महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-298
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सावित्र्या सह वनं प्रविष्टेन सत्यवता फलाहरणपूर्वकं काष्ठविपाटनम् ।। 1 ।। तथा शिरोवेदनादूनतया काष्ठपाटनादुपरमपूर्वकं भार्योत्सङ्गे शिरोनिधानेन भूतले शयनम् ।। 2 ।। ततः सत्यवतोऽसुहरणाय समागतं यमं दृष्टवत्या सावित्र्या साञ्जलिबन्धं तदागमनप्रयोजनप्रश्नः ।। 3 ।। यमेन तांप्रतितत्क्रधनपूर्वकं पाशबन्धनेन सत्यवतस्तदीयशरीरादपकर्षणपूर्वकं स्वलोकंप्रति प्रस्थानम् ।। 4 ।। तमनुगच्छन्त्याः सावित्र्याः स्तुतिवचनसंतुष्टेन यमेन तस्यै वरदानपूर्वकं वन्धविमोचनेन सत्यवतो विसर्जनम् ।। 5 ।। ततः पुनरुज्जीवितेन सत्यवता सावित्र्यासह पुताश्रमंप्रति प्रस्थानम् ।। 6 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-298-1x |
अथ भार्यासहायः स फलान्यादाय वीर्यवान्। कठिनं पूरयामास ततः काष्ठान्यपाटयत् ।। | 3-298-1a 3-298-1b |
तस्य पाटयतः काष्ठं स्वेदो वै समजायत। व्यायामेन च तेनास्य जज्ञे शिरसि वेदना ।। | 3-298-2a 3-298-2b |
सोऽभिगम्य प्रियां भार्यामुवाच श्रमपीडितः। व्यायामेन ममानेन जाता शिरसि वेदना ।। | 3-298-3a 3-298-3b |
अङ्गानि चैव सावित्रि हृदयं दूयतीव च। अस्वस्थमिव चात्मानं लक्षये मितभाषिणि ।। | 3-298-4a 3-298-4b |
शूलैरिव शिरो विद्धमिदं संलक्षयाम्यहम्। `भ्रमन्तीव दिशः सर्वाश्चक्रारूढं मनो मम'। तत्स्वप्तुमिच्छे कल्याणि न स्तातुं शक्तिरस्ति मे ।। | 3-298-5a 3-298-5b 3-298-5c |
सा समासाद्य सावित्री भर्तारमुपगम्य च। उत्सङ्गेऽस्य शिर कृत्वा निषसाद महीतले ।। | 3-298-6a 3-298-6b |
ततः सा नारदवचो विमृशन्ती तपस्विनी। तं मुहूर्तं क्षणं वेलां दिवसं च युयोज ह ।। | 3-298-7a 3-298-7b |
`हन्त प्राप्तः स कालोऽयमिति चिन्तापरा सती'। मुहूर्तादेव चापश्य्पुरुषं रक्तवाससम्। वद्धमौलिं वपुष्मन्तमादित्यसमतेजसम् ।। | 3-298-8a 3-298-8b 3-298-8c |
श्यामावदातं रक्ताक्षं पाशहस्तं भयावहम्। स्थितं सत्यवतः पार्श्वे निरीक्षन्तं तमेव च ।। | 3-298-9a 3-298-9b |
तं दृष्ट्वासहसोत्थाय भर्तुन्यस्य शनैः शिरः। कृताञ्जलिरुवाचार्ता हृदयेन प्रवेपती ।। | 3-298-10a 3-298-10b |
दैवतंत्वाभिजानामि वपुरेतद्ध्यमानुषम्। कामया ब्रूहि देवेश कस्त्वं किंच चिकीर्षसि ।। | 3-298-11a 3-298-11b |
यम उवाच। | 3-298-12x |
पतिव्रताऽसि सावित्रि तथैव च तपोन्विता। अस्त्वामभिभाषामि विद्धि मां त्वं शुभे यमम् ।। | 3-298-12a 3-298-12b |
अयं ते रसत्यवान्भर्ता क्षीणायुः पार्थिवात्मजः। नेष्यामि तमहं बद्ध्वा विद्ध्येतन्मे चीकिर्षितं ।। | 3-298-13a 3-298-13b |
सावित्र्युवाच। | 3-298-13x |
श्रूयते भगवन्दूतास्तवागच्छन्ति मानवान्। नेतुं किल भवान्कस्मादागतोसि स्वयं प्रभो ।। | 3-298-14a 3-298-14b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-298-15x |
