महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-139
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द्वाररक्षकशूद्रेण निवेदितपुत्रमरणेन भरद्वाजेन रैभ्यस्यापि ज्येष्ठसुतेन हननरूपशापदानम् ।। 1 ।। पुत्रमरणदुःखितेन भरद्वाजेन तद्देहदहनपूर्वकमग्नौ प्रवेशः ।। 2 ।।
लोमश उवाच। | 3-139-1x |
भरद्वाजस्तु कौन्तेय कृत्वा स्वाध्यायमाह्निकम्। समित्कलापमादाय प्रविवेश स्वमाश्रमम् ।। | 3-139-1a 3-139-1b |
तं स्म दृष्ट्वा पुरा सर्वे प्रत्युत्तिष्ठिन्ति पावकाः। न त्वेनमुपतिष्ठन्ति हतपुत्रं तदाऽग्नयः ।। | 3-139-2a 3-139-2b |
वैकृतंत्वग्निहोत्रे स लक्षयित्वा महातपाः। तमन्धं शूद्रमासीनं गृहपालमथाब्रवीत् ।। | 3-139-3a 3-139-3b |
किंनु मे नाग्नयः शूद्र प्रतिनन्दन्ति दर्शनम्। त्वं चापि न यथापूर्वं कच्चित्क्षेममिहाश्रमे ।। | 3-139-4a 3-139-4b |
कच्चिन्न रैभ्यं पुत्रो मे गतवानल्पचेतनः। एतदाचक्ष्व मे शीघ्रं न हि शुद्ध्यति मे मनः ।। | 3-139-5a 3-139-5b |
शूद्र उवाच। | 3-139-6x |
रैभ्यं यातो नूनमयं पुत्रस्ते मन्दचेतनः। तथाहि निहतः शेते राक्षसेन महात्मना ।। | 3-139-6a 3-139-6b |
प्रकाल्यमानस्तेनायं शूलहस्तेन रक्षसा। अग्न्यगारं प्रतिद्वारि मया दोर्भ्यां निवारितः ।। | 3-139-7a 3-139-7b |
ततः स विहताशोऽत्रजलकामोशुचिर्ध्रुवम्। निहतः सोऽतिवेगेन शूलहस्तेन रक्षसा ।। | 3-139-8a 3-139-8b |
लोमश उवाच। | 3-139-8x |
भरद्वाजस्तु तच्छ्रुत्वा शूद्रस्य विप्रियं महत्। गतासुं पुत्रमादाय विललाप सुदुःखितः ।। | 3-139-9a 3-139-9b |
भरद्वाज उवाच। | 3-139-10x |
रब्राह्मणानां किलार्थाय ननु त्वं तप्तवांस्तपः। द्विजानामनधीता वै वेदाः संप्रतिभान्त्विति ।। | 3-139-10a 3-139-10b |
तथा कल्याणशीलस्त्वं ब्राह्मणेषुमहात्मसु। अनागाः सर्वभूतेषु कर्कशत्वमुपेयिवान् ।। | 3-139-11a 3-139-11b |
प्रतिषिद्धो मया तात रैभ्यावसथदर्शनात्। गतवानेव तं क्षुद्रं कालान्तकयमोपमम् ।। | 3-139-12a 3-139-12b |
यः स जानन्महातेजा वृद्धस्यैकं ममात्मजम्। गतवानेव कोपस्य वशं परमदुर्मतिः ।। | 3-139-13a 3-139-13b |
पुत्रशोकमनुप्राप्त एष रैभ्यस्य कर्मणा। त्यक्ष्यामि त्वामृतेपुत्र प्राणानिष्टतमान्भुवि ।। | 3-139-14a 3-139-14b |
यथाऽहं पुत्रशोकेन देहं त्यक्ष्यामि किल्विषी। तथा ज्येष्ठः सुतो रैभ्यं हिंस्याच्छीघ्रमनागसम् ।। | 3-139-15a 3-139-15b |
सुखिनो वै नरा येषां जाया पुत्रो न विद्यते। ये पुत्रशोकमप्राप्य विचरन्ति यथासुखम् ।। | 3-139-16a 3-139-16b |
ये तु पुत्रकृताच्छोकाद्भृशं व्याकुलचेतसः। शपन्तीष्टान्सखीनार्तास्तेभ्यः पापतरो नु कः ।। | 3-139-17a 3-139-17b |
परासुश्च सुतो दृष्टः शप्तश्चैष्टः सखा मया। ईदृशीमापदं कोत्र द्वितीयोऽनुविष्यति ।। | 3-139-18a 3-139-18b |
लोमश उवाच। | 3-139-19x |
विलप्यैवं बहुविधं भरद्वाजोऽदहत्सुतम्। सुसमिद्धं ततः पश्चात्प्रविवेश हुताशनम् ।। | 3-139-19a 3-139-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 139 ।। |
3-139-1 आह्निकं स्वाध्यायं प्रत्यहं कर्तव्यं ब्रह्मयज्ञम् ।। 3-139-2 हतपुत्रत्वेन आशौचयुक्तत्वात् ।। 3-139-5 शुद्ध्यति निःसंदेहं भवति ।। 3-139-7 अग्न्यगारं प्रविष्टस् रक्षोभयं न भवेदिति ।। 3-139-9 शूद्रस्य शूद्रकृतं विप्रियं पुत्रनिरोधेन कृतम् ।। 3-139-15 किल्विषी शोकाकान्तः ।।
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