महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-212
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कौशिकंप्रतिधर्मव्याधेन सर्वैहिंसाया दुस्त्यजत्वोपपादनपूर्वकं सर्ववर्णानां स्वस्वधर्मानुहानस्य श्रेयःसाधात्वादिकथनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-212-1x |
स तु विप्रमथोवाच धर्मव्याधो युधिष्ठिर। यदहं ह्याचरे कर्म घोरमेतदसंशयम् ।। | 3-212-1a 3-212-1b |
विधिस्तु बलवान्ब्रह्मन्दुस्तरं हि पुरा कृतम्। पुरा कृतस् पापस्य कर्मदोषो भवत्ययम् ।। | 3-212-2a 3-212-2b |
दोपस्यैतस्य वै ब्रह्मन्विघाते यत्नवानहम्। विधिना हि हते पूर्वं निमित्तं घातको भवेत् ।। | 3-212-3a 3-212-3b |
निमित्तभूता हि वयं कर्मणोऽस्य द्विजोत्तम ।। | 3-212-4a |
येषां हतानां मांसानि विक्रीणीमो वयं द्विज। तेषामपि भवेद्धर्म उपयोगेन भक्षणात्। देवतातिथिभृत्यानां पितृणां चापि पूजनात् ।। | 3-212-5a 3-212-5b 3-212-5c |
ओषध्यो वीरुधश्चैव पशवो मृगपक्षिणः। अन्नाद्यभूता लोकस्य इत्यपि श्रूयते श्रुतिः ।। | 3-212-6a 3-212-6b |
आत्ममांसप्रसादेन शिबिरौशीनरो नृपः। स्वर्गं सुदुर्लभं प्राप्तः क्षमावान्द्विजसत्तम ।। | 3-212-7a 3-212-7b |
राज्ञो महानसे पूर्वं रन्तिदेवस्य वै द्विज। [द्वे सहस्रे तु पच्छेते पशूनामन्वहं तदा।] अहन्यहनि पच्येते द्वे सहस्रे गवां तथा ।। | 3-212-8a 3-212-8b 3-212-8c |
स मासं ददतो ह्यन्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः। अतुला कीर्तिरभवन्नृपस्य द्विजसत्तम ।। | 3-212-9a 3-212-9b |
चातुर्मास्ये च पशवो वध्यन्त इति नित्यशः। अग्नयो मांसकामाश्चइत्यपि श्रूयते श्रुतिः ।। | 3-212-10a 3-212-10b |
यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन्वध्यन्ते सततं द्विजैः। संस्कृताः किल मन्त्रैश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नुवन् ।। | 3-212-11a 3-212-11b |
यदि नैवाग्नयो ब्रह्मन्मांसकामाऽभवन्पुरा। भक्ष्यं नैवाभवन्मांसं कस्यचिद्द्विजसत्तम ।। | 3-212-12a 3-212-12b |
अत्रापि विधिरुक्तश् मुनिभिर्मांसभक्षणे ।। | 3-212-13a |
देवतानां पितृणां च शुङ्क्ते दत्त्वाऽपियः सदा। यथाविधि यथाश्रद्धं न स दुष्येत भक्षणात् ।। | 3-212-14a 3-212-14b |
अमांसाशी भवत्येवमित्यपि श्रूयते श्रुतिः। भार्यां गच्छन्ब्रह्मचारी ऋतौ भवति ब्राह्मणः ।। | 3-212-15a 3-212-15b |
सत्यानृते विनिश्चित्य अत्रापि विधिरुच्यते। सौदासेन तदा राज्ञा मानुषा भक्षिता द्विज। शापाभिभूतेन भृशमत्र किं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-16a 3-212-16b 3-212-16c |
स्वधर्म इतिकृत्वा तु न त्यजामि द्विजोत्तम। पुरा कृतमिति ज्ञात्वा रजीवाम्येतेन कर्मणा ।। | 3-212-17a 3-212-17b |
स्वधर्मं त्यजतो ब्रह्मन्नधर्म इह दृश्यते। स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्मः स इति निश्चयः ।। | 3-212-18a 3-212-18b |
कुले हि विहितं कर्म देही तं न विमुञ्चति। धात्रा विधिरयं दृष्टो बहुधा कर्मनिर्मये ।। | 3-212-19a 3-212-19b |
द्रष्टव्यस्तु भवेद्ब्रह्मन्धर्मो धर्मविनिश्चये। कथं कर्म शुभं कुर्यां कथं मुच्ये पराभवात् ।। | 3-212-20a 3-212-20b |
कर्मणस्तस्य घोरस् वसुधा निर्णयो भवेत्। दाने च सत्यवाक्ये च गुरुशुश्रूणे तथा। द्विजातिपूजने चाहं धर्मे च निरतः सदा ।। | 3-212-21a 3-212-21b 3-212-21c |
