महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-130
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युधिष्ठिरेण मार्कण्डेयाश्रमगमनम् ।। 1 ।। लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति संग्रहेण मार्कण्डेयचरित्रकथनम् ।। 2 ।।
`वैशंपायन उवाच। | 3-130-1x |
सोमकस्याश्रमे पुण्ये धर्मराजो युधिष्ठिरः। षड्रात्रमुष्य नियतो भ्रात्रादिभिररिंदमः। तस्मान्निर्गम्य सहसा दिशं प्रायात्तथोत्तराम् ।। | 3-130-1a 3-130-1b 3-130-1c |
बहुदूरं ततो गत्वा वनं तत्र मनोहरम्। बहुपष्पफलाकीर्णं महानद्युपशोभितम् ।। | 3-130-2a 3-130-2b |
दृष्ट्वा पप्रच्छ राजाऽसौ लोमशं मुनिसत्तमम्। किमिदं दृश्यते रम्यं वनं बहुमृगद्विजम् ।। | 3-130-3a 3-130-3b |
बहुपुष्पफलोपेतं मुनिसङ्घैर्निषेवितम्। स्रवन्त्या च समायुक्तं महत्या पुण्यतोयया ।। | 3-130-4a 3-130-4b |
ऋषीणामाश्रमाः पुण्या दृश्यन्ते विविधा मुने। कस्यायमाश्रमः पुण्यः कस्येमे मुनयोऽमलाः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं वद त्वं वदतांवर ।। | 3-130-5a 3-130-5b 3-130-5c |
लोमश उवाच। | 3-130-6x |
शृणु राजेनद्र भद्रं ते वनस्यास्य पुरातनम्। वृत्तान्तं निखिलेनाद्य प्रोच्यमानं मयाऽनघ ।। | 3-130-6a 3-130-6b |
मृकण्डुपुत्रो मेधावी मार्कण्डेयो महामुनिः। बाल एव महाबुद्धिः सर्वविद्याविशारदः ।। | 3-130-7a 3-130-7b |
मातापित्रोः प्रियं कुर्वंस्तपोर्थं वनमाविशत्। अत्राश्रमपदं कृत्वा तपस्तेपे सुदारुणम् ।। | 3-130-8a 3-130-8b |
ग्रीष्मे पञ्चतपा भूत्वा वर्षास्वाकाशसंश्रयः। जलस्थः शिशिरे योगी बहुकालमवर्तत ।। | 3-130-9a 3-130-9b |
ऊर्ध्वबाहुर्निरालम्बः पादाङ्गुष्ठाग्रविष्ठितः। जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिन्तयन्दृढमव्ययम्। अनाहारो जितक्रोधश्चिरमेवमवर्तत ।। | 3-130-10a 3-130-10b 3-130-10c |
एतस्मिन्नन्तरे राजन्ननावृष्टिः सुदारुणा। संभूता सर्वसंहर्त्री तया दग्धं चराचरम् ।। | 3-130-11a 3-130-11b |
अनावृष्ट्यां प्रवृत्तायां सर्वे च निधनं गताः। केचिदन्ये महात्मानो मुनयो द्विजपुङ्गवाः ।। | 3-130-12a 3-130-12b |
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा सर्वाश्च योषितः। पशुपक्षिमृगाः सर्वे क्षुत्पिपासासमाकुलाः। कृशाः शुष्कोष्ठकण्ठाश्च श्रान्ता भ्रान्ता विचेतसः ।। | 3-130-13a 3-130-13b 3-130-13c |
केनचित्पुण्यशेषेण मार्कण्डेयस्य धीमतः। आश्रमं शनकैः प्राप्ता मूर्च्छिताः सहसाऽपतन् ।। | 3-130-14a 3-130-14b |
समाधिविरतो योगी मार्कण्डेयो महातपाः। तद्वनं निबिडं दृष्ट्वा जनैः क्षुत्तृट्समाकलैः ।। | 3-130-15a 3-130-15b |
