महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-147
← आरण्यकपर्व-146 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-147 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-148 → |
भीमसेनस्मरणमात्रसन्निहितेन घटोत्कचेन दुर्गमे पथि द्रौपद्या वहनम् ।। 1 ।। तदनुचरै राक्षसैः पाण्डवानां विप्राणं च वहनम् ।। 2 ।। सर्वैर्नरनारायणाश्रममेत्य तत्र सुखेन निवासः ।। 3 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 3-147-1x |
धर्मज्ञो बलवाञ्शूरः सद्यो राक्षसपुङ्गवः। भक्तोऽस्मानौरसः पुत्रो नेतुमर्हति मातरम् ।। | 3-147-1a 3-147-1b |
तव भीम सुतेनाहं नीतो भीमपराक्रम। अक्षतः सह पाञ्चाल्या गच्छेयं गन्धमादनम् ।। | 3-147-2a 3-147-2b |
वैशंपायन उवाच। | 3-147-3x |
भ्रातुर्वचनमाज्ञाय भीमसेनो घटोत्कचम्। `चिन्तयामास बलवान्महाबलपराक्रमम् ।। | 3-147-3a 3-147-3b |
घटोत्कचश्च धर्मात्मा स्मृतमात्रः पितुस्तदा। कृताञ्जलिरुषातिष्ठदभिवाद्याथ पाण्डवान्। ब्राह्मणांश्च महाबाहुः स च तैरमिनन्दितः ।। | 3-147-4a 3-147-4b 3-147-4c |
उवाच भीमसेनं स पितरं सत्यविक्रमः ।। | 3-147-5a |
स्मृतोऽस्मि भवता शीघ्रं शुश्रूषुरहमागतः। आज्ञापय महाबाहो सर्वं कर्ताऽस्म्यसंशयम् ।। | 3-147-6a 3-147-6b |
तच्छ्रुत्वा भीमसेनस्तु राक्षसं परिषस्वजे। चिन्ताया समनप्राप्तमित्युवाच वृकोदरः'।। | 3-147-7a 3-147-7b |
हैडिम्बेय परिश्रान्ता तव माताऽपराजिता। त्वं कच कामगमस्तात बलवान्वह तां खग ।। | 3-147-8a 3-147-8b |
स्कन्धमारोप्य भद्रं ते मध्येऽस्माकं विहायसा। गच्छ नीचिकया गत्या यथा चैनां न पीडयेः ।। | 3-147-9a 3-147-9b |
घटोत्कच उवाच। | 3-147-10x |
धर्मराजं च धौम्यं च कृष्णां च यमजौ तथा। एकोप्यहमलं वोढुं किमुताद्य सहायवान् ।। | 3-147-10a 3-147-10b |
[अन्ये च शतशः शूरा विहङ्गाः कामरूपिणः। सर्वान्वो ब्राह्मणैः सार्धं वक्ष्यन्ति सहिताऽनघ। `मन्दंमन्दं गमिष्यामि वहन्द्रुपदनन्दिनीम्' ।। | 3-147-11a 3-147-11b 3-147-11c |
वैश्पायन उवाच। | 3-147-12x |
एवमुक्त्वा ततः कृष्णामुवाह स घटोत्कचः। पाण्डूनां मध्यगो वीरः पाण्डवानपि चापरे ।। | 3-147-12a 3-147-12b |
लोमशः सिद्धमार्गेण जगामानुपमद्युतिः। स्वेनैव स प्रभावेण द्वीतीय इव भास्करः ।। | 3-147-13a 3-147-13b |
ब्राह्मणांश्चापि तान्सर्वान्समुपादाय राक्षसाः। नियोगाद्राक्षसेनद्रस्य जग्मुर्भीमपराक्रमाः ।। | 3-147-14a 3-147-14b |
एवं सुरमणीयानि वनान्युपवनानि च। आलोकयन्तस्ते जग्मुर्विशालां बदरीमनु ।। | 3-147-15a 3-147-15b |
ते त्वाशुगतिभिर्वीरा राक्षसैस्तैर्महाजवैः। उह्यमाना ययुः शीघ्रं महदध्वानमल्पवत् ।। | 3-147-16a 3-147-16b |
