महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-302
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सूर्येण हेतुकथनपूर्वकं पुनरिन्द्राय कवचकुण्डलदानप्रतिधोक्तिः ।। 1 ।।
सूर्य उवाच। | 3-302-1x |
माऽहितं कर्ण कार्षीस्त्वमात्मनः सुहृदां तथा। पुत्राणामथ भार्याणामथो मातुरथो पितुः ।। | 3-302-1a 3-302-1b |
शरीरस्याविरोधेन प्राणिनां प्राणभृद्वर। इष्यते यशसः प्राप्तिः कीर्तिश्च त्रिदिवे स्थिरा ।। | 3-302-2a 3-302-2b |
यस्त्वं प्राणविरोधेन कीर्तिमिच्छसि शाश्वतीम्। सा ते प्राणान्समादाय गमिष्यति न संशयः ।। | 3-302-3a 3-302-3b |
जीवतां कुरुते कार्यं पिता माता सुतास्तथा। ये चान्ये बान्धवाः केचिल्लोकेऽस्मिन्पुरुषर्षभ ।। | 3-302-4a 3-302-4b |
राजानश्च नरव्याघ्र पौरुषेण निबोध तत्। कीर्तिश्च जीवतः साध्वी पुरुषस्य महाद्युते ।। | 3-302-5a 3-302-5b |
मृतस्य कीर्त्या किं कार्यं भस्मीभूतस्य देहिनः। मृतः कीर्तिं न जानीते जीवन्कीर्ति समश्नुते ।। | 3-302-6a 3-302-6b |
मृतस्य कीर्तिर्मर्त्यस्य यथा माला गतायुषः। अहं तु त्वां ब्रवीम्येतद्भक्तोसीति हितेप्सया ।। | 3-302-7a 3-302-7b |
भक्तिमन्तो हि मे रक्ष्या इत्येतेनापि हेतुना। भक्तोयं परया भक्त्या मामित्येव महाभुज ।। | 3-302-8a 3-302-8b |
ममापि भक्तिरुत्पन्ना स त्वं कुरु वचो मम। अस्ति चात्र परं किंचिदध्यात्मं देवनिर्मितम्। अतश्च त्वां ब्रवीम्येतत्क्रियतामविशङ्कया ।। | 3-302-9a 3-302-9b 3-300-9c |
देवगुह्यं त्वया ज्ञातुं न शक्यं पुरुषर्षभ। नस्मान्नाख्यामि ते गुह्यं काले वेत्स्यति तद्भवान् ।। | 3-302-10a 3-302-10b |
पुनरुक्तं च वक्ष्यामि त्वं राधेय निबोध तत्। माऽस्मै ते कुण्डले दद्या भिक्षिते वज्रापाणिना ।। | 3-302-11a 3-302-11b |
शोभसे कुण्डलाभ्यां च रुचिराभ्यां महाद्युते। विशाखयोर्मध्यगतः शशीव विमले दिवि ।। | 3-302-12a 3-302-12b |
कीर्तिश्च जीवतः साध्वी पुरुषस्येति विद्धि तत्। प्रत्याख्येयस्त्वया तात कुण्डलार्थे सुरेश्वरः ।। | 3-302-13a 3-302-13b |
`पाण्डवानां हिते युक्तो भिक्षन्ब्राह्मणवेषधृत्'। शक्त्या बहुविधैर्वाक्यैः कुण्डलेप्सा त्वयाऽनघ। विहन्तुं देवराजस् हेतुयुक्तैः पुनःपुनः ।। | 3-302-14a 3-302-14b 3-300-14c |
उपपत्त्युपपन्नार्थैर्माधुर्यकृतभूषणैः। पुरंदरस्य कर्ण त्वं बुद्धिमेतामपानुद ।। | 3-302-15a 3-302-15b |
त्वं हि नित्यं नरव्याघ्र स्पर्धसे सव्यसाचिना। सव्यसाची त्वया चेह युधि शूरः समेष्यति ।। | 3-302-16a 3-302-16b |
न तु त्वामर्जुनः शक्तः कुण्डलाभ्यां समन्वितम्। विजेतुं युधि यद्यस्य स्वयमिन्द्रः शरो भवेत् ।। | 3-302-17a 3-302-17b |
तस्मान्न देये शख्राय त्वयैते कुण्डले शुभे। संग्रामे यदि निर्जेतुं कर्ण कामयसेऽर्जुनम् ।। | 3-302-18a 3-302-18b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 302 ।। |
3-302-4 जीवतां पत्रादीनां कार्यं प्रयोजनं परिष्वङ्गादिजं सुखं पित्रादिः कुरुते लभते ।। 3-302-8 मां मम ।। 3-302-12 विशाखयोः विशाखानक्षत्रस्य द्वे भास्वरे तारे तयोर्मध्ये गतः पूर्णचन्द्रः ।। 3-302-14 विद्वन्तुं शक्येति संबन्धः ।।
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