महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-179
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गन्धमादनादवतीर्णैः पाण्डवैः क्रमेण कैलासवृषपर्वसुबाह्वादिनिवासगमनपूर्वकं पुनर्द्वैतदनमेत्य सरस्वतीतीरे सुखविहरणम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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वैशंपायन उवाच। | 3-179-1x |
नगोत्तमं प्रस्रवणैरुपेतं दिशां गजैः किन्नरपक्षिभिश्च। सुखं निवासं जहतां हि तेषां न प्रीतिरासीद्भरतर्षभाणाम् ।। | 3-179-1a 3-179-1b 3-179-1c 3-179-1d |
ततस्तु तेषां पुनरेव हर्षः कैलासमालोक्य महान्बभूव। कुबेरकान्तं भरतर्षभाणां महीधरं वारिधरप्रकाशम् ।। | 3-179-2a 3-179-2b 3-179-2c 3-179-2d |
समुच्छ्रयान्पर्वतसंनिरोधान् गोष्ठान्हरीणां गिरिगह्वराणि। बहुप्रकाराणि समीक्ष्यवीराः स्थलानि निम्नानि च तत्र तत्र ।। | 3-179-3a 3-179-3b 3-179-3c 3-179-3d |
तथैव चान्यानि महावनानि मृगद्विजानेकपसेवितानि। आलोकयन्तोऽभिययुः प्रतीता- स्ते धन्विनाः खङ्गधरा नराग्र्याः ।। | 3-179-4a 3-179-4b 3-179-4c 3-179-4d |
वनानि रम्याणि नदीः सरांसि गुहा गिरीणां गिरिगह्वराणि एते निवासाः सततं बभूवु- र्निशामुखं प्राप्य नरर्षभाणाम् ।। | 3-179-5a 3-179-5b 3-179-5c 3-179-5d |
ते दुर्गवासं बहुधा निरुष्य व्यतीत्य कैलासमचिन्त्यरूपम्। आसेदुरत्यर्थमनोरमं ते तमाश्रमाग्र्यं वृषपर्वणस्तु ।। | 3-179-6a 3-179-6b 3-179-6c 3-179-6d |
समेत्य राज्ञा वृषपर्वणा ते प्रत्यर्चितास्तेन च वीतमोहाः। शशंसिरे विस्तरशः प्रवासं शिवं यथावद्वृषपर्वणस्ते ।। | 3-179-7a 3-179-7b 3-179-7c 3-179-7d |
सुखोषितास्तस्य त एकरात्रं पुण्याश्रमे देवमहर्षिजुष्टे। अभ्याययुस्ते बदरीं विशालां सुखेन वीराः पुनरेव वासम् ।। | 3-179-8a 3-179-8b 3-179-8c 3-179-8d |
ऊषुस्ततस्तत्र महानुभावा नारायणस्थानगताः समग्राः। कुबेरकान्तां नलिनीं विशोकाः संपश्यमानाः सुरसिद्धजुष्टाम् ।। | 3-179-9a 3-179-9b 3-179-9c 3-179-9d |
तां चाथ दृष्ट्वा नलिनीं विशोकाः पाण्डोः सुताः सर्वनरप्रधानाः। ते रेमिरे नन्दनवासमेत्य द्विजर्षयो वीतमला यथैव ।। | 3-179-10a 3-179-10b 3-179-10c 3-179-10d |
ततः क्रमेणोपययुर्नृवीरा यथागतेनैव पथा समग्राः। विहृत्य मासं सुखिनो बदर्यां किरातराज्ञो विषयं सुबाहोः ।। | 3-179-11a 3-179-11b 3-179-11c 3-179-11d |
चीनांस्तुषारान्दरदांश्च सर्वान् देशान्कुलिन्दस्य च भूरिरम्यान्। अतीत्य दुर्गं हिमवत्प्रदेशं पुरं सुबाहोर्ददृशुर्नृवीराः ।। | 3-179-12a 3-179-12b 3-179-12c 3-179-12d |
श्रुत्वा च तान्पार्थिव पुत्रपौत्रा- न्प्राप्तान्सुबाहुर्विषये समग्रान्। प्रत्युद्ययौ प्रीतियुतः स राजा तं चाभ्यनन्दन्वृषभाः कुरूणाम् ।। | 3-179-13a 3-179-13b 3-179-13c 3-179-13d |
समेत्य राज्ञा तु सुबाहुना ते सुतैर्विशोकप्रमुखैश्च सर्वे। सहेनद्रसेनैः परिचारकैश्च पौरोगवैर्ये च रमहानसस्थाः ।। | 3-179-14a 3-179-14b 3-179-14c 3-179-14d |
