महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-083
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नारदेन युधिष्ठिरंप्रति भीष्माय पुलस्त्योदिततीर्थमहिमानुवादपूर्वकमिष्टदेशगमनम् ।। 1 ।।
अथ सन्ध्यां समासाद्य संवेद्ये तीर्थ उत्तमे। उपस्पृश्य नरो विद्यां लभते नात्र संशयः ।। | 3-83-1a 3-83-1b |
रामस्य च प्रसादेन तीर्थं राजन्कृतं पुरा। तल्लौहित्यं समासाद्य विन्द्याद्बहु सुवर्णकम् ।। | 3-83-2a 3-83-2b |
करतोयां समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। अश्वमेधमवाप्नोति प्रजापतिकृतो विधिः ।। | 3-83-3a 3-83-3b |
गङ्गायास्तत्र राजेन्द्र सागरस्य च सङ्गमे। अश्वमेधं दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिणः ।। | 3-83-4a 3-83-4b |
गङ्गायास्त्वपरं पारं प्राप्य यः स्नाति मानवः। त्रिरात्रमुषितो राजन्सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।। | 3-83-5a 3-83-5b |
ततो वैतरणीं गत्वा सर्वपापप्रमोचनीम्। विरजातीर्थमासाद्य विराजति यथा शशी ।। | 3-83-6a 3-83-6b |
प्रभवेच्च कुले पुण्ये सर्वपापं व्यपोहति। गोसहस्रफंल लब्ध्वा रपुनाति स्वकुलं नरः ।। | 3-83-7a 3-83-7b |
शोणस्य ज्योतिरथ्यायाः संगमे नियतः शुचिः। तर्पयित्वा पितॄन्देवानग्निष्टोमफलं लभेत् ।। | 3-83-8a 3-83-8b |
शोणस्य नर्मदायाश् प्रभेदे कुरुनन्दन। वंशगुल्म उपस्पृश्य वाचजिमेधफलं लभेत् ।। | 3-83-9a 3-83-9b |
वाजपेयमवाप्नोति त्रिरात्रोपोषितो नरः। गोसहस्रफलं विन्द्यात्कुलं चैव समुद्धरेत् ।। | 3-83-10a 3-83-10b |
कोसलां तु समासाद्य कालतीर्थमुपस्पृशेत्। वृषभैकादशफलं लभते नात्र संशयः ।। | 3-83-11a 3-83-11b |
पुष्पवत्यामुपस्पृश्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। गोसहस्रफलं लब्ध्वा पुनाति स्वकुलं नृप ।। | 3-83-12a 3-83-12b |
ततो बदरिकातीर्थे स्नात्वा भरतसत्तम। दीर्घमायुरवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति ।। | 3-83-13a 3-83-13b |
तथा चम्पां समासाद्य भागीरथ्यां कृतोदकः। दण्डाख्यमभिगम्यैव गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-14a 3-83-14b |
लपेटिकां ततो गच्छेत्पुण्यां पुण्योपशोभिताम्। वाजपेयमवाप्नोति देवैः सर्वैश्च पूज्यते ।। | 3-83-15a 3-83-15b |
ततो महेन्द्रमासाद्य जामदग्न्यनिपेवितम्। रामतीर्थे नरः स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत् ।। | 3-83-16a 3-83-16b |
मतङ्गस्य तु केदारस्तत्रैव कुरुनन्दन। तत्र स्नात्वा कुरुश्रेष्ठ गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-17a 3-83-17b |
श्रीपर्वतं समासाद्य नदीतीरमुपस्पृशेत्। रअश्वमेधमवाप्नोति पूजयित्वा वृषध्वजम् ।। | 3-83-18a 3-83-18b |
