महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-108
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दिलीपसुतेन भगीरथेन धरणीतलावतरणाय गङ्गांप्रति तपश्चरणम् ।। 1 ।। तथा धरणीतलमवतरन्त्या गङ्गाया वेगाधारणाय तदाज्ञया तपसा शंकरतोषणम् ।। 2 ।।
लोमश उवाच। | 3-108-1x |
स तु राजा महेष्वासश्चक्रवर्ती महारथः। बभूव सर्वलोकस् मनोनयननन्दनः ।। | 3-108-1a 3-108-1b |
स शुश्राव महाबाहुः कपिलेन महात्मना। पितॄणआं निधनं घोरमप्राप्तिं त्रिदिवस्य च ।। | 3-108-2a 3-108-2b |
स राज्यं सचिवे न्यस्य हृदयेन विदूयता। जगाम हिमवत्पार्श्वं तपस्तप्तुं नरेश्वरः ।। | 3-108-3a 3-108-3b |
आरिराधयिषुर्गङ्गां तपसा दग्धकिल्विषः। सोऽपश्यत नर्रेष्ठ हिमवन्तं नगोत्तमम् ।। | 3-108-4a 3-108-4b |
शृङ्गैर्बहुविधाकारैर्धातुमद्भिरलंकृतम्। पवनालम्बिभिर्मेघैः परिपिक्तं समन्ततः ।। | 3-108-5a 3-108-5b |
नदीकुञ्जनितम्बैश्च सोदकैरुपशोभितम्। गुहाकन्दरसंलीनसिंहव्याघ्रनिषेवितम् ।। | 3-108-6a 3-108-6b |
शकुनैश्च विचित्राङ्गैः कूजद्भिर्विविधा गिरः। भृङ्गराजैस्तथा हंसैर्दात्यूहैर्जलकुक्कुटैः ।। | 3-108-7a 3-108-7b |
मयूरैः शतपत्रैश्च जीवंजीवककोकिलैः। चकोरैरसितापाङ्गैस्तथा पुत्रप्रियैरपि ।। | 3-108-8a 3-108-8b |
जलस्थानेषु रम्येषु पद्मिनीभिश्च संकुलम्। सारसानां च मधुरैर्व्याहृतैः समलंकृतम् ।। | 3-108-9a 3-108-9b |
किन्नरैरप्सरोभिश्च निषेवितशिलातलम्। दिग्वारणविषाणाग्रैः समन्ताद्धृष्टपादपम् ।। | 3-108-10a 3-108-10b |
विद्याधरानुचरितं नानारत्नसमाकुलम्। विषोल्वणैर्भुजङ्गैश्च दीप्ताजिह्वैर्निषेवितम् ।। | 3-108-11a 3-108-11b |
क्वचित्कनकसंकाशं क्वचिद्रजतसंनिभम्। क्वचिदञ्जनपुञ्जाभं हिमवनतमुपागमत् ।। | 3-108-12a 3-108-12b |
स तु तत्रनरश्रेष्ठस्तपो घोरं समाश्रितः। फलमूलाम्बुसंभक्षः सहस्रपरिवत्सरान् ।। | 3-108-13a 3-108-13b |
संवत्सरसहस्रे तु गते दिव्ये महानदी। दर्शयामास तं गङ्गा तदा मूर्तिमती स्वयम् ।। | 3-108-14a 3-108-14b |
गङ्गोवाच। | 3-108-15x |
किमिच्छसि महाराज म्तः किंच ददानि ते। तद्ब्रवीहि नरश्रेष्ठ करिष्यामि वचस्तव ।। | 3-108-15a 3-108-15b |
एवमुक्तः प्रत्युवाच राजा हैमवतीं नदीम्। `तदा भगीरथो राजन्प्रणिपत्य कृताञ्जलिः'। पितामहा मे वरदे कपिलेन महानदि ।। | 3-108-16a 3-108-16b 3-108-16c |
अन्वेषमाणास्तुरगं नीता वैवस्वतक्षयम्। षष्टिस्तानि सहस्राणि सागराणां महात्मनाम् ।। | 3-108-17a 3-108-17b |
कपिलं देवमासाद्य क्षणेन निधनं गताः। तेषामेवं विनष्टानां स्वर्गे वासो न विद्यते ।। | 3-108-18a 3-108-18b |
यावत्तानि शरीराणि त्वं जलैर्नाभिषिञ्चसि। तावत्तेषां गतिर्नास्ति सागराणां महानदि ।। | 3-108-19a 3-108-19b |
स्वर्गं नय महाभागे मत्पितॄन्सगरात्मजान्। तेषामर्थेऽभियाचामि त्वामहं वै महानदि ।। | 3-108-20a 3-108-20b |
लोमश उवाच। | 3-108-21x |
एतच्छ्रुत्वा वचो राज्ञो गङ्गा लोकनमस्कृता। भगीरथमिदं वाक्यं सुप्रीता समभाषत ।। | 3-108-21a 3-108-21b |
करिष्यामि माहाराज वचस्ते नात्र संशयः। वेगं तु मम दुर्धार्यं पतन्त्या गगनाच्च्युतम् ।। | 3-108-22a 3-108-22b |
न शक्तस्त्रिषु लोकेषु कश्चिद्धारयितुं नृप। अन्यत्र विबुधश्रेष्ठान्नीलकण्ठान्महेश्वरात् ।। | 3-108-23a 3-108-23b |
तं तोषय रमहाबाहो तपसा वरदं हरम्। स तु मां प्रच्युतां देवः शिरसा धारयिष्यति ।। | 3-108-24a 3-108-24b |
स करिष्यति ते रकामं पितॄणां हितकाम्यया। `तपसाऽऽराधितः शंभुर्भगर्वाँल्लोकभावनः' ।। | 3-108-25a 3-108-25b |
एतच्छ्रुत्वा ततो राजन्महाराजो भगीरथः। कैलासं पर्वतं गत्वा तोषयामास शंकरम् ।। | 3-108-26a 3-108-26b |
ततस्तेन समागम्य कालयोगेन केनचित्। `गह्गावतरणं राजन्नयाचत महीपतिः ।। | 3-108-27a 3-108-27b |
अगृह्णाच्च वरं तस्माद्गङ्गाया धारणे नृप। स्वर्गे वासं समुद्दिश् पितॄणां स नरोत्तमः ।। | 3-108-28a 3-108-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि अष्टाधिकशततमोऽध्यायः ।। 108 ।। |
3-108-22 गगनाच्च्युतं यथा भवति तथा पतन्त्याः। गगनाद्भुवमिति झ. पाठः ।।
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