महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-057
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द्यूते नलपराजयमुत्पश्यन्त्या दमयन्त्या चोदितेन सारथिना तत्पुत्रमिथुनस्य रथारोपणेन भीमनगरप्रापणम् ।। 1 ।।
बृहदश्व उवाच। | 3-57-1x |
दमयन्ती ततो दृष्ट्वा पुण्यश्लोकं नराधिपम्। उन्मत्तवदनुन्मत्ता देवने कृतचेतसम् ।। | 3-57-1a 3-57-1b |
भयशोकसमाविष्टा राजन्भीमसुता ततः। चिन्तयामास तत्कार्यं सुमहत्पार्थिवं प्रति ।। | 3-57-2a 3-57-2b |
सा शङ्कमाना तत्पापं चिकीर्षन्ती च तत्प्रियम्। नलं च हृतसर्वस्वमुपलभ्येदमब्रवीत् ।। | 3-57-3a 3-57-3b |
बृहत्सेनामतियशां तां धात्रीं परिचारिकाम्। हितां सर्वार्थकुशलामनुरक्तां सुभाषिताम् ।। | 3-57-4a 3-57-4b |
बृहत्सेने व्रजामात्यानानाय्य नलशासनात्। आचक्ष्व यद्धृतं द्रव्यमवशिष्टं च यद्वसु ।। | 3-57-5a 3-57-5b |
`इत्येवं सा समादिष्टा बृहत्सेना नरेश्वर। उवाच देव्या वचनं मन्त्रिणां सा समीपत ।।' | 3-57-6a 3-57-6b |
ततस्ते मन्त्रिणः सर्वे विज्ञाय नलशासनम्। अपि नो भागधेयं स्यादित्युक्त्वा पुनराव्रजन् ।। | 3-57-7a 3-57-7b |
तास्तु सर्वाः प्रकृतयो द्वितीयं समुपस्थिताः। न्यवेदयद्भीमसुता न च तत्प्रत्यनन्दत ।। | 3-57-8a 3-57-8b |
वाक्यमप्रतिनन्दन्तं भर्तारमभिवीक्ष्य सा। दमयन्ती पुनर्वेश्म व्रीडिता प्रविवेश ह ।। | 3-57-9a 3-57-9b |
निशाम्य सततं चाक्षान्पुण्यश्लोकपराङ्युखान्। नलं च हृतसर्वस्वं धात्रीं पुनरुवाच ह ।। | 3-57-10a 3-57-10b |
बृहत्सेने पुनर्गच्छ वार्ष्णेयं नलशासनात्। सूतमानय कल्याणि महत्कार्यमुपस्थितम् ।। | 3-57-11a 3-57-11b |
बृहत्सेना तु सा श्रुत्वा दमयन्त्याः प्रभाषितम्। वार्ष्णेयमानयामास पुरुषैराप्तकारिभिः ।। | 3-57-12a 3-57-12b |
वार्ष्णेयं तु ततो भैमी सान्त्वयञ्छ्लक्ष्णया गिरा। उवाच देशकालज्ञा प्राप्तकालमनिन्दिता ।। | 3-57-13a 3-57-13b |
जानषे त्वं यथा राजा सम्यग्वृत्तः सदा त्वयि। तस्य त्वं विपमस्थस्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि ।। | 3-57-14a 3-57-14b |
यथायथा हि नृपतिः पुष्करेणैव जीयते। तथातथाऽस्य वै द्यूते रागो भूयोऽभिवर्धते ।। | 3-57-15a 3-57-15b |
यथा च पुष्करस्याक्षाः पतन्ति वशवर्तिनः। तथा विपर्ययश्चापि नलस्याक्षेषु दृश्यते ।। | 3-57-16a 3-57-16b |
सुहृत्स्वजनवाक्यानि यथाऽयं न शृणोति च। ममापि च तथा वाक्यं नाभिनन्दति नैषध ।। | 3-57-17a 3-57-17b |
यथा राज्ञः प्रदीप्तानां भाग्यानामद्य सारथे। नूनं मन्ये न शेषोस्ति नैषधस्य महात्मनः ।। | 3-57-18a 3-57-18b |
यत्तु मे वचनं राजा नाभिनन्दति मोहितः। शरणं त्वां प्रपन्नाऽस्मि सारथे कुरु मद्वचः। न हि मे शुध्ते भावो विनाशं प्रति सारथे ।। | 3-57-19a 3-57-19b 3-57-19c |
नलस्य दयितानश्वान्योजयित्वा मनोजवान्। रथमारोप्य मिथुनं कुण्डिनं यातुर्महसि ।। | 3-57-20a 3-57-20b |
मम ज्ञातिषु निक्षिप्य दारकौ स्यन्दनं तथा। अश्वांश्चेमान्यथाकामं वस वाऽन्यत्र गच्छवा ।। | 3-57-21a 3-57-21b |
दमयन्त्यास्तु तद्वाक्यं वार्ण्येयो नलसारथिः। न्यवेदयदशेषेण नलामात्येषु मुख्यशः ।। | 3-57-22a 3-57-22b |
तैः समेत्य विनिश्चित्य सोऽनुज्ञातो महीपते। ययौ मिथुनमारोप्य विदर्भांस्तेन वाहिना ।। | 3-57-23a 3-57-23b |
हयांस्तत्र विनिक्षिप्य सूतो रथवरं च तम्। इन्द्रसेनां च तां कन्यामिन्द्रसेनं च बालकम् ।। | 3-57-24a 3-57-24b |
आमन्त्र्य भीमं राजानमार्तः शोचन्नलं नृपम्। क्व नु यास्यामि मनसा चिन्तयानो मुहुर्मुहुः। अटमानस्ततोऽयोध्यां जगाम नगरीं तदा ।। | 3-57-25a 3-57-25b 3-57-25c |
ऋतुपर्णं स राजानमुपतस्थे सुदुःखितः। भृतिं च स ददौ चास्य सारथ्येन नियोजितः ।। | 3-57-26a 3-57-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि नलोपाख्यानपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्याः ।। 57 ।। |
3-57-2 द्वितीयं द्वतीयवारम्। न च तत्प्रत्यवबुध्यतेति क. ध.पाठः ।। 3-57-19 कदाचिद्विनशेदपीति झ.पाठः ।। 3-57-20 मिथुनं कुमारीं कुमारं च। कुण्डिनं भीमस् नगरम् ।। 3-57-22 मुख्यशः मुख्येषु मुख्येषु ।। 3-57-23 वाहिना अश्वरथेन ।। 3-57-26 भृतिं वेतनम् ।।
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