महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-190
← आरण्यकपर्व-189 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-190 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-191 → |
मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरादीन्प्रति मत्स्यरूपिणो हरेर्वैवस्वतमनोश्च चरितप्रतिपादकमस्योपाख्यानकथनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
वैशंपायन उवाच। | 3-190-1x |
ततः स पाण्डवो भूयो मार्कण्डेयमुवाच ह। कथयस्वति चरितं मनोर्वैवस्वतस्य च ।। | 3-190-1a 3-190-1b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-190-2x |
विवस्वतः सुतो राजन्महर्षिः सुप्रतापवान्। बभूव नरशार्दूल प्रजापतिसमद्युतिः ।। | 3-190-2a 3-190-2b |
ओजसातेजसा लक्ष्म्या तपसा च विशेषतः। अतिचक्राम पितरं मनुः स्वंच पितामहम् ।। | 3-190-3a 3-190-3b |
ऊर्ध्वबाहुर्विशालायां बदर्यां स नराधिपः। एकपादस्थितस्तीव्रं चकार सुमहत्तपः ।। | 3-190-4a 3-190-4b |
अवाकूशिरास्तथा चापि नेत्रैरनिमिषैर्दृढम्। सोऽतप्यत तपो घोरं वर्षाणामयुतं तदा ।। | 3-190-5a 3-190-5b |
तं कदाचित्तपस्यन्तमार्द्रचीरजटाधरम्। चीरिणीतीरमागम्य मत्स्यो वचनमब्रवीत् ।। | 3-190-6a 3-190-6b |
भगवन्क्षुद्रमत्स्येस्मि बलवद्भ्यो भयंमम। मत्स्येभ्यो हि ततो मां त्वं त्रातुमर्हसि सुव्रत ।। | 3-190-7a 3-190-7b |
दुर्बलं बलवन्तो हि मत्स्या मत्स्यं विशेषतः। भक्षयन्ति सदा वृत्तिर्विहिता नः सनातनी ।। | 3-190-8a 3-190-8b |
तस्माद्भयौघान्महतो मज्जन्तं मां विशेषतः। त्रातुमर्हसि कर्तास्मि कृतेप्रतिकृतं तव ।। | 3-190-9a 3-190-9b |
स मत्स्यवचनं श्रुत्वा कृपयाऽभिपरिप्लुतः। मनुर्वैवस्वतोऽगृह्णात्तं मत्स्यं पाणिना स्वयम् ।। | 3-190-10a 3-190-10b |
उदकान्तमुपानीय मत्स्यं वैवस्वतो मनुः। अलिञ्जरे प्राक्षिपत्तं चन्द्रांशुसदृशप्रभम् ।। | 3-190-11a 3-190-11b |
स तत्र ववृधे राजन्मत्स्यः परमसत्कृतः। पुत्रवत्स्वीकरोत्तस्मै मनुर्भावं विशेषतः ।। | 3-190-12a 3-190-12b |
अथ कालेन महता स मत्स्यः सुमहानभूत्। अलिञ्जरजले चैव नासौ समभवत्किल ।। | 3-190-13a 3-190-13b |
अथ मत्स्यो मनुं दृष्ट्वा पुनरेवाभ्यभाषत। भगवन्साधु मेऽद्यान्यत्स्थानं संप्रतिपादय ।। | 3-190-14a 3-190-14b |
उद्धृत्यालिञ्जरात्तस्मात्ततः स भगवान्मनुः। तं मत्स्यमनयद्वापीं महतीं स मनुस्तदा ।। | 3-190-15a 3-190-15b |
तत्रतं प्राक्षिपच्चापि मनुः परपुरंजय। अथावर्धत मत्स्यः स पुनर्वर्षगणान्बहून् ।। | 3-190-16a 3-190-16b |
द्वियोजनायता वापी विस्तृताचापि योजनम्। तस्यां नासौ समभवन्मत्स्यो राजीवलोचन ।। | 3-190-17a 3-190-17b |
विचेष्टितुं च कौन्तेय मत्स्यो वाप्यां विशांपते। मनुं मत्स्यस्ततो दृष्ट्वा पुनरेवाभ्यभाषत ।। | 3-190-18a 3-190-18b |
