4c 3-269-4d |
नागं प्रमिन्नं गिरिकूटकल्प- मुपत्यकां हैमवतीं चरन्तम्। दण्डीव यूथादपसेधसि त्वं यो जेतुमाशंससि धर्मराजम् ।। | 3-269-5a 3-269-5b 3-269-5c 3-269-5d |
बाल्यात्प्रसुप्तस्य महाबलस्य सिंहस् पक्ष्माणि मुखाल्लुनासि। पदा समाहत्य पलायमानः क्रुद्धं यदा द्रक्ष्यसि भीमसेनम् ।। | 3-269-6a 3-269-6b 3-269-6c 3-269-6d |
महाबलं घोरतरं प्रवृद्धं जातं हरिं पर्वतकन्दरेषु। प्रसुप्तमुग्रं प्रपदेन हंसि यः क्रुद्धमायोत्स्यसि जिष्णुमुग्रम् ।। | 3-269-7a 3-269-7b 3-269-7c 3-269-7d |
कृष्णोरगौ तीक्ष्णमुखौ द्विजिह्वौ मत्तः पदा क्रामसि पुच्छदेशे। यः पाण्डवाभ्यां पुरुषोत्तमाभ्यां जघन्यजाभ्यां प्रयुयुत्ससे त्वम् ।। | 3-269-8a 3-269-8b 3-269-8c 3-269-8d |
यथा च वेणुः कदली नलो वा फलन्त्यभावाय न भूतयेऽऽत्मनः। तथैव मां तैः परिरक्ष्यमाणा- मादास्यसे कर्कटकीव गर्भम् ।। | 3-269-9a 3-269-9b 3-269-9c 3-269-9d |
जयद्रथ उवाच। | 3-269-10x |
जानामि कृष्णे विदितं ममैत- द्यथाविधास्ते नरदेवपुत्राः। न त्वेवमेतेन विभीषणेन शक्या वयं त्रासयितुं त्वयाऽद्य ।। | 3-269-10a 3-269-10b 3-269-10c 3-269-10d |
वयं पुनः सप्तदशेषु कृष्णे कुलेषु सर्वेऽनवमेषु जाताः। षड्भ्यो गुणेभ्योऽभ्यधिका विहीना न्मन्यामहे द्रौपदी पाण्डुपुत्रान् ।। | 3-269-11a 3-269-11b 3-269-11c 3-269-11d |
सा क्षिप्रमातिष्ठ गजं रथं वा न वाक्यमात्रेण वयं हि शक्याः। आशंस वा त्वं कृपणं वदन्ती सौवीरराजस्य पुनः प्रसादम् ।। | 3-269-12a 3-269-12b 3-269-12c 3-269-12d |
द्रौपद्युवाच। | 3-269-13x |
महाबला किंत्विह दुर्बलेव सौवीरराजस्य मताऽहमस्मि। नाहं प्रमाथादिह संप्रतीता सौवीरराजं कृपणं वदेयम् ।। | 3-269-13a 3-269-13b 3-269-13c 3-269-13d |
यस्या हि कृष्णौ पदवीं चरेतां समास्थितावेकरथे समेतौ। इन्द्रोऽपितां नापहरेत्कथंचि- न्मनुष्यमात्रः कृपणः कुतोऽन्यः ।। | 3-269-14a 3-269-14b 3-269-14c 3-269-14d |
यथा विकीटी परवीरघाती निघ्नन्रथस्थो द्विषतां मनांसि। मदन्तरे त्वद्ध्वजिनीं प्रवेष्टा वक्षं दहन्नग्निरिवोष्णगेषु ।। | 3-269-15a 3-269-15b 3-269-15c 3-269-15d |
जनार्दनः सान्धकवृष्णिवीरो महेष्वासाः केकयाश्चापि सर्वे। एते हि सर्वे मम राजपुत्राः प्रहृष्टरूपाः पदवीं चरेयुः ।। | 3-269-16a 3-269-16b 3-269-16c 3-269-16d |
मौर्वीविसृष्टाः स्तनयित्नुघोषा गाण्डीवमुक्तास्त्वतिवेगवन्तः। हस्तं समाहत्य धनंजयस्य भीमाः शब्दं घोरतरं नदनति ।। | 3-269-17a 3-269-17b 3-269-17c 3-269-17d |
गाण्डीवमुक्तांश्च महाशरौघान् पतङ्गसङ्घानिव शीघ्रवेगान्। यदा द्रष्टास्यर्जुनं वीर्यशालिनं तदा स्वबुद्धिं प्रतिनिन्दितासि ।। | 3-269-18a 3-269-18b 3-269-18c 3-269-18d |
सशङ्खघोषः सतलत्रघोषो गाण्डीवधन्वा मुहुरुद्वहंश्च। यदा शरानर्पयिता तवोरसि तदा मनस्ते किमिवाभविष्यत् ।। | 3-269-19a 3-269-19b 3-269-19c 3-269-19d |
गदाहस्तं भीममभिद्रवन्तं माद्रीपुत्रौ संपतन्तौ दिशश्च। अमर्षजं क्रोधविषं वमन्तौ दृष्ट्वा चिरं तापमुपैष्यसेऽधम ।। | 3-269-20a 3-269-20b 3-269-20c 3-269-20d |
यथा वाऽहं नातिचरे कथंचि- त्पतीन्महार्हान्मनसाऽपिजातु। तेनाद्य सत्येन वशीकृतंत्वां द्रष्टास्मि पार्थैः परिकृष्यमाणम् ।। | 3-269-21a 3-269-21b 3-269-21c 3-269-21d |