श्रीपर्वते महादेवो देव्या सह महाद्युतिः। न्यवसत्परमप्रीतो ब्रह्मा च त्रिदशैः सह ।। | 3-83-19a 3-83-19b |
तत्र देवह्रदे स्नात्वा शुचिः प्रयतमानसः। अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् ।। | 3-83-20a 3-83-20b |
ऋषभं पर्वतं गत्वा पाण्ड्येषु नृपपूजितम्। वाजपेयमवाप्नोति नाकपृष्ठे च मोदते ।। | 3-83-21a 3-83-21b |
ततो गच्छेत कावेरीं वृतामप्सरसां गणैः। तत्रस्नात्वा नरो राजन्गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-22a 3-83-22b |
ततस्तीरे समुद्रस्य कन्यातीर्थमुपस्पृशेत्। तत्तोयं स्पृश्य राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। | 3-83-23a 3-83-23b |
अथ गोकर्णमासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। समुद्रमध्ये राजेन्द्र सर्वलोकनमस्कृतम् ।। | 3-83-24a 3-83-24b |
रयत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः। भूतयक्षपिशाचाश्च किन्नराः समहोरगाः ।। | 3-83-25a 3-83-25b |
सिद्धचारणगन्धर्वमानुषाः पन्नगास्तथा। सरितः सागराः शैला उपासन्त उमापतिम् ।। | 3-83-26a 3-83-26b |
तत्रेशानं समभ्यर्च्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। अश्वमेधमवाप्नोति गाणपत्यं च विन्दति ।। | 3-83-27a 3-83-27b |
उष्य द्वादशरात्रं तु पूतात्मा च भवेन्नरः ।। | 3-83-28a |
तत एव च गायत्र्याः स्थानं त्रैलोक्यपूजितम्। त्रिरात्रमुषितस्तत्र गोसहस्रफलं लभेत्। निदर्शनं च प्रत्यक्षं ब्राह्मणानां नराधिप ।। | 3-83-29a 3-83-29b 3-83-29c |
गायत्रीं पठते यस्तु योनिसंकरजस्तथा। गाथा च गाथिका चापि तस्य संपद्यते नृप ।। | 3-83-30a 3-83-30b |
अब्राह्मणस्य सावित्रीं पठतस्तु प्रणश्यति ।। | 3-83-31a |
संवर्तस्य तु विप्रर्षेर्वापीमासाद्य दुर्लभाम्। रूपस्य भागी भवति सुभगश्च प्रजायते ।। | 3-83-32a 3-83-32b |
ततो वेणां समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। मयूरहंससंयुक्तं विमानं लभते नरः ।। | 3-83-33a 3-83-33b |
ततो गोदावरीं प्राप्य नित्यं सिद्धनिषेविताम्। गवां मेधमवाप्नोति वासुकेर्लोकमुत्तमम् ।। | 3-83-34a 3-83-34b |
वेणायाः संगमे स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत्। वरदासंगमे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-35a 3-83-35b |
ब्रह्मस्थानं समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। गोसहस्रफलं विन्द्यात्स्वर्गलोकं च गच्छति ।। | 3-83-36a 3-83-36b |
कुशप्लवनमासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः। त्रिरात्रमुषितः स्नात्वा अश्वमेधफलं लभेत् ।। | 3-83-37a 3-83-37b |
ततो देवह्रदेऽरण्ये कृष्णवेणाजलोद्भवे। जातिस्मरह्रदे स्नात्वा भवेज्जातिस्मरो नरः। यत्र क्रतुशतैरिष्ट्वा देवराजो दिवं गतः ।। | 3-83-38a 3-83-38b 3-83-38c |
