महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-245
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भीमादीनां चतुर्णां चित्रसेनादिभिर्गन्धर्वैर्युद्धम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-245-1x |
युधिष्ठिरवचः श्रुत्वा भीमसेनपुरोगमाः। प्रहृष्टवदनाः सर्वे समुत्तस्थुर्नरर्षभाः ।। | 3-245-1a 3-245-1b |
अभेद्यानि ततः सर्वे समनह्यन्त भारत। जाम्बूनदविचित्राणि कवचानि महारथाः। आयुधानि च दिव्यानि विविधानि समादधुः ।। | 3-245-2a 3-245-2b 3-245-2c |
ते दंशिता रथैः सर्वे ध्वजिनः सशरासनाः। पाण्डवाः प्रत्यदृश्यन्त ज्वलिता इवपावकाः ।। | 3-245-3a 3-245-3b |
तान्रथान्साधुसंपन्नान्संयुक्ताञ्जवनैर्हयैः। आस्थाय रथशार्दूलाः शीघ्रमेव ययुस्ततः ।। | 3-245-4a 3-245-4b |
ततः कौरवसैन्यानां प्रादुरासीन्महास्वनः। प्रयातान्सहितान्दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रान्महारथान् ।। | 3-245-5a 3-245-5b |
जितकाशिनश्च स्वचरास्त्वरिताश्च महारथाः। क्षणेनैव वने तस्मिन्समाजग्मुरभीतवत् ।। | 3-245-6a 3-245-6b |
न्यवर्तन्त ततः सर्वे गन्धर्वा जितकाशिनः। दृष्ट्वा रथगतान्वीरान्पाण्डवांश्चतुरो रणे ।। | 3-245-7a 3-245-7b |
तांस्तु विभ्राजितान्दृष्ट्वा लोकपालानिवोद्यतान्। व्यूढानीका व्यतिष्ठन्त गन्धमादनवासिनः ।। | 3-245-8a 3-245-8b |
राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा धर्मपुत्रस्य धीमतः। क्रमेण मृदुना युद्धमुपक्रान्तं च भारत ।। | 3-245-9a 3-245-9b |
न तु गन्धर्वराजस्य सैनिका मन्दचेतसः। शक्यन्ते मृदुना श्रेयः प्रतिपादयितुं तदा ।। | 3-245-10a 3-245-10b |
ततस्तान्युधि दुर्धर्षान्सव्यसाची परंतपः। सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यमुवाच खचरान्रणे ।। | 3-245-11a 3-245-11b |
नैतद्गन्धर्वराजस्य युक्तं कर्म जुगुप्सितम्। परदाराभिमर्शश्च मानुषैश्च समागमः ।। | 3-245-12a 3-245-12b |
उत्सृजध्वं महावीर्यान्धृतराष्ट्रसुतानिमान्। दारांश्चैषां प्रमुञ्चध्वं धर्मराजस्य शासनात् ।। | 3-245-13a 3-245-13b |
त एवमुक्ता गन्धर्वाः पाण्डवेन यशस्विना। उत्स्मयन्तस्तदा पार्थमिदं वचनमब्रुवन् ।। | 3-245-14a 3-245-14b |
एकस्यैव वयं तात कुर्याम वचनं भुवि। यस्य शासनमाज्ञाय चरामो विगतज्वराः ।। | 3-245-15a 3-245-15b |
तेनैकेन रकयथादिष्टं तथा वर्ताम भारत। न शास्ता विद्यतेऽस्माकमन्यस्तस्मात्सुरेश्वरात् ।। | 3-245-16a 3-245-16b |
एवमुक्तः स गन्धर्वैः कुन्तीपुत्रो धनंजयः। गन्धर्वान्पुनरेवैतान्वचनं प्रत्यभाषत ।। | 3-245-17a 3-245-17b |
यदि साम्ना न मुञ्चध्वं गन्धर्वा धृतराष्ट्रजान्। मोक्षयिष्यामि विक्रम्य स्वयमेव सुयोधनम् ।। | 3-245-18a 3-245-18b |
एवमुक्त्वा ततः पार्थः सव्यसाची धनंजयः। ससर्ज निशितान्बाणान्खचरान्खचरान्प्रति ।। | 3-245-19a 3-245-19b |
तथैव शरवर्षेण गन्धर्वास्ते बलोत्काटाः। पाण्डवानभ्यवर्तन्त पाण्डवाश्च दिवौकसः ।। | 3-245-20a 3-245-20b |
ततः सुतुमुलं युद्धं गन्धर्वाणां तरस्विनाम्। बभूव भीमवेगानां च भात ।। | 3-245-21a 3-245-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 245 ।। |
3-245-3 दंशिताः सन्नद्धाः ।। 3-245-10 श्रेयः कल्याणम्। प्रतिपादयितुं प्रापयितुम् ।। 3-245-19 स्वचरान् गगनगमनान्। खचरान् गन्धर्वान् ।।
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