महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-167
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इन्द्रेण सभ्रातृकं युधिष्ठिरमेत्य जयाशीः संसनपूर्वकं पुनः स्वर्गंप्रति गमनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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वैशंपायन उवाच। | 3-167-1x |
[ततो रजन्यां व्युष्टायां धर्मराजं युधिष्ठिरम्। भ्रातृभिः सहितः सर्वैरवन्दत धनंजयः ।।] | 3-167-1a 3-167-1b |
एतस्मिन्नेव काले तु सर्ववादित्रनिःखनः। बभूव तुमुलः शब्दस्त्वन्तरिक्षे दिवौकसाम् ।। | 3-167-2a 3-167-2b |
रथनेमिखनश्चैव घण्टाशब्दश्च भारत। पृथग्व्यालमृगाणां च पक्षिणां चैव सर्वशः ।। | 3-167-3a 3-167-3b |
`रवोन्मुखास्ते ददृशुः प्रीयमाणाः कुरूद्वह। मरुद्भिरन्वितं शक्रमापतन्तं विहायसा' ।। | 3-167-4a 3-167-4b |
ते समन्तादनुययुर्गन्धर्वाप्सरसस्तथा। विमानैः सूर्यसंकाशैर्देवराजमरिंदमम् ।। | 3-167-5a 3-167-5b |
ततः स हरिभिर्युक्तं जाम्बूनदपरिष्कृतम्। मेघनादिनमारुह्य श्रिया परमया ज्वलन् ।। | 3-167-6a 3-167-6b |
पार्थानभ्याजपामाशु देवराजः पुरंदरः। आगत्य च सहस्राक्षो रथादवरुरोह वै ।। | 3-167-7a 3-167-7b |
तं दृष्ट्वैव महात्मानं धर्मराजो युधिष्ठिरः। भ्रातृभिः सहितः श्रीमान्देवराजमुपागमत् ।। | 3-167-8a 3-167-8b |
पूजयामास चैवाथ विधिवद्भूरिदक्षिणः। यथार्हममितात्मानं विधिदृष्टेन कर्मणा ।। | 3-167-9a 3-167-9b |
धनंजयश्च तेजस्वी प्रणिपत्य पुरंदरम्। भृत्यवत्प्रणतस्तस्थौ देवराजसमीपतः ।। | 3-167-10a 3-167-10b |
आघ्राय तं महातेजाः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। धनंजयभिप्रेक्ष्यविनीतं स्थितमन्तिके ।। | 3-167-11a 3-167-11b |
जटिलं देवराजस्य तपोयुक्तमकल्मषम्। हर्षेण महताऽऽविष्टः फल्गुनस्याथ दर्शनात्। बभूव परमप्रीतो देवराजं च पूजयन् ।। | 3-167-12a 3-167-12b 3-167-12c |
तं तथाऽदीनमनसं राजानं हर्,संप्लुतम्। उवाच वचनं धीमान्धर्मराजं पुरंदरः ।। | 3-167-13a 3-167-13b |
त्वमिमां पृथिवीं राजन्प्रशासिष्यसि पाण्डव। स्वस्ति प्राप्नुहि कौन्तेय काम्यकं पुनराश्रमम् ।। | 3-167-14a 3-167-14b |
अस्त्राणि लब्धानि च पाण्डवेन सर्वाणि मत्तः प्रयतेन राजन्। कृतप्रियश्चास्मि धनंजयेन जेतुं न शक्यस्त्रिभिरेष लोकैः ।। | 3-167-15a 3-167-15b 3-167-15c 3-167-15d |
एवमुक्त्वा सहस्राक्षः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्। जगाम त्रिदिवं हृष्टः स्तूयमानो महर्षिभिः ।। | 3-167-16a 3-167-16b |
धनेश्वरगृहस्थानां पाण्डवानां समागमम्। शक्रेण य इदं विद्वानधीयीत समाहितः ।। | 3-167-17a 3-167-17b |
संवत्सरं ब्रह्मचारी नियतः संशितव्रतः। स जीवेद्धि निराबाधः सुसुखी शरदां शतम् ।। | 3-167-18a 3-167-18b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 167 |
3-167-3 भुजङ्गव्याघ्रसिंहानां इति थ. पाठः ।। 3-167-6 हरिभिर्युक्तं रथम् ।। 3-167-9 अमितात्मा अमितबुद्धिः ।। 3-167-15 कृतप्रियः शत्रुवधेन। सर्वाणि भत्तो गिरिशाच्च देवात् इति थ. पाठः ।।
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