नय मां भगवन्साधो समुद्रमहिषीं प्रियाम्। गङ्गां नांत्रापि शक्तोस्मि वस्तुं मतिमतांवर ।। | 3-190-19a 3-190-19b |
निदेशे हि मया तुभ्यं स्थातव्यमनसूयता। वृद्धिर्हि परमा प्राप्ता त्वत्कृते हि मयाऽनघ ।। | 3-190-20a 3-190-20b |
एवमुक्तो मनुर्मत्स्यमनयद्भगवान्वशी। नदीं गङ्गां तत्रचैनं स्वयं प्राक्षिपदेव च ।। | 3-190-21a 3-190-21b |
स तत्र ववृधे मत्स्यः कंचित्रालमरिंदम। गतः पुनर्मनुं दृष्ट्वा मत्स्यो वचनमब्रवीत् ।। | 3-190-22a 3-190-22b |
गङ्गायां हि न शक्नोमि बृहत्त्वाच्चेष्टितुं प्रभो। समुद्रं नय मामाशु प्रसीद भगवन्निति ।। | 3-190-23a 3-190-23b |
उद्धृत्य गङ्गासलिलात्ततो मत्स्यं मनुः स्वयम्। समुद्रमनयत्पार्त तत्रचैनमवासृजत् ।। | 3-190-24a 3-190-24b |
सुमहानपि मत्स्यस्तु स मनोर्नयतस्तदा। आसीद्यथेष्टहार्यश्च स्पर्शगन्धसुखश्च वै ।। | 3-190-25a 3-190-25b |
यदा समुद्रे प्रक्षिप्तः स मत्स्यो ननुना तदा। तत एनमिदं वाक्यं स्मयमान इवाब्रवीत् ।। | 3-190-26a 3-190-26b |
भगवन्हि कृता रक्षा त्वया सर्वा विशेषतः। प्राप्तकालं तु यत्कार्यं त्वया तच्छ्रूयतां मम ।। | 3-190-27a 3-190-27b |
अचिराद्भगवन्बौममिदं स्थावरजङ्गमम्। सर्वमेव महाभाग प्रलयं वै गमिष्यति ।। | 3-190-28a 3-190-28b |
संप्रक्षालनकालोऽयंलोकानां समुपस्थितः। तस्मात्त्वां बोधयाम्यद्ययत्ते हितमनुत्तमम् ।। | 3-190-29a 3-190-29b |
त्रसानां स्तावराणां च यच्चेङ्गं यच्च नेङ्गति। तस्य सर्वस् संप्राप्तः कालः परमदारुणः ।। | 3-190-30a 3-190-30b |
नौश्च कारयितव्या ते दृढा युक्तवटारका। तत्र सप्तर्षिभिः सार्धमारुहेथा महामुने ।। | 3-190-31a 3-190-31b |
बीजानि चैव सर्वाणि यथोक्तानि मया पुरा। तस्यामारोहयेर्नावि सुसंगुप्तानि भागशः ।। | 3-190-32a 3-190-32b |
नौस्थश्च मां प्रतीक्षेथास्ततो मुनिजनप्रिय। आगमिष्याम्यहं शृङ्गी विज्ञेयस्तेन तापस ।। | 3-190-33a 3-190-33b |
एवमेतत्त्वया कार्यमापृष्टोसि व्रजाम्यहम्। ता न शक्या महत्यो वै आपस्तर्तुं मया विना। नातिशङ्क्यमिदं चापि वचनं मे त्वया विभो ।। | 3-190-34a 3-190-34b 3-190-34c |
एवं करिष्य इति तं स मत्स्यं प्रत्यभाषत। जग्मतुश्च यथाकाममनुज्ञाप्य परस्परम् ।। | 3-190-35a 3-190-35b |
ततो मनुर्महाराज यथोक्तं मत्स्यकेन ह। बीजान्यादाय सर्वाणि सागरं पुप्लुवे तदा। नौकया शुभयावीर महोर्मिणमरिंदम ।। | 3-190-36a 3-190-36b 3-190-36c |
चिन्तयामास च मनुस्तं मत्स्यं पृथिवीपते। सच तच्चिन्तितं ज्ञात्वा मत्स्यः परपुरंजय। शृङ्गी तत्राजगागाशु तदा भरतसत्तम ।। | 3-190-37a 3-190-37b 3-190-37c |
तं दृष्ट्वा मनुजव्याघ्र मनुर्मत्स्यं जलार्णवे। शृङ्गिणं तं यथोक्तेन रूपेणाद्रिमिवोच्छ्रितम् ।। | 3-190-38a 3-190-38b |
वटारकमयं पाशमथ मत्स्यस्य मूर्धनि। मनुर्मनुजशार्दूल तस् शृङ्गे न्यवेशयत् ।। | 3-190-39a 3-190-39b |
