महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-277
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रावणोपद्रितदेवगणप्रार्थितेन ब्रह्मणा श्रीहरे रामत्वेन प्रादुर्भावनिवेदनपूर्वकं तान्प्रति तत्साहाय्यार्थं वानरादिभावेन जननचोदना ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-277-1x |
ततो ब्रह्मर्षयः सर्वे सिद्धा देवर्षयस्तथा। हव्यवाहं पुरस्कृत्य ब्रह्माणं शरणं गताः ।। | 3-277-1a 3-277-1b |
अग्निरुवाच। | 3-277-2x |
योसौ विश्रवसः पुत्रो दशग्रीवो महाबलः। अवध्यो वरदानेन कृतो भगवता पुरा ।। | 3-277-2a 3-277-2b |
स बाधते प्रजाः सर्वा विप्रकारैर्महाबलः। ततो नस्त्रातु भगवान्नान्यस्त्राता हि विद्यते ।। | 3-277-3a 3-277-3b |
ब्रह्मोवाच। | 3-277-4x |
न स देवासुरैः शक्यो युद्धे जेतुं विभावसो। विहितं तत्रयत्कार्यमभितस्तस्य निग्रहः ।। | 3-277-4a 3-277-4b |
तदर्थमवतीर्णोऽसौ मन्नियोगाच्चतुर्भुजः। विष्णुः प्रहरतां श्रेष्ठः स तत्कर्म करिष्यति ।। | 3-277-5a 3-277-5b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-277-6x |
पितामहस्ततस्तेषां संनिधौ शक्रमब्रवीत्। सर्वैर्देवगणैः सार्धं संभव त्वं महीतले ।। | 3-277-6a 3-277-6b |
विष्णोः सहायानृक्षीषु वानरीषु च सर्वशः। जनयध्वं सुतान्वीरान्कामरूपबलान्वितान् ।। | 3-277-7a 3-277-7b |
`ते यथोक्ता भगवता तत्प्रतिश्रुत्य शासनम्। ससृजुर्देवगन्धर्वाः पुत्रान्वानररूपिणः' ।। | 3-277-8a 3-277-8b |
ततो भागानुभागेन देवगन्धर्वदानवाः। अवतर्तुं महीं सर्वे मन्त्रयामासुरञ्जसा ।। | 3-277-9a 3-277-9b |
`अवतेरुर्महीं स्वर्गादंशैश्च सहिताः सुराः। ऋषयश्च महात्मानः सिद्धाश्च सह किन्नरैः। चारणाश्चासृजन्घोरान्वानरान्वनचारिणः ।। | 3-277-10a 3-277-10b 3-277-10c |
यस्य देवस्य यद्रूपं वेषस्तेजश्च यद्विधम्। अजायन्त समास्तेन तस्य तस्य सुतास्तदा' ।। | 3-277-11a 3-277-11b |
तेषां समक्षं गन्धर्वी दुन्दुभीं नाम नामतः। शशास वरदो देवो गच्छ कार्यार्थसिद्धये ।। | 3-277-12a 3-277-12b |
पितामहवचः श्रुत्वा गन्धर्वी दुन्दुभी ततः। मन्थरा मानुषे लोके कुब्जा समभवत्तदा ।। | 3-277-13a 3-277-13b |
शक्रप्रभृतयश्चैव सर्वे ते सुरसत्तमाः। वानरर्क्षवरस्त्रीषु जनयामासुरात्मजान् ।। | 3-277-14a 3-277-14b |
तेऽन्ववर्तन्पितॄन्सर्वे यशसा च बलेन च। भेत्तारो गिरिशृङ्गाणां सालतालशिलायुधाः ।। | 3-277-15a 3-277-15b |
वज्चसंहननाः सर्वेसर्वेऽमोघवलास्तथा। कामवीर्यबलाश्चैवसर्वे बुद्धिविशारदाः ।। | 3-277-16a 3-277-16b |
नागायुतसमप्राणा वायुवेगसमा जवे। यथेच्छविनिपाताश्च केचिदत्र वनौकसः ।। | 3-277-17a 3-277-17b |
एवं विधाय तत्सर्वं भगवाँल्लोकभावनः। मन्थरां बोधयामास यद्यत्कार्यं त्वया तथा ।। | 3-277-18a 3-277-18b |
सा तद्वच समाज्ञाय तथा चक्रे मनोजवा। इतश्चेतश्च गच्छन्ती वैरसंधुक्षणे रता ।। | 3-277-19a 3-277-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि रामोपाख्यानपर्वाणि सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 277 ।। |
3-277-3 विप्रकारैर्विविधैः प्रकारैः ।। 3-277-15 ओजसा तेजसा युक्तान्यशसा इति थ. ध. पाठः ।। 3-277-16 वज्रसंहननाः वज्रवद्दृढाङ्गाः ।। 3-277-17 यत्रेच्छकनिवसाश्च इति ख. झ. पाठः। यत्रेच्छा तत्रैव निवासो येषां ते यत्रेच्छकनिवासाः ।। 3-277-18 यद्यत्कार्यं कैकेयीप्रलोभनं रामप्रव्राजनादि च ।। 3-277-19 संधुक्षणे दीपने ।।
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