अग्निष्टोमफलं विन्द्याद्गमनादेव भारत। ततः सर्वह्रदे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-39a 3-83-39b |
ततो वापीं महापुण्यां पयोष्णीं सरितां वराम्। पितृदेवार्चनरतो गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-40a 3-83-40b |
दण्डकारण्यमासाद्य पुण्यं राजन्नुपस्पृशेत्। गोसहस्रफलं तस्य स्नातमात्रस्य भारत ।। | 3-83-41a 3-83-41b |
शरभङ्गाश्रमं गत्वा शुकस्य च महात्मनः। न दुर्गतिमवाप्नोति पुनाति च कुलं नरः ।। | 3-83-42a 3-83-42b |
ततः शूर्पारकं गच्छेज्जामदग्न्यनिषेवितम्। रामतीर्थे नरः स्नात्वा विन्द्याद्बहु सुवर्णकम् ।। | 3-83-43a 3-83-43b |
सप्तगोदावरे स्नात्वा नियतो नियताशनः। महत्पुण्यमवाप्नोति देवलोकं च गच्छति ।। | 3-83-44a 3-83-44b |
ततो देवपथं गत्वा नियतो नियताशनः। देवसत्रस्य यत्पुण्यं तदेवाप्नोति मानवः ।। | 3-83-45a 3-83-45b |
तुङ्गकारण्यमासाद्य ब्र्हमचारी जितेन्द्रियः। वेदानध्यापयत्तत्र ऋषिः सारस्वतः पुरा ।। | 3-83-46a 3-83-46b |
तत्र वेदेषु नष्टेषु मुनेरङ्गिरसः सुतः। ऋषीणआमुत्तरीयेषु सूपविष्टो यथासुखम् ।। | 3-83-47a 3-83-47b |
ओंकारेण यथान्यायं सम्यगुच्चारितेन ह। येन यत्पूर्वमभ्यस्तं तत्सर्वं समुपस्थितम् ।। | 3-83-48a 3-83-48b |
ऋषयस्तत्र देवाश्च वरुणोऽग्निः प्रजापतिः। हरिर्नारायणस्तत्र महादेवस्तथैव च ।। | 3-83-49a 3-83-49b |
पितामहश्च भगवान्देवैः सह महाद्युतिः। भृगुं नियोजयामास याजनार्थे महाद्युतिम् ।। | 3-83-50a 3-83-50b |
ततः स चक्रे भगवानृषीणां विधिवत्तदा। सर्वेषां पुनराधानं विधिदृष्टेन कर्मणा ।। | 3-83-51a 3-83-51b |
आज्यभागेन तत्राग्नीं तर्पयित्वा यथाविधि। देवाः स्वभवनं याता ऋषयश्च यथाक्रमम् ।। | 3-83-52a 3-83-52b |
तदरण्यं प्रविष्टस्य तुङ्गकं राजसत्तम। पापं प्रणश्यत्यखिलं स्त्रिया वा पुरुषस्य वा ।। | 3-83-53a 3-83-53b |
तत्रमासं वसेद्धीरो नियतो नियताशनः। ब्रह्मलोकं व्रजेद्राजन्कुलं चैव समुद्धरेत् ।। | 3-83-54a 3-83-54b |
मेधाविकं समासाद्य पितॄन्देवांश्च तर्पयेत्। अग्निष्टोममवाप्नोति स्मृतिं मेधां च विन्दति ।। | 3-83-55a 3-83-55b |
अत्र कालञ्जरं गत्वा पर्वतं लोकविश्रुतम्। तत्र देवह्रदे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-56a 3-83-56b |
आत्मानं स्नापयेत्तत्रगिरौ कालञ्जरे नृप। स्वर्गलोके महीयेत नरो नास्त्यत्र संशयः ।। | 3-83-57a 3-83-57b |
ततो गिरिवरश्रेष्ठे चित्रकूटे विशांपते। मन्दाकिनीं समासाद्य सर्वपापप्रणाशिनीम् ।। | 3-83-58a 3-83-58b |
तत्राभिषेकं कुर्वाणः पितृदेवार्चने रतः। अश्वमेधमवाप्नोति गतिं च परमां व्रजेत् ।। | 3-83-59a 3-83-59b |
ततो गच्छेत धर्मज्ञ भर्तृस्थानमनुत्तमम्। यत्र नित्यं महासेनो गुहः सन्निहितो नृप ।। | 3-83-60a 3-83-60b |