संयतस्तेन पाशेन मत्स्यः परपुरंजय। वेगेन महता नावं प्राकर्षल्लवणाम्भसि ।। | 3-190-40a 3-190-40b |
स ततार तया नावा समुद्रं मनुजेश्वर। नृत्यमानमिवोर्मीभिर्गर्जमानमिवाम्भसा ।। | 3-190-41a 3-190-41b |
क्षोभ्यमाणा महावातैः सा नौस्तस्मिन्महोदधौ। घूर्णते चपलेव स्री मत्ता परपुरंजय ।। | 3-190-42a 3-190-42b |
नैव भूमिर्न च दिशः प्रदिशो वा चकाशिरे। सर्वं सलिलमेवासीत्खं द्यौश्च नरपुङ्गव ।। | 3-190-43a 3-190-43b |
एवंभूते तदा लोके संकुले भरतर्षभ। अदृश्यन्त सप्तर्षयो मनुर्मत्स्यस्तथैव च ।। | 3-190-44a 3-190-44b |
एवं बहून्वर्षगणांस्तां नावं सोऽथ मत्स्यकः। चकर्षातन्द्रितो राजंस्तस्मिन्सलिलसंचये ।। | 3-190-45a 3-190-45b |
ततो हिमवतः शृङ्गं यत्परं भरतर्षभ। तत्राकर्षत्ततो नावं स मत्स्यः कुरुनन्दन ।। | 3-190-46a 3-190-46b |
अथाब्रवीत्तदा मत्स्यस्तानृषीन्प्रहसञ्शनैः। अस्मिन्हिमवतः शृङ्गे नावं बध्नीत माचिरम् ।। | 3-190-47a 3-190-47b |
सा बद्धा तत्र तैस्तूर्णमृषिभिर्भरतर्षभ। नौर्मत्स्यस्य वचः श्रुत्वा शृङ्गे हिमवतस्तदा ।। | 3-190-48a 3-190-48b |
तच्च नौबन्धनं नाम शृङ्गं हिमवतः परम्। ख्यातमद्यापि कौन्तेय तद्विद्धि भरतर्षभ ।। | 3-190-49a 3-190-49b |
अथाब्रवीदनिमिषस्तानृषीन्सहितस्तदा। अहं प्रजापतिर्ब्रह्मा मत्परं नाधिगम्यते। मत्स्यरूपेण यूयं च मयाऽस्मान्मोक्षिता भयात् ।। | 3-190-50a 3-190-50b 3-190-50c |
मनुना च प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानुपाः। स्रष्टव्याः सर्वलोकाश्चयच्चेङ्गं यच्चा नेङ्गति ।। | 3-190-51a 3-190-51b |
तपसा चापि तीव्रेण प्रतिभाऽस्य भविष्यति। मत्प्रसादात्प्रजासर्गे न च मोहं गमिष्यति। इत्युक्त्वा वचनं मत्स्यः क्षणेनादर्शनं गतः ।। | 3-190-52a 3-190-52b 3-190-52c |
स्रष्टुकामः प्रजाश्चापि मनुर्वैवस्वतः स्वयम्। प्रमूढोऽभूत्प्रजासर्गे तपस्तेपे महत्ततः ।। | 3-190-53a 3-190-53b |
तपसा महता युक्तः सोऽथ स्रष्टुं प्रचक्रमे। सर्वाः प्रजा मनुः साक्षाद्यथावद्भरतर्षभ ।। | 3-190-54a 3-190-54b |
इत्येतन्मात्स्यकं नाम पुराणं परिकीर्तितम्। आख्यानमिदमाख्यातं सर्वपापहरं मया ।। | 3-190-55a 3-190-55b |
य इदं शृणुयान्नित्यं मनोश्चरितमादितः। स सुखी सर्वपूर्णार्थः सर्वलोकमियान्नरः ।। | 3-190-56a 3-190-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 190 ।। |
3-190-6 चीरिणीनदीविशेषः ।। 3-190-11 अलिञ्जरे मणिकाख्यपात्रे ।। 3-190-13 न समभवत्स्थूलत्वेन न ममावित्यर्थः ।। 3-190-30 त्रसानां जङ्गमानाम्। इङ्गं चलनशीलं वृक्षादि। नेङ्गति पाषाणादि। कालोऽन्तः ।। 3-190-31 वटारका रज्जुः ।। 3-190-32 यथोक्तानि द्विजैः पुरा इति झ. पाठः ।। 3-190-41 सच तांस्तारयन्नावा इति झ. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-189 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-191 |