इत्युक्तः पितृराजस्तां भगवान्स्वचिकीर्षितम्। यथावत्सर्वमाख्यातुं तत्प्रियार्थं प्रचक्रमे ।। | 3-298-15a 3-298-15b |
अयं च धर्मसंयुक्तो रूपवान्गुणसागरः। नार्हो मत्पुरुषैर्नेतुमतोस्मि स्वयमागतः ।। | 3-298-16a 3-298-16b |
ततः सत्यवतः कायात्पाशबद्धं वशंगतम्। अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषं निश्चकर्ष यमो बलात् ।। | 3-298-17a 3-298-17b |
ततः समुद्धृतप्राणं गतश्वासं हतप्रभम्। निरविचेष्टंशरीरं तद्बभूवाप्रियदर्सनम् ।। | 3-298-18a 3-298-18b |
यमस्तु तं ततो बद्ध्वा प्रयातो दक्षिणामुखः। सावित्री चैव दुःखार्ता यममेवान्वगच्छत ।। | 3-298-19a 3-298-19b |
`भर्तुः शरीररां च विधाय हि तपस्विनी। भर्तारमनुगच्छन्ती तथावस्थं सुमध्यमा'। नियमव्रतसंसिद्धा महाभागा पतिव्रता ।। | 3-298-20a 3-298-20b 3-298-20c |
यम उवाच। | 3-298-21x |
निवर्त गच्छ सावित्रि कुरुष्वास्यौर्ध्वदैहिकम्। कृतंभर्तुस्त्वयाऽऽनृण्यं यावद्गम्यं गतं त्वया ।। | 3-298-21a 3-298-21b |
सावित्र्युवाच। | 3-298-22x |
यत्र मे नीयते भर्ता स्वयं वा यत्र गच्छति। मया च तत्र गन्तव्यमेष धर्मः सनातनः ।। | 3-298-22a 3-298-22b |
तपसा गुरुभक्त्या च भर्तुः स्नेहाद्व्रतेन च। तव चैव प्रसादेन न मे प्रतिहता गतिः ।। | 3-298-23a 3-298-23b |
प्राहुः साप्तपदं मैत्रं बुधास्तत्त्वार्थदर्शिनः। मित्रतां च पुरस्कृत्य किंचिद्वक्ष्यामि तच्छृणु ।। | 3-298-24a 3-298-24b |
नानात्मवन्तस्तु वने चरन्ति धर्मं च वासं च परिश्रमं च। विज्ञानतो धर्ममुदाहरन्ति तस्मात्सन्तो धर्ममाहुः प्रधानम् ।। | 3-298-25a 3-298-25b 3-298-25c 3-298-25d |
एकस्य धर्मेण सतां मतेन सर्वेस्म तं मार्गमनुप्रपन्नाः। मा वै द्वितीयं मा तृतीयं च वाञ्छे तस्मात्सन्तो धर्ममाहुः प्रधानम् ।। | 3-298-26a 3-298-26b 3-298-36c 3-298-36d |
यम उवाच। | 3-298-37x |
निवर्त तुष्टोस्मि तवानया गिरा स्वराक्षरव्यञ्जनहेतुयुक्तया। वरं वृणीष्वेहविनाऽस्य जीवितं ददानि ते सर्वमनिन्दिते वरम् ।। | 3-298-27a 3-298-27b 3-298-37c 3-298-27d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-28x |
च्युतः स्वराज्याद्वनवासमाश्रितो विनष्टचक्षुः श्वशुरो ममाश्रमे। स लब्धचक्षुर्बलवान्भवेन्नृप- स्तव प्रसादाज्ज्वलनार्कसंनिभः ।। | 3-298-28a 3-298-28b 3-298-28c 3-298-28d |
यम उवाच। | 3-298-29x |
ददानि तेऽहं तमनिन्दिते वरं यथा त्वयोक्तं भविता च तत्तथा। तवाध्वना ग्लानिमिवोपलक्षये निवर्त गच्छस्व न ते श्रमो भवेत् ।। | 3-298-29a 3-298-29b 3-298-29c 3-298-29d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-30x |
