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वैशंपायन उवाच। | 3-42-1x
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गतेषु लोकपालेषु पार्थः शत्रुनिबर्हणः। चिन्तयामास राजेन्द्र देवराजरथागमम् ।। | 3-42-1a 3-42-1b
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तस्य चिन्तयमानस्य गुडाकेशस्य धीमतः। रथो मातलिसंयुक्त आजगाम महाप्रभः ।। | 3-42-2a 3-42-2b
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नभो वितिमिरं कुर्वञ्जलदान्पाटयन्निव। दिशः संपूरयन्नादैर्महामेघरवोपमैः। | 3-42-3a 3-42-3b
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असयः शक्तयो भीमा गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः। दिव्यप्रभावाः प्रासाश्च विद्युतश्च महाप्रभाः ।। | 3-42-4a 3-42-4b
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तथैवाशनयश्चैव चक्रयुक्तास्तुलागुडाः। वायुस्फोटाः सनिर्घाताः शङ्खमेघस्वनास्तथा ।। | 3-42-5a 3-42-5b
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तत्रनागा महाकाया ज्वलितास्याः सुदारुणाः। सिताभ्रकूटप्रतिमाः संहताश्च यथोपलाः ।। | 3-42-6a 3-42-6b
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दशवाजिसहस्राणि हरीणां वातरंहसाम्। वहन्ति यं नेत्रमुषं दिव्यं मायामयं रथम् ।। | 3-42-7a 3-42-7b
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तत्रापश्यन्महानीलं वैजयन्तं महाप्रभम्। ध्वजमिन्दीवरश्यामं वंशं कनकभूषणम् ।। | 3-42-8a 3-42-8b
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तस्मिन्रथे स्थितं सूतं तप्तहेमविभूषितम्। दृष्ट्वा पार्थो महाबाहुर्देवराजमतर्कयत् ।। | 3-42-9a 3-42-9b
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तथा तर्कयतस्तस्य फल्गुनस्याथ मातलिः। सन्नतः प्रस्थितो भूत्वा वाक्यमर्जुनमब्रवीत् ।। | 3-42-10a 3-42-10b
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भोभो शक्रात्मज श्रीमञ्शक्रस्त्वां द्रष्टुमिच्छति। आरोहतु भवाञ्शीघ्रं रथमिन्द्रस्य संभतम् ।। | 3-42-11a 3-42-11b
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आह माममरश्रेष्ठः पिता तव शतक्रतुः। कुन्तीसुतमिह प्राप्तं पश्यन्तु त्रिदशालयाः ।। | 3-42-12a 3-42-12b
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एष शक्रः परिवृतो देवैर्ऋषिगणैस्तथा। गन्धर्वैरप्सरोभिश्च त्वां दिदृक्षुः प्रतीक्षते ।। | 3-42-13a 3-42-13b
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अस्माल्लोकाद्देवलोकं पाकशासनशासनात्। मारोह त्वं मया सार्धं लब्धास्त्रः पुनरेष्यसि ।। | 3-42-14a 3-42-14b
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अर्जुन उवाच। | 3-42-15x
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मातले गच्छ शीघ्रं त्वमारोहस्व रथोत्तमम्। राजसूयाश्वमेधानां शतैरपि सुदुर्लभम् ।। | 3-42-15a 3-42-15b
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पार्थिवैः सुमहाभागैर्यज्वभिर्भूरिदक्षिणैः। दैवतैर्वा दुरारोहं दानवैर्वा रथोत्तमम् ।। | 3-42-16a 3-42-16b
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नातप्ततपसा शक्य एष दिव्यो महारथः। द्रष्टुं वाऽप्यथवा स्प्रष्टुमारोढुं कुत एव च ।। | 3-42-17a 3-42-17b
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त्वयि मतिष्ठिते साधो रथस्थे स्थिरवाजिनि। पश्चादहमथारोक्ष्ये मुकृती सत्पथं यथा ।। | 3-42-18a 3-42-18b
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वैशंपायन उवाच। | 3-42-19x
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तस्यतद्वचनं श्रुत्वा मातलिः शक्रसारथिः। आरुरोह रथं शीघ्रं हयाञ्जग्राह रश्मिभिः ।। | 3-42-19a 3-42-19b
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ततोऽर्जुनो हृष्टमना गङ्गायामाप्लुतः शुचिः। जजाप जप्यं कौन्तेयो विधिवत्कुरुनन्दनः ।। | 3-42-20a 3-42-20b
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ततः पितृन्यथान्यायं तर्पयित्वा यथाविधि। मन्दरं शैलराजं तमाप्रष्टुमुपचक्रमे ।। | 3-42-21a 3-42-21b