दयार्द्रहृदयो योगी शिवं ध्यात्वा हृदम्बुजे। तेषां संरक्षणार्थाय वेदगन्धिस्वरेण सः। आजुहाव तदा गङ्गां तपोयोगेन भारत ।। | 3-130-16a 3-130-16b 3-130-16c |
गङ्गा समागता शीघ्रं तेनाहूताऽतिपावना। नाम्ना वेदनदीत्येव प्रख्याता लोकपावना ।। | 3-130-17a 3-130-17b |
पर्जन्यश्च समाहूतः सुखं वर्षति भारत। सस्यानि च समृद्धानि फलमूलान्यनेकशः। संभूतान्यत्रराजेनद्र सर्वे ते रक्षिता जनाः ।। | 3-130-18a 3-130-18b 3-130-18c |
मार्कण्डेयं प्रशंसन्तो जनाः सर्वे द्विजात्तयः। चिरं सुखमवर्तन्त तेन संरक्षिता नृप ।। | 3-130-19a 3-130-19b |
एवं विधाय रक्षां स सर्वेषां पुण्यकर्मणाम्। पुनश्चचार च तपः परमेश्वरतुष्टये ।। | 3-130-20a 3-130-20b |
एवं बहुतिथे काले प्रादुरासीन्महेश्वरः ।। | 3-130-21a |
दृष्ट्वा च सर्वदेवेशं चन्द्रमौलिमुमापतिम्। ब्रह्मविष्ण्वादिभिर्देवैः सिद्धविद्याधरोरगैः ।। | 3-130-22a 3-130-22b |
गन्धर्वयक्षप्रवरैः सकिन्नरपतत्रिभिः। स्तूयमानं महादेवमव्ययं निष्कलं शिवम्। प्रणनाम मुनिर्भक्त्या साष्टाङ्गं च पुनः पुनः ।। | 3-130-23a 3-130-23b 3-130-23c |
प्रणम्योत्थाय सहसा बद्धाञ्जलिपुटो मुनिः। तुष्टाव विविधैः स्तोत्रैर्महादेवं जगत्पतिम् ।। | 3-130-24a 3-130-24b |
तमुवाच महादेवो मार्कण्डेयं महामुनिम्। वरं वरय भद्रं ते वरदोस्मि मुने तव ।। | 3-130-25a 3-130-25b |
एवं संबोधितस्तेन शिवेन परमात्मना। सगद्गदमिदं वाक्यमुवाच परमेश्वरम् ।। | 3-130-26a 3-130-26b |
नान्यं वरं वृणे शंभो ---त्वत्पादपङ्कजे। भक्तिंह्यनन्यसुलभां स्व व्यभिचारिणीम् ।। | 3-130-27a 3-130-27b |
एवमुक्तोऽथ मुनिना भरतगीश्वरेश्वरः। पुनरेवाब्रवीद्वाक्यं मार्कण्डेय महामुनिम् ।। | 3-130-28a 3-130-28b |
सम्यगाराधितः पित्रा तव पुत्रार्थमादरात् ।। | 3-130-29a |
शतायुर्निर्गुणः पुत्रः शुभः षोडशवार्षिकः। उभयोरन्यमिच्छ त्वमित्युक्तः सोऽब्रवीच्च माम् ।। | 3-130-30a 3-130-30b |
निर्गुणो मास्तु देवेश शतायुः षोडशाब्दकः। सुगुणोऽस्तु सुतो मेऽद्य इति पित्रावृत पुरा ।। | 3-130-31a 3-130-31b |
त्वया तप्तेन तपसा तोषितोऽहं भृशं मुने। दीर्घमायुर्मया दत्तं मृत्युश्च प्रतिषेधितः ।। | 3-130-32a 3-130-32b |
इत्युक्त्वा भगवानीशस्तत्रैवान्तरधीयत। तस्यायमाश्रमः पुण्यस्तस्येमे मुनयोऽमलाः ।। | 3-130-33a 3-130-33b |
अत्रैकरात्रमुषिताः सर्वे मृत्युं तरन्ति वै। अत्रैव भरतश्रेष्ठ प्रयतो वस भूमिप' ।। | 3-130-34a 3-130-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 130 ।। |
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