महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-259
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पाण्डवनिहतभूयिष्ठैर्मृगैर्युधिष्ठिरंप्रति स्वप्ने स्थानान्तरगमनन स्वकुशलशेषीकरणप्रार्थना ।। 1 ।। युधिष्ठिरेण भ्रातृषु स्वीयस्वप्नदर्शनकथनपूर्वकं पुनः काम्यकवनंप्रति गमनम् ।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 3-259-1x |
दुर्योधनं मोक्षयित्वा पाण्डुपुत्रा महाबलाः। किमकार्षुर्वने तस्मिंस्तन्ममाख्यातुमर्हसि ।। | 3-259-1a 3-259-1b |
वैशंपायन उवाच। | 3-259-2x |
ततः शयानं कौन्तेयं रात्रौ द्वैतवन मृगाः। स्वप्नान्ते दर्शयामासुर्बाष्पकण्ठा युधिष्ठिरम् ।। | 3-259-2a 3-259-2b |
तानब्रवीत्स राजेन्द्रो वेपमानान्कृताञ्जलीन्। ब्रूत यद्वक्तुकामाः स्थ के भवन्तः किमिष्यते ।। | 3-259-3a 3-259-3b |
एवमुक्ताः पाण्डवेन कौन्तेयेन यशस्विना। प्रत्यब्रुवन्मृगास्तत्रहतशेषा युधिष्ठिरम् ।। | 3-259-4a 3-259-4b |
वयं मृगा द्वैतवने हतशिष्टास्तु भारत। नोत्सीदेम महाराज क्रियतां वासपर्ययः ।। | 3-259-5a 3-259-5b |
भवन्तो भ्रातरः शूराः सर्व एवास्त्रकोविदाः। कुलान्यल्पावशिष्टानि कृतवन्तो वनौकसाम् ।। | 3-259-6a 3-259-6b |
बीजभूता वयं केचिदवशिष्टा महामते। विवर्धेमहि राजेन्द्र प्रसादात्ते युधिष्ठिर ।। | 3-259-7a 3-259-7b |
तान्वेपमानान्वित्रस्तान्बीजमात्रावशेषितान्। मृगान्दृष्ट्वा सुदुःखार्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः ।। | 3-259-8a 3-259-8b |
तांस्तथेत्यब्रवीद्राजा सर्वभूतहिते रतः। यथा भवन्तो ब्रुवते करिष्यामि च तत्तथा ।। | 3-259-9a 3-259-9b |
इत्येवं प्रतिबुद्धः स रात्र्यन्ते राजसत्तमः। अब्रवीत्सहितान्भ्रातॄन्दयापन्नो मृगान्प्रति ।। | 3-259-10a 3-259-10b |
उक्तो रात्रौ मृगैरस्मि स्वप्नान्ते हतशेषितैः। तनुभूताः स्म भद्रं ते दया नः क्रियतामिति ।। | 3-259-11a 3-259-11b |
ते सत्यमाहुः कर्तव्या दयाऽस्माभिर्वनौकसाम्। साष्टमासं हि नो वर्षं यदेनानुपयुंक्ष्महे ।। | 3-259-12a 3-259-12b |
पुनर्वहुमृगं रम्यं काम्यकं काननोत्तमम्। तत्रेमां वसतिं शिष्टां विहरन्तो रमेमहि ।। | 3-259-13a 3-259-13b |
वैशंपायन उवाच। | 3-259-14x |
ततस्ते पाण्डवाः शीघ्रं प्रययुर्धर्मकोविदाः ।। | 3-259-14a |
ब्राह्मणैः सहिता राजन्ये च तत्रसहोषिताः। इन्द्रसेनादिभिश्चैव प्रेष्यैरनुगतास्तदा ।। | 3-259-15a 3-259-15b |
ते यात्वा सुसुखैर्मार्गैः स्वन्नैः शुचिजलान्वितैः। ददृशुः काम्यकं पुण्यमाश्रमं तापसान्वितम् ।। | 3-259-16a 3-259-16b |
विविशुस्ते स्म कौरव्या वृता विप्रर्षभैस्तदा। तद्वनं भरतश्रेष्ठाः स्वर्गं सुकृतिनो यथा ।। | 3-259-17a 3-259-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मृगस्वप्नोद्भवपर्वणि एकोनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 259 ।। |
3-259-5 वासस्य पर्ययः वैपरीत्य नात्रवस्तव्यमित्यर्थः ।।
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