श्रमः कुतो भर्तृसमीपतो हिमे यतो हि भर्ता मम सा गतिर्ध्रुवा। यतः पतिं नमेष्यसि तत्र मे गतिः सुरेश भूयश्च वचो निबोध मे ।। | 3-298-30a 3-298-30b 3-298-30c 3-298-30d |
सतां सकृत्संगतमीप्सितं परं ततः परं मित्रमिति प्रचक्षते। न चाफलं सत्पुरुषेण संगतं ततः सतां संनिवसेत्समागमे ।। | 3-298-31a 3-298-31b 3-298-31c 3-298-31d |
यम उवाच। | 3-298-32x |
मनोनुकूलं बुधबुद्धिवर्धनं त्वया यदुक्तं वचनं हिताश्रयम्। विना पुनः सत्यवतोस्य जीवितं वरं द्वितीयं वरयस्व भामिनि ।। | 3-298-32a 3-298-32b 3-298-32c 3-298-32d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-33x |
हृतंपुरा मे श्वशुरस्य धीमतः स्वमेव राज्यंलभतां स पार्थिवः। कजह्यात्स्वधर्मान्न च मे गुरुर्यथा द्वितीयमेतद्वरयामि ते वरम् ।। | 3-298-33a 3-298-33b 3-298-33c 3-298-33d |
यम उवाच। | 3-298-34x |
स्वमेवं राज्यं प्रतिपत्स्यतेऽचिरा- न्न च स्वधर्मात्परिहीयते नृपः। कृतेन कामेन मया नृपात्मजे निवर्त गच्छस्व न ते श्रमो भवेत् ।। | 3-298-34a 3-298-34b 3-298-34c 3-298-34d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-35x |
प्रजास्त्वयैता नियमेन संयता नियम्य चैता नयसे निकामया। ततो यमत्वं तव देव विश्रुतं निबोध चेमां गिरमीरितां मया ।। | 3-298-35a 3-298-35b 3-298-35c 3-298-35d |
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः ।। | 3-298-36a 3-298-36b |
एवंप्रायश्च लोकोऽयं मनुष्याः शक्तिपेशलाः। सन्तस्त्वेवाप्यमित्रेषु दयां प्राप्तेषु कुर्वते ।। | 3-298-37a 3-298-37b |
यम उवाच। | 3-298-38x |
पिपासितस्येव भवेद्यथा पय- स्तथा त्वया वाक्यमिदं समीरितम्। विना पुनः सत्यवतोऽस्य जीवितं वरं वृणीष्वेह शुभे यदिच्छसि ।। | 3-298-38a 3-298-38b 3-298-38c 3-298-38d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-39x |
ममानपत्यः पृथिवीपतिः पिता भवत्पितुः पुत्रशतं तथौरसम्। कुलस्य संतानकरं च यद्भवे- त्तृतीयमेतद्वरयामि ते वरम् ।। | 3-298-39a 3-298-39b 3-298-39c 3-298-39d |
यम उवाच। | 3-298-40x |
कुलस्य संतानकरं सुवर्चसं शतं सुतानां पितुरस्तु ते शुभे। कृतेन कामेन नराधिपात्मजे निवर्त दूरं हि पथस्त्वमागता ।। | 3-298-40a 3-298-40b 3-298-40c 3-298-40d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-41x |
न दूरमेतन्मम भर्तृसन्निधौ मनो हि मे दूरतरं प्रधावति। अथ व्रजन्नेव गिरं समुद्यतां मयोच्यमानां शृणु भूय एव च ।। | 3-298-41a 3-298-41b 3-298-41c 3-298-41d |
विवस्वतस्त्वं तनयऋ प्रतापवां- स्ततो हि वैवस्वत उच्यसे बुधैः। समेन धर्मेण चरन्ति ताः प्रजा- स्ततस्तवेहेवर धर्मराजता ।। | 3-298-42a 3-298-42b 3-298-42c 3-298-42d |
आत्मन्यपि न विश्वासस्तथा भवति सत्सु यः। तस्मात्सत्सु विशेपेण सर्वः प्रणयमिच्छति ।। | 3-298-43a 3-298-43b |