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साधूनां पुण्यशीलानां मुनीनां पुण्यकर्मणाम्। त्वं सदा संश्रयः शैल स्वर्गमार्गाभिकाङ्क्षिणाम् ।। | 3-42-22a 3-42-22b
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त्वत्प्रसादात्सदा शैल ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः। स्वर्गं प्राप्ताश्चरन्ति स्म देवैः सह गतव्यथाः ।। | 3-42-23a 3-42-23b
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अद्रिराज महाशैल मुनिसंश्रय तीर्थवन्। गच्छाम्यामन्त्रयित्वा त्वां सुखमस्म्युषितस्त्वयि ।। | 3-42-24a 3-42-24b
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तव सानूनि कुञ्जाश्च नद्यः प्रस्रवणानि च। तीर्थानि च सुपुण्यानि मया दृष्टान्यनेकशः ।। | 3-42-25a 3-42-25b
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सुसुगन्धाश्च वैर्योघास्त्वच्छरीरविनिःसृताः। अमृतास्वादसृशाः पीताः प्रस्रवणोदकाः ।। | 3-42-26a 3-42-26b
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शिशुर्यथा पितुश्चाङ्के सुखं शेते तटे तथा। मया तवाङ्के ललितं शैलराज महाप्रभो ।। | 3-42-27a 3-42-27b
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अप्सरोगणसंकीर्णए ब्रह्मघोषानुनादिते। सुखमस्म्युषितः शैल तव सानुषु नित्यदा ।। | 3-42-28a 3-42-28b
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एवमुक्त्वार्जुनः शैलमामन्त्र्य परवीरहा। आरुरोह रथं दिव्यं द्योतयन्निव भास्करः ।। | 3-42-29a 3-42-29b
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स तेनादित्यरूपेण दिव्येनाद्भुतकर्मणा। ऊर्ध्वमाचक्रमे धीमान्प्रहृष्टः कुरुनन्दनः ।। | 3-42-30a 3-42-30b
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सोऽदर्शनपथं यातो मर्त्यानां धर्मचारिणाम्। ददर्शाद्भुतरूपाणि विमानानि सहस्रशः ।। | 3-42-31a 3-42-31b
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न तत्र सूर्यः सोमो वा द्योतते न च पावकः। स्वयैव प्रभया तत्र द्योतन्ते पुण्यलब्धया ।। | 3-42-32a 3-42-32b
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तारारूपाणि यानीह दृश्यन्ते द्युतिमन्ति वै। आकाशे विप्रकृष्टत्वात्तनूनि सुमहान्त्यपि ।। | 3-42-33a 3-42-33b
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तानि तत्र प्रभास्वन्ति रूपवन्ति च पाण्डवः। ददर्श स्वेषु धिष्ण्येषु दीप्तिमन्ति स्वयाऽर्चिषा ।। | 3-42-34a 3-42-34b
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तत्र राजर्षयः सिद्धा वीराश्च निहता युधि। तपसा च जितं स्वर्गं संपेतुः शतसङ्घशः ।। | 3-42-35a 3-42-35b
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गन्धर्वाणां सहस्राणि मूर्यज्वलिततेजसाम्। गुह्यकारनामृषीणां च तथैवाप्सरसां गणान् ।। | 3-42-36a 3-42-36b
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लोकानात्मप्रभान्पश्यन्फल्गुनो विस्मयान्वितः। पप्रच्छ मातलिं प्रीत्या स चाप्येनमुवाच ह ।। | 3-42-37a 3-42-37b
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एते सुकृतिनः पार्थ स्वेषु धिष्ण्येष्ववस्थिताः। तान्दृष्टवानसि विभो तारारूपाणि भूतले ।। | 3-42-38a 3-42-38b
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ततोऽपश्यत्स्थितं द्वारि मत्तं विजयिनं गजम्। ऐरावतं चतुर्दन्तं कैलासमिव शृङ्गिणम् ।। | 3-42-39a 3-42-39b
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स सिद्धमार्गमाक्रम्य कुरुपाण्डवसत्तमः। व्यरोचत यथापूर्वं मान्धाता पार्थिवोत्तमः ।। | 3-42-40a 3-42-40b
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अभिचक्राम लोकान्स राज्ञां राजीवलोचनः ।। | 3-42-41a
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[एवं स संक्रमंस्तत्र स्वर्गलोके महायशाः ।] ततो ददर्श शक्रस्य पुरीं ताममरावतीम् ।। | 3-42-42a 3-42-42b
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।। इति रश्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि इन्द्रलोकाभिगमनपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ।। 42 ।। |
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