महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-267
← आरण्यकपर्व-266 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-267 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-268 → |
कोटिकाश्यप्रति द्रौपद्या जननादिस्वीयवृत्तान्तकथनम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-267-1x |
अथाब्रवीद्द्रौपदी राजपुत्री पृष्टा शिबीनां कप्रवरेण तेन। अवेक्ष्य मन्दं प्रविमुच्य शाखां संगृह्णती कौशिकमुत्तरीयम् ।। | 3-267-1a 3-267-1b 3-267-1c 3-267-1d |
बुद्ध्याऽभिजानामि नरेनद्रपुत्र न मादृशी त्वामभिभाष्टुमर्हति। न त्वेह वक्ताऽस्ति तवेह वाक्य- मन्यो नरो वाऽप्यथवाऽपि नारी ।। | 3-267-2a 3-267-2b 3-267-2c 3-267-2d |
एका ह्यहं संप्रति तेन वाचं ददानि वै भद्र निबोध चेदम्। अहं ह्यरण्येकथमेकमेका त्वामालपेयं निरता स्वधर्मे ।। | 3-267-3a 3-267-3b 3-267-3c 3-267-3d |
जानामि च त्वां सुरथस्य पुत्रं यं कोटिकाश्येति विदुर्मनुष्याः। तस्मादहं शैब्य तथैव तुभ्य- माख्यामि बन्धून्प्रथितं कुलं च ।। | 3-267-4a 3-267-4b 3-267-4c 3-267-4d |
अपत्यमस्मि द्रुपदस्य राज्ञः कृष्णेति मां शैब्य विदुर्मनुष्याः। साऽहं वृणे पञ्च जनान्पतित्वे ये खाण्डवप्रस्थगताः श्रुतास्ते ।। | 3-267-5a 3-267-5b 3-267-5c 3-267-5d |
युधिष्ठिरो भीमसेनार्जुनौ च माद्र्याश्च पुत्रौ पुरुषप्रवीरौ। ते मां निवेश्यह दिशश्चतस्रो विबज्य पार्था मृगयां प्रयाताः ।। | 3-267-6a 3-267-6b 3-267-6c 3-267-6d |
प्राचीं राजा दक्षिणां भीमसेनो जयः प्रतीचीं यमजावुदीचीम्। मन्ये तु तेषां रथसत्तमानां कालो बहुः प्राप्ता इहोपयातुम् ।। | 3-267-7a 3-267-7b 3-267-7c 3-267-7d |
संमानिता यास्यथ तैर्यथेष्टं विमुच्य वाहानवरोहयध्वम्। प्रियातिथिर्धर्मसुतो महात्मा प्रीतो भविष्यत्यभिवीक्ष्य युप्मान् ।। | 3-267-8a 3-267-8b 3-267-8c 3-267-8d |
एतावदुक्त्वा द्रुपदात्मजा सा शैव्यात्मजं चन्द्रसुखी प्रतीता। विवेश तां पर्णशालां प्रशस्तां संचिन्त्य तेषामतिथिस्वधर्मम् ।। | 3-267-9a 3-267-9b 3-267-9c 3-267-9d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि द्रौपदीहरणपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 267 ।। |
3-267-2 अभिभाष्टुं अभिभाषितुम्। त्वामपि द्रष्टुमर्हेति ध. पाठः ।। 3-267-3 तेन कारणेन ।। 3-267-7 जयोऽर्जुनः ।।
आरण्यकपर्व-266 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-268 |