सौहदात्सर्वभूतानां विश्वासो नाम जायते। तस्मात्सत्सु विशेपेण विश्वासं कुरुते जनः ।। | 3-298-44a 3-298-44b |
यव उवाच। | 3-298-45x |
उदाहृतंते वचनं यदङ्गने शुभे न तादृक् त्वदृते श्रुतं मया। अनेन तुष्टोस्मि विनाऽस्य जीवितं वरं चतुर्थं वरयस्व गच्छ च ।। | 3-298-45a 3-298-45b 3-298-45c 3-298-45d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-46x |
ममात्मजं सत्यवतस्तथौरसं भवेदुभाभ्यामिह यत्कुलोद्वहम्। शतं सुतानां बलवीर्यशालिना- मिदंचतुर्थं वरयामि ते वरम् ।। | 3-298-46a 3-298-46b 3-298-46c 3-298-46d |
यम उवाच। | 3-298-47x |
शतं सुतानां बलवीरय्शालिनां भविष्यति प्रीतिकरं तवाबले। परिश्रमस्ते न भवेन्नृपात्मजे निवर्त दूरं हि पथस्त्वमागता ।। | 3-298-47a 3-298-47b 3-298-47c 3-298-47d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-48x |
सतां सदा शाश्वतधर्मवृत्तिः सन्तो न सीदन्ति न च व्यथन्ति। सतां सद्भिर्नाफलः संगमोस्ति सद्भ्यो भयंनानुवर्तन्ति सन्तः ।। | 3-298-48a 3-298-48b 3-298-48c 3-298-48d |
सन्तो हि सत्येन नयन्ति सूर्यं सन्तो भूमिं तपसा धारयन्ति। सन्तो गतिर्भूतभव्यस्य राज- न्सतां मध्ये नावसीदन्ति सन्तः ।। | 3-298-49a 3-298-49b 3-298-49c 3-298-49d |
आर्यजुष्टमिदं वृत्तमिति विज्ञाय शाश्वतम्। सन्तः परार्थं कुर्वाणा नावेक्षन्ति प्रतिक्रियाः ।। | 3-298-50a 3-298-50b |
न च प्रसादः सत्पुरुषेषु मोघो न चाप्यर्थो नश्यति नापि मानः। यस्मादेतन्नियतं सत्सु नित्यं तस्मात्सन्तो रक्षितारो भवन्ति ।। | 3-298-51a 3-298-51b 3-298-51c 3-298-51d |
यम उवाच। | 3-298-52x |
यथायथा भाषसि धर्मसंहितं मनोनुकूलं सुपदं महार्थवत्। तथातथा मे त्वयि भक्तिरुत्तमा वरं वृणीष्वाप्रतिमं पतिव्रते ।। | 3-298-52a 3-298-52b 3-298-52c 3-298-52d |
सावित्र्युवाच। | 3-298-53x |
न तेऽपवर्गः सुकृताद्विना कृत- स्तथा यथाऽन्येषु वरेषु मानद। वरं वृणे जीवतु सत्यवानयं यथा मृता ह्येवमहं पतिं विना ।। | 3-298-53a 3-298-53b 3-298-53c 3-298-53d |
न कामये भर्तविनाकृता सुखं न कामये भर्तृविनाकृता दिवम्। नकामये भर्तविनाकृता श्रियं न भर्तृहीना व्यवसामि जीबितुम् ।। | 3-298-54a 3-298-54b 3-298-54c 3-298-54d |
वरातिसर्गः शतपुत्रता मम त्वयैव दत्तो ह्रियते च मे पतिः। वरं वृणे जीवतु सत्यवानयं तवैव सत्यं वचनं भविष्यति ।। | 3-298-55a 3-298-55b 3-298-55c 3-298-55d |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-298-56x |
तथेत्युक्त्वा तु तं पाशं मुक्त्वा वैवस्वतो यमः। धर्मराजः प्रहृष्टात्मा सावित्रीमिदमब्रवीत् ।। | 3-298-56a 3-298-56b |
एष भद्रे मया मुक्तो भर्ता ते कुलनन्दिनि। `तोषितोऽहं त्वया साध्वि वाक्यैर्धर्मार्तसंहितैः' ।। | 3-298-57a 3-298-57b |
