महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-296
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अश्वपतिना राज्ञा द्युमत्सेनाश्रममेत्य सत्यवते स्वपुत्र्याः सावित्र्या रदानेन वैवाहिकोत्सवनिर्वर्तनपूर्वकं स्वनगरागमनम् ।। 1 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-296-1x |
अथ कन्याप्रदाने स तमेवार्थं विचिन्तयन्। समानित्ये च तत्सर्वंभाण्डं वैवाहिकं नृपः ।। | 3-296-1a 3-296-1b |
ततो वृद्धान्द्विजान्सर्वानृत्विक्सभ्यपुरोहितान्। समाहूय दिने पुण्ये प्रययौ सह कन्यया ।। | 3-296-2a 3-296-2b |
मेध्यारण्यं स गत्वा च द्युमत्सेनाश्रमं नृपः। पद्भ्यामेव द्विजैः सार्धं राजर्षिं तमुपागमत् ।। | 3-296-3a 3-296-3b |
तत्रापश्यन्महाभागं सालवृक्षमुपाश्रितम्। कौश्यां बृस्यां समासीनं चक्षुर्हीनं नृपं तदा ।। | 3-296-4a 3-296-4b |
स राजा तस्य राजर्षेः कृत्वापूजां यथाऽर्हतः। वाचा सुनियतो भूत्वा चकारात्मनिवेदनम् ।। | 3-296-5a 3-296-5b |
तस्यार्ध्यमासं चैव गां चावेद्यस धर्मवित्। किमागमनमित्येवं राजा राजानमब्रवीत् ।। | 3-296-6a 3-296-6b |
तस्य सर्वमभिप्रायमितिकर्तव्यतां च ताम्। सत्यवन्तं समुद्दिश्य सर्वमेव न्यवेदयत् ।। | 3-296-7a 3-296-7b |
सावित्री नाम राजर्षे कन्येयं मम शोभना। तां स्वधर्मेण धर्मज्ञ स्नुषार्थे त्वं गृहाण मे ।। | 3-296-8a 3-296-8b |
द्युमत्सेन उवाच। | 3-296-8x |
च्युताः स्म राज्याद्वनवासमाश्रिता- श्चराम धर्मं नियतास्तपस्विनः। कथं त्वनर्हा वनवासमाश्रमे सहिष्यति क्लेशमिमं सुता तव ।। | 3-296-9a 3-296-9b 3-296-9c 3-296-9d |
अश्वमतिरुवाच। | 3-296-10x |
सुखं च दुःखं च भवाभवात्मकं यदा विजानाति सुताऽहमेव च। न मद्विधे युज्यतेवाक्यमीदृशं विनिश्चयेनाभिगतोस्मि ते नृप ।। | 3-296-10a 3-296-10b 3-296-10c 3-296-10d |
आशां नार्हसि मे हन्तुं सौहृदात्प्रणतस्य च। अभितश्चागतं प्रेम्णा प्रत्याख्यातुं न माऽर्हसि ।। | 3-296-11a 3-296-11b |
अनुरूपो हि युक्तश्च त्वं ममाहं तवापि च। स्नुषां प्रतीच्छ मे कन्यां भार्यां सत्यवतस्ततः ।। | 3-296-12a 3-296-12b |
द्युमत्सेन उवाच। | 3-296-13x |
पूर्वमेवाभिलवितः संबन्धो मे त्वया सह। भ्रष्टराज्यस्त्वहमिति तत एतद्विचारितम् ।। | 3-296-13a 3-296-13b |
अभिप्रायस्त्वयं यो मे पूर्वमेवाभिकाङ्क्षितः। स निर्वर्ततु मेऽद्यैव काङ्क्षितो ह्यसि मेऽतिथिः ।। | 3-296-14a 3-296-14b |
ततः सर्वान्समानाय्य द्विजानाश्रमवासिनः। यथाविधि समुद्वाहं कारयामासतुर्नृपौ ।। | 3-296-15a 3-296-15b |
दत्त्वा सोऽश्वपतिः कन्यां यथार्हं सपरिच्छदम्। ययौ स्वमेव भवनं युक्तः परमया मुदा ।। | 3-296-16a 3-296-16b |
सत्यवानपि तां भार्यां लब्ध्वा सर्वगुणान्विताम्। मुमुदे सा रच रतं लब्ध्वा भर्तारं मनसेप्सितम् ।। | 3-296-17a 3-296-17b |
गते पितरि सर्वाणि संन्यस्याभरणानि सा। जगृहेवल्कलान्येव वस्त्रं काषायमेव च ।। | 3-296-18a 3-296-18b |
परिचारैर्गुणैश्चैव प्रश्रयेण दमेन च। सर्वकामक्रियाभिश्च सर्वेषां तुष्टिमादधे ।। | 3-296-19a 3-296-19b |
श्वश्रूं शरीरसत्कारैः सर्वैराच्छादनादिभिः। श्वशुरं देवसत्कारैर्वाचः संयमनेन च ।। | 3-296-20a 3-296-20b |
तथैव प्रियवादेन नैषुणेन शमेन च। रहश्चैवोपचारेण भर्तारं पर्यतोषयत् ।। | 3-296-21a 3-296-21b |
एवं तत्राश्रमे तेषां तदा निवसतां सताम्। कालस्तपस्यतां कश्चिदपाक्रामत भारत ।। | 3-296-22a 3-296-22b |
सावित्र्याग्लायमानायास्तिष्ठन्त्यास्तु दिवानिशम। नारदेन यदुक्तं तद्वाक्यं मनसि वर्तते ।। | 3-296-23a 3-296-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि पतिव्रतामाहात्म्यपर्वणि षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 296 ।। |
3-296-1 वैवाहिकं भाण्डं विवाहोचितमुपकरणम् ।। 3-296-4 कौश्यां रकुशमय्यां बृस्यामासने ।। 3-296-5 आत्मनिवेदनमश्वपतिरहमिति ज्ञापनम् ।। 3-296-10 भवाभवात्मकमुत्पत्तिविनाशात्मकम्। ते त्वां प्रति ।। 3-296-11 मा माम् ।। 3-296-14 निर्वर्ततु निष्पद्यताम् ।। 3-296-16 सपरिच्छदं पारिवर्हसहितम् ।। 3-296-19 परिचारैः सेवनैः। गुणैः शीलसत्यादिभिः। प्रश्रयेण स्नेहेन। दमेन जितेन्द्रियतया। सर्वकामक्रियाभिः सर्वेषामिष्टसंपादनेन ।।
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