देशान्म्लेच्छजनाकीर्णान्नानारत्नाकरायुतान्। ददृशुर्गिरिपादांश्च नानाधातुसमाचितान् ।। | 3-147-17a 3-147-17b |
विद्याघरमाकीर्णआन्युतान्वानरकिन्नरैः। तथा किंपुरुषैश्चैव गन्धर्वैश्चसमन्ततः ।। | 3-147-18a 3-147-18b |
मयूरैश्चभरैश्चैव हरिणै रुरुभिस्तथा। वराहैर्गवयैश्चैव महिषैश्च समावृतान् ।। | 3-147-19a 3-147-19b |
नदीजालसमाकीर्णान्नानापक्षियुतान्बहून्। नानाविधमृगैर्जुष्टांश्चारणैश्चोपशोभितान्। समदैश्च्यशि विहगैः उपैरन्वितांस्तथा ।। | 3-147-20a 3-147-20b 3-127-20c |
तेऽवतीर्य बहून्देशानुत्तरांश्च कुरूनपि। ददृशुर्विविधाश्चर्यं कैलासं पर्वतोत्तमम् ।। | 3-147-21a 3-147-21b |
तस्याभ्याशे तु ददृशुर्नरनारायणाश्रमम्। उपेतं पादपैर्दिव्यैः सदापुष्पफलोपगैः ।। | 3-147-22a 3-147-22b |
ददृशुस्तां च बदरीं वृत्तस्कन्धां मनोरमाम्। स्निग्धामविरलच्छायां श्रिया परमया युताम् ।। | 3-147-23a 3-147-23b |
पत्रैः स्निग्धैरविरलैरुपेतां मृदुभिः शुभाम्। विशालशाखां विस्तीर्णामतिद्युतिसमन्विताम् ।। | 3-147-24a 3-147-24b |
फलैरुपचितैर्दिव्यैराचितां स्वादुभिर्भृशम्। मधुस्रवैः सदा दिव्यां महर्षिगणसेविताम्। मदप्रमुदितैर्नित्यं नानाद्विजगणैर्युताम् ।। | 3-147-25a 3-147-25b 3-147-25c |
अदंशमशके देशे बहुमूलफलोदके। नीलशाद्वलसंछन्ने देवगन्धर्वसेविते ।। | 3-147-26a 3-147-26b |
सुभूमिभागविशदे स्वभावविदिते शुभे। जातां हिममृदुस्पर्शे देशेऽपहतकण्टके ।। | 3-147-27a 3-147-27b |
तामुपेत्य महात्मानः सह तैर्ब्राह्मणर्षभैः। अवतेरुस्ततः सर्वे राक्षसस्कन्धतः शनैः ।। | 3-147-28a 3-147-28b |
ततस्तमाश्रमं पुण्यं नरनारायणाश्रितम्। ददृशुः पाण्डवा राजन्सहिता द्विजपुङ्गवैः ।। | 3-147-29a 3-147-29b |
तमसा रहितं पुण्यमनामृष्टं रवेः करैः। क्षुत्तृट्शीतोष्णदोषैश्च वर्जितं शोकनाशनम् ।। | 3-147-30a 3-147-30b |
महर्षिगणसंबाधं ब्राह्म्या लक्ष्म्या समन्वितम्। दुष्प्रवेशं महाराज नरैर्धर्मबहिष्कृतैः ।। | 3-147-31a 3-147-31b |
बलिहोमार्चितं दिव्यं सुसंमृष्टानुलेपनम्। दिव्यपुष्पोपहारैश्च सर्वतोऽभिविराजितम् ।। | 3-147-32a 3-147-32b |
विशालैरग्निशरणैः स्रुग्भाण्डैराचितं शुभैः। महद्भिस्तोयकलशैः कठिनैश्चोपशोभितम् ।। | 3-147-33a 3-147-33b |
शरण्यं सर्वभूतानां ब्रह्मघोपनिनादितम्। दिव्यमाश्रयणीयं तमाश्रमं श्रमनाशनम्। श्रिया युतमनिर्देश्यं देववर्योपशोभितम् ।। | 3-147-34a 3-147-34b 3-147-34c |
फलमूलाशनैर्दान्तैश्चारुकृष्णाजिनाम्बरैः। सूर्यवैश्वानरसमैस्तपसा भावितात्मभिः ।। | 3-147-35a 3-147-35b |
महर्षिभिर्मोक्षपरैर्यतिभिर्नियतेन्द्रियैः। ब्रह्मभूतैर्महाभागैरुपेतं ब्रह्मवादिभिः ।। | 3-147-36a 3-147-36b |