सुखोपितास्तत्रत एकरात्रं सूतान्समादाय रथांश्च सर्वान्। घटोत्कचं सानुचरं विसृज्य ततोऽभ्ययुर्यामुनमद्रिराजम् ।। | 3-179-15a 3-179-15b 3-179-15c 3-179-15d |
तस्मिन्गिरौ प्रस्रवणोपपन्न- हिमोत्तरीयारुणपाण्डुसानौ। विशाखयूपं समुपेत्य चक्रु- स्तदा निवासं पुरुषप्रवीराः ।। | 3-179-16a 3-179-16b 3-179-16c 3-179-16d |
वराहनानामृगपक्षिजुष्टं महावनं चैत्ररथप्रकाशम्। शिवेन यात्वा मृगयाप्रधानाः संवत्सरं तत्रवने विजह्रुः ।। | 3-179-17a 3-179-17b 3-179-17c 3-179-17d |
तत्राससादातिबलं भुजङ्गं क्षुधार्दितं मृत्युमिवोग्ररूपम्। वृकोदरः पर्वतकन्दरायां विषादमोहव्यथितान्तरात्मा ।। | 3-179-18a 3-179-18b 3-179-18c 3-179-18d |
द्वीपोऽभवद्यत्र वृकोदरस्य युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः। अमोक्षयद्यस्तमनन्ततेजा ग्राहेण संवेष्टितसर्वगात्रम् ।। | 3-179-19a 3-179-19b 3-179-19c 3-179-19d |
ते द्वादशं वर्षमथोपयान्तं वने विहुर्तुं कुरवः प्रतीताः। तस्माद्वनाच्चैत्ररथप्रकाशा- च्छ्रिया ज्वलन्तस्तपसा च युक्ताः ।। | 3-179-20a 3-179-20b 3-179-20c 3-179-20d |
ततश्च यात्वा मरुधन्वपार्श्वं सदा धनुर्वेदरतिप्रधानाः। सरस्वतीमेत्य निवासकामाः सरस्ततो द्वैतवनं प्रतीयुः ।। | 3-179-21a 3-179-21b 3-179-21c 3-179-21d |
समीक्ष् तान्द्वैतवने निविष्टा- न्निवासिनस्तत्रततोऽभिजग्मुः। तपोदमाचारसमाधियुक्ता- स्तृणोदपात्रावरणाश्मकुट्टाः ।। | 3-179-22a 3-179-22b 3-179-22c 3-179-22d |
प्लक्षाक्षरौहीतकवेतसाश्च तथा बदर्यः खदिराः शिरीषाः। बिल्वेङ्गुदाः पीलुशमीकरीराः सरस्वतीतीररुहा बभूवुः ।। | 3-179-23a 3-179-23b 3-179-23c 3-179-23d |
तां यक्षगन्धर्वमहर्षिकान्ता- मावासभूतामिव देवतानाम्। सरस्वतीं प्रीतियुताश्चरन्तः सुखं विजह्रुर्नरदेवपुत्राः ।। | 3-179-24a 3-179-24b 3-179-24c 3-179-24d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि आजगरपर्वणि एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 179 ।। |
3-179-1 नगोत्तमं गन्धमादनं जहतां त्यजताम् ।। 3-179-2 कुबेरस्य कान्तं प्रियम् ।। 3-179-3 समुच्छ्रयान् उच्चैस्त्वानि। संनिरोधान् संकीर्णत्वानि। गोष्ठान् स्थानानि। हरीणां सिंहानाम् ।। 3-179-4 अनेकपाः द्विपाः ।। 3-179-5 गुहा अल्पप्रमाणादरी। गह्वरं महती दरी ।। 3-179-9 नलिनीं सरसीम् ।। 3-179-10 नन्दनमिन्द्रवनम् ।। 3-179-14 पौरोगवैः पुरोगामिभिः पटगृहादिसामग्रीवाहः ।। 3-179-15 यामुनं यमुनोद्गमम् ।। 3-179-16 पुंसि यथा श्वेतमुत्तरीयं श्वेतारुणमुष्णीषं च तद्वत् गिरौ प्रस्रवणानि अरुणपाण्डसानूनि च भान्तीत्युत्प्रेक्षा। विशाखयूपं स्थानविशेषः ।। 3-179-17 शिवेन पार्थाः इति झ. पाठः ।। 3-179-19 द्वीपो द्वीपवदाश्रयः। ग्राहेण सर्वेण ।। 3-179-22 तृणोदपात्रावरणाः आसनार्थं तृणेन पाद्यार्थं उदकपात्रेण च आवृण्वनति ते तथाभूताः। अश्मकुट्टाः वानप्रस्था दन्तोलूखलिका एव सन्तो जरया नष्टदन्ता अश्मकुट्टा भवन्ति ।। 3-179-23 बभूवुः शोभावन्त इति शेषः ।।
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