न संभ्रमं गन्तुमहं हि शक्ष्ये त्वया नृशंसेन विकृष्यमाणा। समागताऽहं हि कुरुप्रवीरैः पुनर्वनं काम्यकमागताऽस्मि ।। | 3-269-22a 3-269-22b 3-269-22c 3-269-22d |
वैशंपायन उवाच। | 3-269-23x |
`इत्येवमुक्तस्तु स सिन्धुनाथ- स्तां द्रौपदीमाहविशालनेत्राम्। आरुह्यतामाशु रथं मदीयं मा त्वां वलाद्दौपदिकर्षयेहम्' ।। | 3-269-23a 3-269-23b 3-269-23c 3-269-23d |
सा ताननुप्रेक्ष्य विशालनेत्रा जिघृक्षमाणानवभर्त्सयन्ती। प्रोवाच मा मा स्पृशतेति भीता धौम्यं प्रचुक्रोश पुरोहितं सा ।। | 3-269-24a 3-269-24b 3-269-24c 3-269-24d |
जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे जयद्रथस्तं समवाक्षिपत्सा। तया समाक्षिप्ततनुः स पापः पपात शाखीव निकृत्तमूलः ।। | 3-269-25a 3-269-25b 3-269-25c 3-269-25d |
प्रगृह्यमाणा तु महाजवेन मुहुर्विनिःश्वस्य च राजपुत्री। सा मृष्यमाणा रथमारुरोह धौम्यस्य पादावभिवाद्य कृष्णा ।। | 3-269-26a 3-269-26b 3-269-26c 3-269-26d |
धौम्य उवाच। | 3-269-27x |
नेयं शक्या त्वया नेतुमविजित्य महारथान्। धर्मं क्षत्रस् पौराणमवेक्षस्व जयद्रथ ।। | 3-269-27a 3-269-27b |
क्षुद्रं कृत्वाफलंपापं त्वं प्राप्स्यसि न संशयः। आसाद्य पाण्डवान्वीरान्धर्मराजपुरोगमान् ।। | 3-269-28a 3-269-28b |
वैशंपायन उवाच। | 3-269-29x |
इत्युक्तवाह्रियमाणां तां राजपुत्रीं यशस्विनीम्। अन्वगच्छत्तदा धौम्यः पदातिगणमध्यगः ।। | 3-269-29a 3-269-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 269 ।। |
3-269-1 रोषेण रागो रक्तिमा तेन सहितं सरोषरागं तदुपहतं च म्लानं च तेन। वल्गुना सुन्दरेण। नते स्वभावत उन्नते क्रोधेन भ्रुवौ यस्यास्तथा। विस्फूर्य फूत्कारं कृत्वा। सरोषवाचोपहितेनेति ध. पाठः ।। 3-269-2 अभि अभिक्रम्य ब्रुवन्। स्थितानचलान्। यक्षादिभिरप्यजेयानित्यर्थः ।। 3-269-3 भषन्ति हैवं सुनराः सुवीरेति झ. पाठः ।। 3-269-4 क्षत्रियसंनिवेशे नृपसमाजे। पातालमुखे महागृर्ते। प्रतिसंहरेत् प्रतिषेधेत ।। 3-269-5 उपत्यकामद्रिसमीपभूमिम्। दण्डी दणअडमात्रायुधो यूथात्समूहादपसेधसि अपकर्षसि ।। 3-269-6 बाल्यात् मौढ्यात् पक्ष्माणि मुखोपरिस्थकेशान्। पदा समाहत्य लुनासि छिनस्ति ।। 3-269-9 वेण्वादयः फलिता एव नश्यन्ति। कर्कटी च परिणतगर्भा नश्यतीति लोकप्रसिद्धम् ।। 3-269-10 विभीषणेन भयप्रदर्शनेन ।। 3-269-11 सप्तदश अष्टौ कर्माणि नवशक्त्यादयश्च नित्यं सन्ति येषु तानि सप्तदशानि. नित्ययोगे मत्वर्थीयोर्शआद्यच्। अनवमेषु अनीचेषु। षङ्गुणाः शौर्यतेजोधृतिदाक्षिण्यदानैश्वर्याणि ।। 3-269-12 शक्याः निवारितुमिति शेषः। पुनरिति पाण्डवापराजयानन्तरम्। त्वं मत्प्रसादं आशंस प्रार्थय ।। 3-269-13 प्रमाथात निग्रहात्। प्रतीता प्रख्याता। सभायां वस्त्रराशिप्रदानेन भगवदनुग्रहीतत्वात्। महाबलाः किंत्विह दुर्बला वा सौवीरराजस्य सुताहमस्मि। साहं प्रमादादिह संप्रभीतेति ध. पाठः ।। 3-269-14 कृष्णौ वासुदेवारजुनौ ।। 3-269-15 मदन्तरे मन्निमित्तम्। प्रवेष्टा प्रकर्षेण वेष्टयिष्यति। उष्णगेषु निदाधेषु ।। 3-269-17 गाण्डीवमुक्ताः शराइति शेषः ।। 3-269-19 अभविष्यत् भविष्यतीत्यर्थे व्यत्ययेन लृङ् ।।
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