अरोगस्व नेयश्च सिद्धार्थः स भविष्यि। चतुर्वर्षशतायुश्च त्वया सार्धमवाप्स्यति ।। | 3-298-58a 3-298-58b |
इष्ट्वा यज्ञैश्च धर्मेण ख्यातिं लोके गमिष्यति। त्वयि पुत्रशतं चैव सत्यवाञ्जनयिष्यति ।। | 3-298-59a 3-298-59b |
ते चापि सर्वे राजानः क्षत्रियाः पुत्रपौत्रिणः। ख्यातास्त्वन्नामधेयाश्चभविष्यन्तीह शाश्वताः ।। | 3-298-60a 3-298-60b |
पितुश्च ते पुत्रशतं भविता तव मातरि। मालव्यां मालवा नाम शाश्वताः पुत्रपौत्रिणः। भ्रातरस्ते भविष्यन्ति क्षत्रियास्त्रिदशोपमाः ।। | 3-298-61a 3-298-61b 3-298-61c |
एवं तस्यै वरं दत्त्वा धर्मराजः प्रतापवान्। निवर्तयित्वा सावित्रीं स्वमेव भवनं ययौ ।। | 3-298-62a 3-298-62b |
सावित्र्यपि यमे याते भर्तारं प्रतिलभ्य च। जगाम तत्र यत्रास्या भर्तुः शावं कलेवरम् ।। | 3-298-63a 3-298-63b |
सा भूमौ प्रेक्ष्यभर्तारमुपसृत्योपगृह्य च। उत्सङ्गे शिर आरोप्य भूमावुपविवेश ह ।। | 3-298-64a 3-298-64b |
संज्ञां चस पुनर्लब्ध्वा सावित्रीमभ्यभाषत। प्रोष्यागत इव प्रेम्णा पुनःपुनरुदीक्ष्यवै ।। | 3-298-65a 3-298-65b |
सुचिरं बत सुप्तोस्मि किमर्थं नावबोधितः। क्व चासौ पुरुषः श्यामो योसौ मां संचकर्षह ।। | 3-298-66a 3-298-66b |
सावित्र्युवाच। | 3-298-67x |
सुचिरं त्वंप्रसुप्तोसि ममाह्के पुरुषर्षभ। गतः स भगवान्देवः प्रजासंयमनो यमः ।। | 3-298-67a 3-298-67b |
विश्रान्तोसि महाभाग विनिद्रश्च नृपात्मज। यदि शक्यं समुत्तिष्ठ विगाढां पश्य शर्वरीम् ।। | 3-298-68a 3-298-68b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-298-69x |
उपलभ्यततः संज्ञां सुखसुप्त इवोत्थितः। दिशः सर्वा वनान्तांश्च निरीक्ष्योवाच सत्यवान् ।। | 3-298-69a 3-298-69b |
फलाहारोस्मि निष्क्रान्तस्वया सह सुमध्यमे। ततः पाटयतः काष्ठं शरिसो मे रुजाऽभवत् ।। | 3-298-70a 3-298-70b |
शिरोभितापसंतप्तः स्थातुं चिरमशक्नुवन्। तवोत्सङ्गे प्रसुप्तोस्मि इति सर्वं स्मरे शुभे ।। | 3-298-71a 3-298-71b |
त्वयोपगूढस्य च मे निद्रयाऽपहृतं मनः। ततोऽपश्यं तमो घोरं पुरुषं च महौजसम् ।। | 3-298-72a 3-298-72b |
तद्यदि त्वं विजानासि किं तद्ब्रूहि सुमध्यमे। स्वप्नो मे यदिवा दृष्टो यदि वा सत्यमेव तत् ।। | 3-298-73a 3-298-73b |
तमुवाचाथ सावित्री रजनी व्यवगाहते। श्वस्ते सर्वंयथावृत्तमाख्यास्यामि नृपात्मज ।। | 3-298-74a 3-298-74b |
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते पितरौ पश्य सुव्रत। विगाढा रजनी चेयं निवृत्तश्च दिवाकरः ।। | 3-298-75a 3-298-75b |
नक्तंचराश्चरन्त्येते हृष्टाः क्रूराभिभाषिणः। श्रूयन्ते पर्णशब्दाश्च मृगाणां चरतां वने ।। | 3-298-76a 3-298-76b |
एता घोरं शिवा नादान्दिशं दक्षिणपश्चिमाम्। आस्थाय विरुवन्त्युग्राः कम्पयन्त्यो मनो मम ।। | 3-298-77a 3-298-77b |
सत्यवानुवाच। | 3-298-78x |
