महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-173
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अर्जुनेन दिव्यास्त्रैर्मायानिरसनपूर्वक् दैत्यहननम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुन उवाच। | 3-173-1x |
ततोऽश्मवर्षं सुमहत्प्रादुरासीत्समन्ततः। नगमात्रैः शिलाखण्डैस्तन्मां दृढमपीडयत् ।। | 3-173-1a 3-173-1b |
तदहं वज्रसंकाशैः शरैरिनद्रास्त्रचोदितैः। अचूर्णयं वेगवद्भिः शतधैकैकमाहवे ।। | 3-173-2a 3-173-2b |
चूर्ण्यमानेऽश्मवर्षे तु यावकः समजायत। तत्राश्मचूर्णा न्यपतन्पावकप्रकरा इव ।। | 3-173-3a 3-173-3b |
ततोऽश्मवर्षे विहते जलवर्षं महत्तरम्। धाराभिरक्षमात्राभिः प्रादुरासीनममान्तिके ।। | 3-173-4a 3-173-4b |
नभस प्रच्युता धारास्तिग्मवीर्याः सहस्रशः। आवृण्वन्सर्वतो व्योम दिशश्चोपदिशस्तथा ।। | 3-173-5a 3-173-5b |
धाराणां च निपातेन वायोर्विष्फूर्जितेन च। गर्जितेन च मेघानां न प्राज्ञायत किंचन ।। | 3-173-6a 3-173-6b |
धारा दिवि च संबद्धा वसुधायां च सर्वशः। व्यामोहयन्त मां तत्रनिपतन्त्योऽनिशं भुवि ।। | 3-173-7a 3-173-7b |
तत्रोपदिष्टमिन्द्रेण दिव्यमस्त्रं विशोषणम्। दीप्तं प्राहिणवं घोरमशुप्यत्तेन तज्जलम् ।। | 3-173-8a 3-173-8b |
हतेऽश्मवर्षे च मया जलवर्षे च शोषिते। मुमुचुर्दानवा मायामग्निं वायुं च भारत ।। | 3-173-9a 3-173-9b |
ततोऽहमग्निं व्यधमं सलिलास्त्रेण सर्वशः। शैलेन च महास्त्रेण वायोरवेगमधारयम् ।। | 3-173-10a 3-173-10b |
तस्यां प्रतिहतायां ते दानवा युद्धदुर्मदाः। प्राकुर्वन्विविधां मायां यौगपद्येन भारत ।। | 3-173-11a 3-173-11b |
ततो वर्षं प्रादुरभूत्सुमहद्रोमहर्षणम्। अस्त्राणां घोररूपाणामग्नेर्वायोस्तथाऽश्मनाम् ।। | 3-173-12a 3-173-12b |
सा तु मायामयी वृष्टिः पीडयामास मां युधि। अथ घोरं तमस्तीव्रं प्रादुरासीत्समन्ततः ।। | 3-173-13a 3-173-13b |
तमसा संवृतेलोके घोरेण परुषेण च। हरयो विमुखाश्चासन्प्रास्खलच्चापि मातलिः ।। | 3-173-14a 3-173-14b |
हस्ताद्धिरण्मयश्चास्य प्रतोदः प्रापतद्भुवि। असकृच्चाह मां भीतः किं करिष्याव इत्यपि ।। | 3-173-15a 3-173-15b |
मां च भीराविशत्तीव्रा तस्मिन्विगतचेतसि। स च मां विगतज्ञानः संत्रस्तमिदमब्रवीत् ।। | 3-173-16a 3-173-16b |
सुराणामसुराणां च संग्रामः सुमहानभूत्। अमृतार्थं पुरा पार्त स च दृष्टो मयाऽनघ ।। | 3-173-17a 3-173-17b |
शम्बरस्य वधे घोरः संग्रामः सुमहानभूत्। सारथ्यं देवराजस्य तत्रापि कृतवानहम् ।। | 3-173-18a 3-173-18b |
तथैव वृत्रस्य वधे संगृहीता हया मया। वैरोचनेर्मया युद्धं दृष्टं चापि सुदारुणम् ।। | 3-173-19a 3-173-19b |
एते मया महाघोरः संग्रामाः पर्युपासिताः। न चापि विगतज्ञानो भूतपूर्वोस्मि पाण्डव ।। | 3-173-20a 3-173-20b |
पितामहेन संहारः प्रजानां विहितो ध्रुवम्। न हि युद्धमिदं युक्तमन्यत्र जगतः क्षयात् ।। | 3-173-21a 3-173-21b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। मोहयिष्यन्दानवानामहं मायाबलं महत् ।। | 3-173-22a 3-173-22b |
अब्रुवं मातलिं भीतं पश्य मे बुजयोर्बलम्। अस्त्राणां च प्रभावं वै धनुषो गाण्डिवस्य च ।। | 3-173-23a 3-173-23b |
अद्यास्त्रमाययैतैषां मायामेतां सुदारुणाम्। विनिहन्मि तमश्चोग्रं मा भैः सूत स्तिरो भव ।। | 3-173-24a 3-173-24b |
एवमुक्त्वाहमसृजमस्त्रमायां नराधिप। मोहनीं सर्वभूतानां हिताय त्रिदिवौकसाम् ।। | 3-173-25a 3-173-25b |
पीड्यमानासु मायासु तासु तास्वसुरोत्तमाः। पुनर्बहुविधा मायाः प्राकुर्वन्नमितौजसः ।। | 3-173-26a 3-173-26b |
पुनः प्रकाशमभवत्तमसा ग्रस्यते पुनः। भवत्यदर्शनो लोकः पुनरप्सु निमज्जति ।। | 3-173-27a 3-173-27b |
सुसंगृहीतैर्हरिभिः प्रकाशे सति मातलिः। व्यचरत्स्यन्दनाग्र्येण संग्रामे रोमहर्षणे ।। | 3-173-28a 3-173-28b |
ततः पर्यपतन्नुग्रा निवातकवचा मयि। तानहं विवरं दृष्ट्वा प्राहण्वं यमसादनम् ।। | 3-173-29a 3-173-29b |
वर्तमाने तथा युद्धे निवातकवचान्तके। नापश्यं सहसा सर्वान्दानवान्मायया वृतान् ।। | 3-173-30a 3-173-30b |
3-173-1 नगमात्रैः वृक्षप्रमाणैः ।। 3-173-3 पावकप्रकराः वह्निराशयः ।। 3-173-19 वैरोचनेः बलेः ।। 3-173-26 पीड्यमानासु नश्यमानासु ।।
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