तत्र गत्वा नृपश्रेष्ठ गमनादेव सिध्यति। कोटितीर्थे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् ।। | 3-83-61a 3-83-61b |
प्रदक्षिणमुपावृत्य ज्येष्ठस्थानं व्रजेन्नरः। अभिगम्य महादेवं विराजति यथा शशी ।। | 3-83-62a 3-83-62b |
तत्र कूपे महाराज विश्रुता भरतर्षभ। समुद्रास्तत्र चत्वारो निवसन्ति युधिष्ठिर ।। | 3-83-63a 3-83-63b |
तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र पितृदेवार्चने रतः। नियतात्मा नरः पूतो गच्छेत परमां गतिम् ।। | 3-83-64a 3-83-64b |
ततो गच्छेत राजेन्द्र शृङ्गबेरपुरं महत्। यत्रतीर्णो महाराज रामो दाशरथिः पुरा ।। | 3-83-65a 3-83-65b |
रकतस्मिंस्तीर्थे महाबाहो स्नात्वा पापैः प्रमुच्यते। गङ्गायां तु नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी समाहितः ।। | 3-83-66a 3-83-66b |
विधूतपाप्मा भवति वाजपेयं च विन्दति। ततो मुञ्जवटं गच्छेत्स्थानं देवस्य धीमतः ।। | 3-83-67a 3-83-67b |
अभिगम्य महादेवमभिवाद्य च भारत। प्रदक्षिणमुपावृत् यगाणपत्यमवाप्नुयात् ।। | 3-83-68a 3-83-68b |
तस्मिंस्तीर्थे तु जाह्नव्यां स्नात्वा पापैः प्रमुच्यते। ततो गच्छेत राजेन्द्र प्रयागमृषिसंस्तुतम् ।। | 3-83-69a 3-83-69b |
यत्र ब्रह्मादयो देवा दिशश्च सदिगीश्वराः। लोकपालाश्च साध्याश्च पितरो लोकसंमताः ।। | 3-83-70a 3-83-70b |
सनत्कुमारप्रमुखास्तथैव परमर्षयः। अङ्गिरःप्रमुखाश्चैव तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ।। | 3-83-71a 3-83-71b |
तथा नागाः सुपर्णश्च सिद्धाश्चक्रचरास्तथा। सरितः सागराश्चैव गन्धर्वाप्सरसोऽपि च ।। | 3-83-72a 3-83-72b |
हरिश्च भगवानास्ते प्रजापतिपुरस्कृतः। तत्र त्रीण्यग्निकुण्डानि येषां मध्येन जाह्नवी ।। | 3-83-73a 3-83-73b |
प्रयागादभिनिष्क्रान्ता सर्वतीर्थपुरस्कृता। तपनस्य सुता देवी त्रिषु लोकेषु विश्रुता ।। | 3-83-74a 3-83-74b |
यमुना गङ्गया सार्धं संगता लोकपावनी। गङ्गायमुनयोर्मध्यं पृथिव्या जघनं स्मृतम् ।। | 3-83-75a 3-83-75b |
प्रयागं जघनस्थानमुपस्थमृषयो विदुः। प्रयागं सप्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरौ तथा ।। | 3-83-76a 3-83-76b |
तीर्थं भोगवती चैव वेदिरेषा प्रजापतेः। तत्रवेदाश्च यज्ञाश्च मूर्तिमन्तो युधिष्ठिर ।। | 3-83-77a 3-83-77b |
प्रजापतिमुपासन्ते ऋषयश्च तपोधनाः। यजन्ते क्रतुभिर्देवास्तथा चक्रधरा नृपाः ।। | 3-83-78a 3-83-78b |
ततः पुण्यतमं नाम त्रिषु लोकेषु भारत। प्रयागं सर्वतीर्थेभ्यः प्रवदन्त्यधिकं विभो ।। | 3-83-79a 3-83-79b |
श्रवणात्तस्य तीर्थस् नामसंकीर्तनादपि। मृत्युकालभयाच्चापि नरः पापात्प्रमुच्यते ।। | 3-83-80a 3-83-80b |
तत्राभिषेकं यः कुर्यात्संगमे लोकविश्रुते। पुण्यं स फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ।। | 3-83-81a 3-83-81b |