वनं प्रतिभयाकारं घनेन तमसा वृतम्। न विज्ञास्यसि पन्थानं गन्तुं चैव न शक्ष्यसि ।। | 3-298-78a 3-298-78b |
सावित्र्युवाच। | 3-298-79x |
अस्मिन्न वने दग्धे शुष्कवृक्षः स्थितो ज्वलन्। वायुना धम्यमानोत्र दृश्यतेऽग्निः क्वचित्क्वचित् ।। | 3-298-79a 3-298-79b |
ततोऽग्निमानयित्वेह ज्वालयिप्यामि सर्वतः। काष्ठानीमानि सन्तीह जहि संतापमात्मनः ।। | 3-298-80a 3-298-80b |
यदि नोत्सहसे गन्तुं सरुजं त्वां हि लक्षये। न च ज्ञास्यसि पन्थानं तमसा संवृते वने ।। | 3-298-81a 3-298-81b |
श्वः प्रभाते वने दृश्ये यास्यावोऽनुमते तव। वसावेह क्षपामेकां रुचितं यदि तेऽनघ ।। | 3-298-82a 3-298-82b |
सत्यवानुवाच। | 3-298-83x |
शिरोरुजा निवृत्ता मे स्वस्थान्यङ्गानि लक्षये। मातापितृभ्यामिच्छामि संयोगं त्वत्प्रसादजम् ।। | 3-298-83a 3-298-83b |
न कदाचिद्विकाले हि गतपूर्वोहमाश्रमात्। अनागतायां सन्ध्यायां माता मे प्ररुणद्धि माम् ।। | 3-298-84a 3-298-84b |
दिवाऽपिमयि निष्क्रान्ते सन्तप्येते गुरू मम। विचिनोति हि मां तातः सहैवाश्रमवासिभिः ।। | 3-298-85a 3-298-85b |
मात्रा पित्रा च सुभृशं दुःखिताभ्यामहं पुरा। उपालब्धश्च बहुशश्चिरेणागच्छसीति हि ।। | 3-298-86a 3-298-86b |
कात्ववस्था तयोरद्य मदर्थमिति चिन्तये। तयोरदृश्ये मयि च महद्दुःखं भविष्यति ।। | 3-298-87a 3-298-87b |
पुरा मामूचतुश्चैव रात्रावस्रायमाणकौ। भृशं सुदुःखितौ वृद्धौ बहुशः प्रीतिसंयुतौ ।। | 3-298-88a 3-298-88b |
त्वया हीनौ न जीवाव मुहूर्तमपि पुत्रक। यावद्धरिष्यसे पुत्र तावन्नौ जीवितं ध्रुवम् ।। | 3-298-89a 3-298-89b |
वृद्धयोरन्धयोर्दृष्टिस्त्वयि वंशः प्रतिष्ठिः। त्वयि पिण्डश्च कीर्तिश्च सन्तानश्चावयोरिति ।। | 3-298-90a 3-298-90b |
माता वृद्धा पिता वृद्धस्तयोर्यष्टिरहं किल। तौ रात्रौ मामपश्यन्तौ कामवस्थां गमिष्यतः ।। | 3-298-91a 3-298-91b |
निद्रायाश्चाभ्यसूयामि यस्या हेतोः पिता मम। माता च संशयं प्राप्ता मत्कृतेऽनपकारिणी ।। | 3-298-92a 3-298-92b |
अहं च संशयं प्राप्तः कृच्छ्रामापदमास्थितः। मातापितृभ्यां हि विना नाहं जीवितुमुत्सहे ।। | 3-298-93a 3-298-93b |
व्यक्तमाकुलया बुद्ध्या प्रज्ञाचक्षुः पिता मम। एकैकमस्यां वेलायां पृच्छत्याश्रमवासिनम् ।। | 3-298-94a 3-298-94b |
नात्मानमनुशोचामि यथाऽहंपितरं शुभे। भर्तारं चाप्यनुगतां मातरं भृशदुःखिताम् ।। | 3-298-95a 3-298-95b |
मत्कृते न हि तावद्य सन्तापं परमेष्यतः। जीवन्तावनुजीवामि भर्तव्यौ तौ मयेति ह ।। | 3-298-96a 3-298-96b |
तयोः प्रियं मे कर्व्यमिति जीवामि चाप्यहम्। `परमं दैवतं तौ मे पूजनीयौ सदा मया। तयोस्तु मे सदाऽस्त्येवं व्रतमेतत्पुरातनम्' ।। | 3-298-97a 3-298-97b 3-298-97c |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-298-98x |