अतिमानातिवादाभ्यां निवृत्तोस्मि द्विजोत्तम। कृषिं साध्वीति मन्यन्ते तत्र हिंसा परा स्मृता ।। | 3-212-22a 3-212-22b |
कर्षन्तो लाङ्गलैरुर्वीं घ्नन्ति भूमिशयान्बहून्। जीवानन्यांश्च बहुशस्तत्रकिं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-23a 3-212-23b |
धान्यबीजानि यान्याहुर्व्रीह्यादीनि द्विजोत्तम। सर्वाण्येतानि जीवा हि तत्र किं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-24a 3-212-24b |
अध्याक्रम् पशूंश्चापि घ्नन्ति वै भक्षयन्ति च। वृक्षांस्तथौषधीश्चापि छिन्दन्ति पुरुषा द्विज ।। | 3-212-25a 3-212-25b |
जीवा हि बहवो ब्रह्मन्वृक्षेषु च फलेषु च। उदके बहवश्चापि तत्रकिं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-26a 3-212-26b |
सर्वं व्याप्तमिदं ब्रह्मन्प्राणिभिः प्राणिजीवनैः। मत्स्यान्ग्रसन्ते मत्स्याश्च तत्रकिं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-27a 3-212-27b |
सत्वैः सत्वानि जीवन्ति बहुधा द्विजसत्तम। प्राणिनोऽन्योन्यभक्षाश्च तत्रकिं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-28a 3-212-28b |
चङ्क्रम्यमाणा जीवांश्च धरणीसंश्रितान्बहून्। पद्भ्यां घ्नन्ति नरा विप्र तत्र किं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-29a 3-212-29b |
उपविष्टाः शयानाश्च घ्नन्ति जीवाननेकशः। अज्ञानादथवा ज्ञानात्तत्रकिं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-30a 3-212-30b |
जीवैर्ग्रस्तमिदं सर्वमाकाशं पृथिवी तथा। अविज्ञानाच्च हिंसन्ति तत्र किं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-31a 3-212-31b |
अहिंसेति यदुक्तं हि पुरुषैर्विस्मितैः पुरा। के न हिंसन्ति जीवान्वै लोकेऽस्मिन्द्विजसत्तम् ।। | 3-212-32a 3-212-32b |
बहु संचिन्त्य इह वै नास्ति कश्चिदहिंसकः ।। | 3-212-33a |
अहिंयासां तु निरता यतयो द्विजसत्तम। कुर्वन्त्येव हि हिंसां ते यत्नादल्पतरा भवेत् ।। | 3-212-34a 3-212-34b |
आलक्ष्याश्चैव पुरुषाः कुले जाता महागुणाः। महाघोराणि कर्माणि कृत्वा लज्जन्ति वै न च ।। | 3-212-35a 3-212-35b |
सुहृदः सुहृदोऽन्यांस्च दुर्हृदश्चापि दुर्हृदः। सम्यक्प्रवृत्तान्पुरुषानन सम्यगनुपश्यति ।। | 3-212-36a 3-212-36b |
समृद्धैश्चन नन्दन्ति बान्धवा बान्धवैरपि। गुरूंश्चैव विनिदन्ति मूढा निश्चितमानिनः ।। | 3-212-37a 3-212-37b |
बहु लोके विपर्यस्तं दृश्यते द्विजसत्तम। धर्मयुक्तमधर्मं च तत्र किं प्रतिभाति ते ।। | 3-212-38a 3-212-38b |
वक्तुं बहुविधं शक्यं धर्माधर्मेषु कर्मसु। स्वकर्मनिरतो यो हि स यशः प्राप्नुयान्महत् ।। | 3-212-39a 3-212-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 212 ।। |
3-212-1 एतन्मांसविक्रयात्मकम् ।। 3-212-3 यत्नवानपि न परिहर्तुं शक्नोमि। विधेः प्राबल्यादित्यर्थः ।। 3-212-4 शरवन्निमित्तभूता वयं संधातृकत्कर्ता तु विधिरेवेत्यर्थः ।। 3-212-6 अन्नाद्यभूताः अन्नं च तदद्यं च भोग्यं भक्ष्यं चेत्यर्थः ।। 3-212-15 यज्ञियमांसभुजोऽपि ऋतुगामिनो ब्रह्मचर्यमिव औपचारिकममांसाशित्वमिति भावः ।। 3-212-20 द्रष्टव्या तु भवेत्प्रज्ञा क्रूरे कर्मणि वर्तता इति झ. पाठः ।
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