सोऽभ्यगच्छन्महातेजास्तानृषीन्नियतः शुचिः। भ्रातृभिः सहितो धीमान्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।। | 3-147-37a 3-147-37b |
दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते दृष्ट्वा प्राप्तं युधिष्ठिरम्। अभ्यगच्छन्त सुप्रीता दिव्या देवमहर्षयः। | 3-147-38a 3-147-38b |
प्रीतास्ते तस्य सत्कारं विधिना पावकापमाः। उपाजह्रुश्च सलिलं पुष्पमूलफलं शुचि ।। | 3-147-39a 3-147-39b |
स तैः प्रीत्याऽथ सत्कारमुपनीतं महर्षिभिः। प्रयतः प्रतिगृह्याथ धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। | 3-147-40a 3-147-40b |
तं शक्रसदनप्रख्यं दिव्यगन्धं मनोरमम्। प्रीतः स्वर्गोपमं पुण्यं पाण्डवः सह कृष्णया ।। | 3-147-41a 3-147-41b |
रविवेश शोभया युक्तं भ्रातृभिश्च सहानघ। ब्राह्मणैर्वेदवेदाङ्गपारगैश्च सहार्चितः ।। | 3-147-42a 3-147-42b |
तत्रापश्यत्स धर्मात्मा देवदेवर्पिपूजितम्। नरनारायणस्थानं भागीरथ्योपशोभितम् ।। | 3-147-43a 3-147-43b |
तस्मिन्मधृस्रवफलां ब्रह्मर्षिगणभाविनीम्। वदरीं तामुपाश्रित्य पाण्डवो भ्रातृभिः सह ।। | 3-147-44a 3-147-44b |
मुदा युक्ता महात्मानो रेमिरे तत्र ते तदा। आलोकयन्तो मैनाकं नानाद्विजगणायुतम्। हिरण्यशिखरं चैव मध्ये विन्दुसरः शिवम् ।। | 3-147-45a 3-147-45b 3-147-45c |
भागीरथीं सुतीर्थां च शीतामलजलां शिवाम्। मणिप्रवालप्रस्तारां पादपैरुषशोभिताम् ।। | 3-147-46a 3-147-46b |
दिव्यपुष्पसमाकीर्णां मनःप्रीतिविवर्धनीम्। वीक्षमाणा महात्मानो विजह्रुस्तत्र पाण्डवाः ।। | 3-147-47a 3-147-47b |
तस्मिन्देवर्षिचरिते देशे परमदुर्गमे। भागीरथीपुण्यजलेतर्पयांचक्रिरे पितॄन्। देवानृषींश्च कौन्तेयाः परमं शौचमास्थिताः ।। | 3-147-48a 3-147-48b 3-147-48c |
तत्र ते तर्पयन्तश्च जपन्तश्च कुरूद्वहाः। ब्राह्मणैः सहिता वीरा ह्यवसन्पुरुपर्षभाः ।। | 3-147-49a 3-147-49b |
कृष्णायास्तत्रपशय्न्तः क्रीडितान्यमरप्रभाः। विचित्राणि नरव्याघ्रा रेमिरे तत्र पाण्डवाः ।। | 3-147-50a 3-147-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 147 ।। |
3-147-11 वक्ष्यन्ति वहनं करिष्यन्ति ।। 3-147-17 रत्नाकरैः आसमन्तात् युतान् ।। 3-147-22 अभ्याशे समीपे ।। 3-147-27 स्वभावत एव विशेषेण रहिते स्वभावविहिते। जातां बदरीम् ।। 3-147-33 अग्निशरणैः अग्न्यगारैः। आचितं व्याप्तम्। कठिनैः शिक्यैः करण्डैर्वा ।। 3-147-39 सत्कारं चक्रुरिति शेषः ।। 3-147-46 सीतां विमलपङ्कजाम् इति झ. पाठः। सीतां नामतः। प्रस्तारः सोपानपादगणादिरूपः। षट्ट इत्यर्थः ।।
आरण्यकपर्व-146 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-148 |