एवमुक्त्वा स धर्मात्मा गुरुभक्तो गुरुप्रियः। उच्छ्रित्य बाहू दुःखार्तः सुस्वरं प्ररुरोद ह ।। | 3-298-98a 3-298-98b |
ततोऽब्रवीत्तथा दृष्ट्वाभर्तारं शोककर्शितम्। प्रमृज्याश्रूणि पाणिभ्यां सावित्री धर्मचारिणी ।। | 3-298-99a 3-298-99b |
यदि मेऽस्ति तपस्तप्तं यदि दत्तं हुतं यदि। श्वश्रूश्वशुरभर्तॄणां मम पुण्याऽस्तु शर्वरी ।। | 3-298-100a 3-298-100b |
न स्मराम्युक्तपूर्वं वै स्वैरेष्वप्यनृतां गिरम्। तेन सत्येन तावद्य ध्रियेतां श्वशुरौ मम ।। | 3-298-101a 3-298-101b |
सत्यवानुवाच। | 3-298-102x |
कामये दर्शनं पित्रोर्याहि सावित्रि माचिरम्। `अपिनाम गुरू तौ हि पश्येयं ध्रियमाणकौ' ।। | 3-298-102a 3-298-102b |
पुरा मातुः पितुर्वाऽपियदि पश्यामि विप्रियम्। न जीविष्ये वरारोहे सत्येनात्मानमालभे ।। | 3-298-103a 3-298-103b |
यदि धर्मे च ते बुद्धिर्मां चेज्जीवन्तमिच्छसि। मम प्रियं वा कर्तव्यं गच्छावाश्रममन्तिकात् ।। | 3-298-104a 3-298-104b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-298-105x |
सावित्री तत उत्थाय केशान्संम्य भामिनी। पतिमुत्थापयामास बाहुभ्यां परिगृह्य वै ।। | 3-298-105a 3-298-105b |
उत्ताय सत्यवांश्चापि प्रमृज्याङ्गानि पाणिना। सर्वा दिशः समालोक्य कठिने दृष्टिमादधे ।। | 3-298-106a 3-298-106b |
तमुवाचाथसावित्री श्वः फलानि हरिष्यसि। योगक्षेमार्थमेतं ते नेष्यामि परशुं त्वहम् ।। | 3-298-107a 3-298-107b |
कृत्त्वा कठिनभारं सा वृक्षशाखावलम्बिनम्। गृहीत्वा परशुं भर्तुः सकाशे पुनरागमत् ।। | 3-298-108a 3-298-108b |
वामे स्कन्धे तु वामोरूर्भर्तुर्बाहुं निवेश्य च। दक्षिणएन परिष्वज्य जगाम गजगामिनी ।। | 3-298-109a 3-298-109b |
सत्यवानुवाच | | 3-298-110x |
अभ्यासगमनाद्भीरु पन्थानो विदिता मम। वृक्षान्तरालोकितया ज्योत्स्नया चापि लक्षये ।। | 3-298-110a 3-298-110b |
आगतौ स्वः पथा येन फलान्यवचितानि च। यथागतं शुभे गच्छ पन्थानं मा विचारय ।। | 3-298-111a 3-298-111b |
पलाशखण्डे चैतस्मिन्पन्था व्यावर्तते द्विधा। तस्योत्तरेण यः पन्थास्तेन गच्छ त्वरस्व च ।। | 3-298-112a 3-298-112b |
स्वस्थोस्मि बलवानस्मि दिदृक्षुः पितरावुभौ। ब्रुवन्नेव त्वरायुक्तः सम्प्रायादाश्रमं प्रति ।। | 3-298-113a 3-298-113b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 298 ।। |
3-298-1 कठिनं स्तालीम् ।। 3-298-7 युयोज अनुचिन्तितवती ।। 3-298-8 पुरुषं पीतवाससमिति क. थ. पाठः ।। 3-298-11 कामया इच्छया ।। 3-298-25 अनात्मवन्तः अजितेन्द्रियाः। वने धर्मं यज्ञादिरूपं न चरन्ति। जितेनद्रिया एव वने ग्रामे वा यज्ञादीन्स्त्रीसंबद्धान् धर्मान्कुर्वन्ति। तेन गृहस्थवानप्रस्थयोः संग्रहः। वासं गुरुकुलवासं ब्रह्मचर्यम्। परिश्रमं परित्यागरूपमाश्रमं संन्यासम्। विज्ञानतः चतुर्थ्यर्थे सार्वविभक्तिकस्तसिः। धर्मस्य फलं आत्मविज्ञानमित्यर्थः ।। 