एषा यजनभूमिर्हि देवानामभिसंस्कृता। तत्र रदत्तं सूक्ष्ममपि महद्भवति भारत ।। | 3-83-82a 3-83-82b |
न वेदवचनात्तात न लोकवचनादपि। मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति ।। | 3-83-83a 3-83-83b |
दशतीर्तसहस्राणि षष्टिः कोट्यस्तथाऽपराः। येषां सान्निध्यमत्रैव कीर्तितं कुरुन्दन ।। | 3-83-84a 3-83-84b |
चतुर्विद्ये च यत्पुण्यं सत्यवादिषु चैव यत्। स्नात एव तदाप्नोति गङ्गायमुनसंगमे ।। | 3-83-85a 3-83-85b |
तत्र भोगवती नाम वासुकेस्तीर्थमुत्तमम्। तत्राभिषेकं यः कुर्यात्सोऽश्वमेधफलं लभेत् ।। | 3-83-86a 3-83-86b |
तत्र हंसप्रपतनं तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्। दशाश्वमेधिकं चैव गङ्गायां कुरुनन्दन ।। | 3-83-87a 3-83-87b |
कुरुक्षेत्रसमा गङ्गा यत्रतत्रावगाहिता। विशेषो वै कनखले प्रयागे परमं महत् ।। | 3-83-88a 3-83-88b |
यद्यकार्यशतं कृत्वा कृतंगङ्गावसेचनम्। सर्वं तत्तस्य गङ्गापो दहत्यग्निरिवेन्धनम् ।। | 3-83-89a 3-83-89b |
सर्वं कृतयुगे पुण्यंत्रेतायां पुष्करं स्मृतम्। द्वापरेऽपि कुरुक्षेत्रं गङ्गा कलियुगे स्मृता ।। | 3-83-90a 3-83-90b |
पुष्करे तु तपस्तप्येद्दानं दद्यान्महालये। मलये त्वग्निमारोहेद्भृगुतुन्दे त्वनाशनम् ।। | 3-83-91a 3-83-91b |
पुष्करे तु कुरुक्षेत्रे रगङ्गायां मगधेषु च। स्नात्वा तारयते जन्तुः सप्तसप्तावरांस्तथा ।। | 3-83-92a 3-83-92b |
पुनाति कीर्तिता पापं दृष्टा भद्रं प्रयच्छति। अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम् ।। | 3-83-93a 3-83-93b |
यावदस्थि मनुष्यस् गङ्गायाः स्पृशते जलम्। तावत्स पुरुषो राजन्स्वर्गलोके महीपते ।। | 3-83-94a 3-83-94b |
यथा पुण्यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च। उपास्य पुण्यं लब्ध्वा च भवत्यमरलोकभाक् ।। | 3-83-95a 3-83-95b |
न गङ्गासदृशं तीर्थं न देवः केशवात्परः। ब्राह्मणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः ।। | 3-83-96a 3-83-96b |
यत्र गङ्गा महाराज स देशस्तत्तपोकवनम्। सिद्धिक्षेत्रं च तज्ज्ञेयं गङ्गातीरसमाश्रितम् ।। | 3-83-97a 3-83-97b |
इदं सत्यंद्विजातीनां साधूनामात्मनोपि च। सुहृदां च जपेत्कर्मे शिष्यस्यानुगतस्य च ।। | 3-83-98a 3-83-98b |
इदं धन्यमिदं मेध्यमिदं स्वर्ग्यमिदं सुखम्। इदं पुण्यमिदं रम्यं पावनं धर्म्यमुत्तमम् ।। | 3-83-99a 3-83-99b |
महर्षीणामिदं गुह्यं सर्वपापप्रमोचनम्। अधीत्यद्विजमध्ये च निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात् ।। | 3-83-100a 3-83-100b |
श्रीमत्स्वर्ग्यं तथा पुण्यं सपत्नशमनं शिवम्। मेधाजननमग्र्यं वै तीर्थवंशानुकीर्तनम् ।। | 3-83-101a 3-83-101b |
