महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-085
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धौम्येन युधिष्ठिरय प्राचीस्थनानातीर्थकथनम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-85-1x |
तान्सर्वानुत्सुकान्दृष्ट्वा पाण्डवान्दीनचेतसः। अश्वासयंस्तथा धौम्यो बृहस्पतिसमोऽब्रवीत् ।। | 3-85-1a 3-85-1b |
ब्राह्मणानुमतान्पुण्यानाश्रमान्भरतर्षभ। दिशस्तीर्थानि शैलांश्च शृणु मे वदतोऽनघ ।। | 3-85-2a 3-85-2b |
याञ्श्रुत्वा गदतो राजन्विशोको भवितासि ह। द्रौपद्या चानया सार्धं भ्रातृभिश्च नरेश्वर ।। | 3-85-3a 3-85-3b |
श्रवणाच्चैव तेषां त्वं पुण्यमाप्स्यसि पाण्डव। गत्वा शतगुणं चैव तेभ्य एव नरोत्तम ।। | 3-85-4a 3-85-4b |
शृणु पूर्वां दिशं राजन्देवर्षिगणसेविताम्। रम्यां ते कथयिष्यामि युधिष्ठिर यथास्मृति ।। | 3-85-5a 3-85-5b |
तस्यां रदेवर्षिजुष्टायां नैमिषं नाम भारत। यत्रतीर्थानि देवानां पुण्यानि च पृथक् पृथक् ।। | 3-85-6a 3-85-6b |
यत्र सा गोमती पुण्या रम्या देवर्षिसेविता। यज्ञभूमिश्च देवानां शामित्रं च विवस्वतः ।। | 3-85-7a 3-85-7b |
तस्यां गिरिवरः पुण्यो गयो राजर्षिसत्कृतः। शिवं ब्रह्मसरो यत्रसेवितं त्रिदशर्षिभिः ।। | 3-85-8a 3-85-8b |
यदर्थे पुरुषव्याघ्र कीर्तयन्ति पुरातनाः। एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोपि गयां व्रजेत् ।। | 3-85-9a 3-85-9b |
गौरीं वा वरयेत्कन्यां नीलं वा वृषमुत्सृजेत्। उत्तारयति संतत्या दश पूर्वान्दशावरान् ।। | 3-85-10a 3-85-10b |
महानदी च तत्रैव तथा गयशिरो नृप। यत्रासौ कीर्त्यते विप्रैरक्षय्यकरणो वटः ।। | 3-85-11a 3-85-11b |
यत्रदत्तं पितृभ्योऽन्नमक्षय्यं भवति प्रभो। सा च पुण्यजला तत्र फल्गुनामा महानदी ।। | 3-85-12a 3-85-12b |
बहुमूलफला चापि कौशिकी भरतर्षभ। विश्वामित्रोऽध्यगाद्यत्र ब्राह्मणत्वं तपोधनः ।। | 3-85-13a 3-85-13b |
गङ्गा यत्रनदी पुण्या यस्यास्तीरे भगीरथः। अयजत्तत्रबहुभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।। | 3-85-14a 3-85-14b |
पाञ्चालेषु च कौरव्य कथयन्त्युत्पलावतम्। विश्वामित्रोऽयजद्यत्र शक्रेण सह कौशिकः ।। | 3-85-15a 3-85-15b |
यत्रानुवंशं भगवाञ्जामदग्न्यस्तथा जगौ। विश्वामित्रस्य तां दृष्ट्वा चिभूतिमतिमानुषीम् ।। | 3-85-16a 3-85-16b |
कान्यकुब्जेऽपिबत्सोममिन्द्रेण सह कौशिकः। ततः क्षत्रादपाक्रामद्ब्राह्मणोस्मीति चाब्रवीत् ।। | 3-85-17a 3-85-17b |
पवित्रमृषिभिर्जुष्टं पुण्यं पावनमुत्तमम्। गङ्गायमुनयोर्वीर संगमं लोकविश्रुतम् ।। | 3-85-18a 3-85-18b |
यत्रायजत भूतात्मा पूर्वमेव पितामहः। प्रयागमिति विख्यातं तस्माद्भरतसत्तम ।। | 3-85-19a 3-85-19b |
अगस्त्यस्य तु राजेन्द्र तत्राश्रमवरो नृप। तत्तथा तापसारण्यं तापसैरुपशोभितम् ।। | 3-85-20a 3-85-20b |
हिरण्यबिन्दुः कथितो गिरौ कालञ्जरे महान्। आगस्त्यपर्वतोरभ्यः पुण्यो गिरिवः शिवः ।। | 3-85-21a 3-85-21b |
महेन्द्रो नाम कौरव्य भार्गवस्य महात्मनः। अयजत्तत्रकौन्तेय पूर्वमेव पितामहः ।। | 3-85-22a 3-85-22b |
यत्रभागीरथी पुण्यां सरस्यासीद्युधिष्ठिर। यत्र सा ब्रह्मशालेति पुण्याख्याता विशांपते। धूतपाप्मभिराकीर्णा पुण्यं तस्याश्च दर्शनम् ।। | 3-85-23a 3-85-23b 3-85-23c |
पवित्रो मङ्गलीयश्च ख्यातो लोके सनातनः। केदारश्च मतङ्गस्य महानाश्रम उत्तमः ।। | 3-85-24a 3-85-24b |
कुण्डोदः पर्वतो रम्यो बहुमूलफलोदकः। नैषधस्तृषितो यत्र जलं शर्म च लब्धवान् ।। | 3-85-25a 3-85-25b |
यत्र देववनं पुण्यं तापसैरुपशोभितम्। बाहुदा च नदी यत्रनन्दा च गिरिमूर्धनि ।। | 3-85-26a 3-85-26b |
तीर्थानि सरितः शैलाः पुण्यान्यायतनानि च। प्राच्यां दिशि महाराज कीर्तितानि मया तव ।। | 3-85-27a 3-85-27b |
तिसृष्वन्यासु पुण्यानि दिक्षु तीर्थानि मे शृणु। सरितः पर्वतांश्चैव पुण्यान्यायतनानि च ।। | 3-85-28a 3-85-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ।। 85 ।। |
3-85-7 शामित्रं शमितुः कर्म यज्ञे पशुमारणम्। विवस्वतः पुत्रस्य यमस्येति शेषः ।। 3-85-8 तस्यां प्राच्यां दिशि। राजर्षिरपि गयसंज्ञः ।। 3-85-18 पविर्वज्रं तत्तुल्यं जन्ममरणादिदुःखं तस्मात्रायत इति पवित्रम्। अतएव ऋषिभिर्जुष्टं सेवितम्। पुण्यं धर्मवृद्धिहेतुः। पावनं पापनाशनम् ।। 3-85-21 अत्यन्यान्पर्वतान्राजन्पुण्यो गिरिवरः शिवः इति क. पाठः ।। 3-85-23 सरसि मणिकर्णिकाख्ये प्रविष्टा आसीत्। आकार्णा व्याप्ता ।। 3-85-24 मङ्गलीयः मङ्गलावहः ।। 3-85-25 नैषधो नलः ।। 3-85-26 बहुला च नदी यत्रेति क. ध. पाठः ।।
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