3-298-26 एतेषामाश्रमधर्माणां समुच्चयं वारयति एकस्येति। चतुर्णामन्यतमस्यैकस्याश्रमस्य धर्मेण सतां मतेन दम्भादिरहितश्रद्धया सम्यगनुष्ठितेनेत्यर्थः। सर्वे तं मार्गं ज्ञानमार्गं प्रपन्नाः प्राप्ताः अतो धर्मं च वासं च प्रतिश्रयं चेति पाठक्रमापेक्षया द्वितीयं नैष्ठिकं गुरुकुलवासं दाराऽकरणरूपं तृतीयं पारिव्राज्यं दारादित्यागरूपं वा न वाञ्छे। ज्ञानहेतोः प्रधानभूतस्य धर्मस्याद्येपि सिद्धेरित्यर्थः. मद्धर्तुर्हरणेनावयोर्धर्मं मा नाशयेति भावः ।। 3-298-27 निवर्त निवर्तस्व। स्वर उदात्तादिः। अक्षरमकारादि। व्यञ्जनं ककारादि। एतद्युक्तत्वेन वाक्यस्य शब्दतो निर्दोषत्वमुक्तम्। हेतुयुक्तत्वेन युक्तियुक्तत्वमप्युक्तम् ।। 3-298-33 गुरुः श्वशुरः ।। 3-298-42 समेन शत्रुमित्रादितारतम्यहीनेन तव धर्मेण प्रशासनेन ताः प्रजाश्चरन्ति। त्वदाज्ञावशगा इत्यर्थः। अतएव तव नाम धर्मराज इति। धर्मेणैव राजते धर्मोऽस्य राजत इतिवा ।। 3-298-43 लौकिकेष्वपि विश्रामं कुर्यन्निष्टसिद्धिं प्राप्नोति किमुत त्वयि धर्मराजे इत्याशयेनाह आत्मन्यपीति। सर्वः प्रणमते नर इति क. ध. पाठः ।। 3-298-45 ते त्वया ।। 3-298-48 शाश्वतो धर्मः पत्युः सकाशादेवापत्योत्पादनं सतां मादृशानां दाराणां तत्रैव वृत्तिः। ननु गतायुषि पत्यौ कथं तत् स्यादित्यत आह संत इति। वरं दत्त्वा सन्तो नव्यथन्ति नापि सीदन्ति किंतु उक्तं निर्वहन्त्येवेत्यर्थः। अत्यन्ताशक्येऽर्थे कथं स्यादित्यत आह सतामिति। सतामशक्यमपि नास्ति। भंयचान्यस्य तेभ्यो नास्तीति तत्त्वतोहं निर्भयास्मीति भावः ।। 3-298-49 त्वयापि सत्यं स्वीयं रक्षणीयमित्याह सन्तो हीति। भूतभव्यस्य भूतस्य भविष्यस्य च ।। 3-298-51 एतत् त्रयं प्रसादोऽर्थो मानश्च। दरिद्रस्य प्रसादो नार्थाय। श्रीमतां प्रसादोऽर्थकृदपि न मानदः। सतां तु मानद इति। खले तु प्रसाद एव नास्ति। अतस्त्रयं त्वय्येव स्तितमिति त्वं रक्षितास्माकं भवेति भावः ।। 3-298-53 ते त्वत्तः। अपवर्गः पुत्रफलप्राप्तिः सुकृताद्विना समीचीनाद्दाम्पत्ययोगादृतेक्षेत्रजादिपुत्रार्पणेन न कृतोनिष्पादितो भवति। यथान्येषु वरेषु भर्तृषु मदयन्त्यां वशिष्ठस्येव न तद्वत्। यस्मादेवं तस्माद्वरं वृणे ।। 3-298-54 व्यवसामि शक्नोमि ।। 3-298-60 त्वन्नामधेयाः सावित्रा इति ।। 3-298-88 अस्रायमाणकौ रुदन्तौ ।। 3-298-89 नौ आवयोः ।। 3-298-94 प्रज्ञाचक्षुरन्धः ।। 3-298-101 ध्रियेतां जीवेताम्। श्वशुरौ श्वश्रूश्वशुरौ ।। 3-298-106 कठिने फलपूर्णे पात्रे ।। 3-298-108 कृत्त्वा आच्छिद्य आदायेत्यर्थः ।। 3-298-109 जगात्यमृदुभामिनी इति थ. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-297 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-299 |