अपुत्रो लभते पुत्रमधनो धनमाप्नुयात्। शूद्रो यथेप्सितान्कामान्ब्राह्मणः पारगः पठन्। महीं विजयते राजा वैश्यो धनमवाप्नुयात् ।। | 3-83-102a 3-83-102b 3-83-102c |
यश्चेदं शृणुयान्नित्यं तीर्थपुण्यं नरः शुचिः। जातीः स स्मरते बह्वीर्नाकपृष्ठे च मोदते ।। | 3-83-103a 3-83-103b |
गम्यान्यपि च तीर्थानि कीर्तितान्यगमानि च। मनसा तानि गच्छेत सर्वतीर्थसमीक्षया ।। | 3-83-104a 3-83-104b |
एतानि वसुभिः साध्यैरादित्यैर्मरुदश्विभिः। ऋषिभिर्देवकल्पैश्च स्नातानि सुकृतैषिभिः ।। | 3-83-105a 3-83-105b |
एवं त्वमपि कौरव्य विधिनाऽनेन सुव्रत। व्रत तीर्थानि नियतः पुण्यं पुण्येन वर्धयन् ।। | 3-83-106a 3-83-106b |
भाषितैः करणैः पूर्वमास्तिक्याच्छ्रुतिदर्शनात्। प्राप्यन्ते तानि तीर्तानि सद्भिः शास्त्रार्थदर्शिभिः। सद्भिः शास्त्रार्थतत्वज्ञैर्ब्राह्मणैः सह गम्यताम् ।। | 3-83-107a 3-83-107b 3-83-107c |
नाव्रती नाकृतात्मा च नाशुचिर्न च तस्करः। स्नाति तीर्थेषु कौरव्य न च वक्रमतिर्नरः ।। | 3-83-108a 3-83-108b |
त्वया तु सम्यग्वृत्तेन नित्यं धर्मार्थदर्शिना। `पितरस्तात सर्वे च तारिताः प्रपितामहाः' ।। | 3-83-109a 3-83-109b |
पिता पितामहस्चैव सर्वे च प्रपितामहाः। पितामहपुरोगाश्च देवाः सर्षिगणा नृप। तव धर्मेण धर्मज्ञ नित्यमेवाभितोषितः ।। | 3-83-110a 3-83-110b 3-83-110c |
अवाप्स्यसि त्वं लोकान्वै वसूनां वासवोपम। कीर्तिं च महातीं भीष्म प्राप्स्यसे भुविशाश्वतीं ।। | 3-83-111a 3-83-111b |
नारद उवाच। | 3-83-112x |
एवमुक्त्वाऽभ्यनुज्ञाय पुलस्त्यो भगवानृषिः। प्रीतः प्रीतेन मनसा तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-83-112a 3-83-112b |
भीष्मश्च कुरुशार्दूल शास्त्रतत्त्वार्थदर्शिवान्। पुलस्त्यवचनाच्चैव पृथिवीं परिचक्रमे ।। | 3-83-113a 3-83-113b |
एवमेषा महाभागा प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठिता। तीर्थयात्रा महापुण्या सर्वपापप्रमोचनी ।। | 3-83-114a 3-83-114b |
अनेन विधिना यस्तु पृथिवीं संचरिष्यति। अश्वमेधशतं साग्रं फलं प्रेत्य स भोक्ष्यति ।। | 3-83-115a 3-83-115b |
ततश्चाष्टगुणं पार्थ प्राप्स्यसे धर्ममुत्तमम्। भीष्मः कुरूणां प्रवरो यथा पूर्वमवाप्तवान् ।। | 3-83-116a 3-83-116b |
नेता च त्वमृषीन्यस्मात्तेन तेऽष्टगुणं फलम्। रक्षोगणबिकीर्णानि तीर्थान्येतानि भारत। अगम्यानि मनुष्येन्द्रैस्त्वामृते कुरुनन्दन ।। | 3-83-117a 3-83-117b 3-83-117c |
इदं देवर्षिचरितं सर्वतीर्ताभिसंवृतम्। यः पठेच्छृणुयाद्वाऽपिसर्वपापैः प्रमुच्यते ।। | 3-83-118a 3-83-118b |
ऋषिमुख्याः सदा यत्रवाल्मीकिस्त्वथ कश्यपः। आत्रेयः कुण्डजठरो विश्वामित्रोऽथ गौतमः ।। | 3-83-119a 3-83-119b |
असितो देवलश्चैव मार्कण्डेयोऽथ गालवः। भरद्वाजो वसिष्ठश्च मुनिरुद्दालकस्तथा ।। | 3-83-120a 3-83-120b |
