महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-256
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दुर्योधनेन राजसूययाजनं प्रार्थितैर्ब्राह्मणैर्हेतूक्त्या तन्निपेधनपूर्वकं तप्रति यज्ञान्तरकरणनियोजनम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-256-1x |
जित्वा तु पृथिवीं राजन्सूतपुत्रो जनाधिप। अब्रवीत्परवीरघ्नो दुर्योधनमिदं वचः ।। | 3-256-1a 3-256-1b |
दुर्योधन निबोधेदं यत्त्वां वक्ष्यामि कौरव। श्रुत्वा वाचं तथा सर्वं कर्तुमर्हस्यरिंदम ।। | 3-256-2a 3-256-2b |
तवाद्य पृथिवी वीर निःसपत्ना नृपोत्तम। तां पालय यथा शक्रो हतशत्रुर्महामनाः ।। | 3-256-3a 3-256-3b |
वैशंपायन उवाच। | 3-256-4x |
एवमुक्तस्तु कर्णेन कर्णं राजाऽब्रवीत्पुनः। न किंचिद्दुर्लभं तस्य यस् त्वं पुरुषर्षभ ।। | 3-256-4a 3-256-4b |
सहायश्चानुरक्तश्च मदर्थं च समुद्यतः। अभिप्रायस्तु मे कश्चित्तं वै शृणु यथातथम् ।। | 3-256-5a 3-256-5b |
राजसूयं पाण्डवस्य दृष्ट्वा क्रतुवरं तदा। कमम स्पृहा समुत्पन्ना तां संपादय सूतज ।। | 3-256-6a 3-256-6b |
एवमुक्तस्ततः कर्णो राजानमिदमब्रवीत्। तवाद्य पृथिवीपाला वश्याः सर्वे नृपोत्तम ।। | 3-256-7a 3-256-7b |
आहूयन्तां द्विजवराः संभाराश्च यथाविधि। संभ्रियन्तां कुरुश्रेष्ठ यज्ञोपकरणानि च ।। | 3-256-8a 3-256-8b |
ऋत्विजश्च समाहूता यथोक्तं वेदपारगाः। क्रियां कुर्वन्तु ते राजन्यथाशास्त्रमरिंदम ।। | 3-256-9a 3-256-9b |
बह्वन्नपानसंयुक्तः सुसमृद्धगुणान्वितः। प्रवर्ततां महायज्ञस्तवापि भरतर्षभ ।। | 3-256-10a 3-256-10b |
एवमुक्तस्तु कर्णेन धार्तराष्ट्रो विशांपते। पुरोहितं समानाय्य वचनं चेदमब्रवीत् ।। | 3-256-11a 3-256-11b |
राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं समाप्तवरदक्षिणम्। आहरस्व यथाशास्त्रं यथान्यायं यथाक्रमम् ।। | 3-256-12a 3-256-12b |
स एवमुक्तो नृपतिमुवाच द्विजसत्तमः ।। | 3-256-13a |
`ब्राह्मणैः सहितो राजन्ये तत्रासन्समागताः'। न स शक्यः क्रतुश्रेष्ठो जीवमाने युधिष्ठिरे। आहर्तुं कौरवश्रेष्ठ कुले तव नृपोत्तम ।। | 3-256-14a 3-256-14b 3-256-14c |
दीर्घायुर्जीवति च ते धृतराष्ट्रः पिता नृप। अतश्चापि विरुद्धस्ते क्रतुरेणष नृपोत्तमः ।। | 3-256-15a 3-256-15b |
अस्ति त्वन्यन्महत्सत्रं राजसूयसमं प्रभो। तेन त्वं यज राजेन्द्र शृणु चेदं वचो मम ।। | 3-256-16a 3-256-16b |
य इमे पृथिवीपालाः करदास्तव पार्थिव। ते करान्संप्रयच्छन्तु सुवर्णं च कृताकृतम् ।। | 3-256-17a 3-256-17b |
तेन ते क्रियतामद्यलाङ्गलं नृपसत्तम। यज्ञवाटस् ते भूमिः कृष्यतां तेन भारत ।। | 3-256-18a 3-256-18b |
तत्र यज्ञो नृपश्रेष्टः प्रभूतान्नः सुसंस्कृतः। प्रवर्ततां यथान्यायं सर्वतो ह्यनिवारितः ।। | 3-256-19a 3-256-19b |
एष ते वैष्णवो नाम यज्ञः सत्पुरुषोचितः। एतेन नेष्टवान्कश्चिदृतेविष्णुं पुरातनम् ।। | 3-256-20a 3-256-20b |
राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं स्पर्धत्येष महाक्रतुः। अस्माकं रोचते चैव श्रेयश्च तव भारत ।। | 3-256-21a 3-256-21b |
निर्विघ्नश्च भवत्येष सफला स्यात्स्पृहा तव। `तस्मादेष महाबाहो तव यज्ञः प्रवर्तताम्' ।। | 3-256-22a 3-256-22b |
एवमुकत्स्तु तैर्विप्रैर्धार्तराष्ट्रो महीपतिः। कर्णं च सौबलं चैव भ्रातॄश्चैवेदमब्रवीत् ।। | 3-256-23a 3-256-23b |
रोचते मे वचः कृत्स्नं ब्राह्मणानां न संशयः। रोचते यदि युष्माकं तस्मात्प्रब्रूत माचिरम् ।। | 3-256-24a 3-256-24b |
एवमुक्तास्तु ते सर्वे तथेत्यूचुर्नराधिपम्। संदिदेश ततोराजाव्यापारस्थान्यथाक्रमम् ।। | 3-256-25a 3-256-25b |
हलस्य करणे चापि व्यादिष्टाः सर्वशिल्पिनः। यथोक्तं च नृपश्रेष्ठ कृतं सर्वं यथाक्रमम् ।। | 3-256-26a 3-256-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 256 ।। |
3-256-17 कृतं घटितमलंकारादिरूपम्। अकृतमन्यत् ।। 3-256-25 व्यापारस्थान् शिल्पिनः ।।
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