शौनकः सह पुत्रेण व्यासश्च तपतांवरः। दुर्वासाश्च मुनिश्रेष्ठो जाबालिश्च महातपाः ।। | 3-83-121a 3-83-121b |
एते ऋषिवराः सर्वे त्वत्प्रतीक्षास्तपोधनाः। एभिः सह महाराज तीर्थान्येतान्यनुव्रज ।। | 3-83-122a 3-83-122b |
एष ते लोमशो नाम महर्षिरमितद्युतिः। समेष्यति महाराज तेन सार्धमनुव्रज ।। | 3-83-123a 3-83-123b |
मयाऽपिसह धर्मज्ञ तीर्थान्येतान्यनुक्रमात्। प्राप्स्यसे महतीं कीर्तिं यथा राजा महाभिषक् ।। | 3-83-124a 3-83-b124 |
यथा ययातिर्धर्मात्मा यथा राजा पुरूरवाः। तथा त्वं कुरुशार्दूल स्वेन धर्मेण शोभसे ।। | 3-83-125a 3-83-125b |
यथा भगीरथो राजा यथा रामश्च विश्रुतः। तथा त्वं सर्वराजभ्यो भ्राजसे रश्मिवानिव ।। | 3-83-126a 3-83-126b |
यथा मनुर्यथेक्ष्वाकुर्यथा पूरुर्महायशाः। यथा वैन्यो महाराज तथा त्वमपि विश्रुतः ।। | 3-83-127a 3-83-127b |
यथा च वृत्रहा सर्वान्सपत्नान्निर्दहन्पुरा। त्रैलोक्यं पालयामास देवराड्विगतज्वरः ।। | 3-83-128a 3-83-128b |
तथा शत्रुक्षयं कृत्वा त्वं प्रजाः पालयिष्यसि। स्वधर्मविजितामुर्वीं प्राप्य राजीवलोचन। ख्यातिं यास्यसि धर्मेण कार्तवीर्यार्जुनो यथा ।। | 3-83-129a 3-83-129b 3-83-129c |
वैशंपायन उवाच। | 3-83-130x |
एवमाश्वास्य राजानं नारदो भगवानृषिः। अनुज्ञाप्य महाराज तत्रैवान्तरधीयत ।। | 3-83-130a 3-83-130b |
युधिष्ठिरोषि धर्मात्मा तमेवार्थं विचिन्तयन्। तीर्थयात्राश्रितं पुण्यमृषीणां प्रत्यवेदयत् ।। | 3-83-131a 3-83-131b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्तयात्रापर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।। 83 ।। |
3-83-4 अश्वमेधाद्दशगुणमिति क. पाठः ।। 3-83-29 निदर्शनमुदाहरणम् ।। 3-83-30 यो योनिसंकरजः स जेतत्र गायत्रीं पठति तस्य सम्यक् पठतोपितीर्थमाहात्म्यात्सा गायत्री गाथा स्वरनियमहीना गद्यवन्मुखान्निःसरति। गाथिका ग्राम्यगीतवत् स्वरवर्णविकृता ।। 3-83-31 अब्राह्मणस्य तु प्राक्सिद्धापि तत्र न स्फुरतीति भावः ।। 3-83-33 ततो बेण्णां समासाद्येति क. ध. पाठः ।। 3-83-73 चक्रचराः सूर्यादयः ।। 3-83-75 स्त्रीरूपायाः पृथिव्याः मेरुपृष्ठशीर्षाया हरिद्वारादरभ्य जघनं नाभेरधोभागः ।। 3-83-77 नदी प्रोक्ता प्रजापतेरिति ध. पाठः ।। 3-83-83 प्रयागगमनं प्रतीति क. पाठः ।। 3-83-85 चातुर्वेद्ये च यत्पुण्यमिति क. पाठः ।। 3-83-103 कैलासे सत्यलोके नाकपृष्ठे च मोदत इति क. पाठः ।। 3-83-104 अगमानि अगम्यानि। समीक्षया दर्शनेच्छया ।। 3-83-107 करणैः इन्द्रियैः ।। 3-83-108 अकृतात्मा अवशीकृतचित्तः ।। 3-83-114 प्रतिष्ठाने प्रयागे। प्रतिष्ठिता समाप्ता ।। 3-83-124 महाभिषक् शन्तनुरूपेणावतीर्णः ।। 3-83-126 रश्मिवान् सूर्यः ।।
आरण्यकपर्व-082 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-084 |