महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-213
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धर्मव्याधेन कौशिकंप्रति पौरुषनिन्दनन दैवप्रशंसनपूर्वकं सुकृतदुष्कृतयोः सुखदुःखहेतुताप्रतिपादनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-213-1x |
धर्मव्याधस्तु निपुणं पुनरेव युधिष्ठिर। विप्रर्षभमुवाचेदं सर्वधर्मभृतांवर ।। | 3-213-1a 3-213-1b |
श्रुतिप्रमाणो धर्मोऽयमिति वृद्धानुशासनम्। सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस् बहुशाखा ह्यनन्तिका ।। | 3-213-2a 3-213-2b |
प्राणान्तिके विवाहे च वक्तव्यमनृतं भवेत्। अनृतेन भवेत्सत्यं सत्येनैवानृतं भवेत् ।। | 3-213-3a 3-213-3b |
यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा। विपर्ययकृतोऽधर्मः पश्य धर्मस्य सूक्ष्मताम् ।। | 3-213-4a 3-213-4b |
यत्करोत्यशुभं कर्म शुभं वा यदि सत्तम। अवश्यं तत्समाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः ।। | 3-213-5a 3-213-5b |
विषमां च दशां प्राप्तो देवान्गर्हति वै भृशम्। आत्मृनः कर्मदोषेण न विजानात्यपण्डितः ।। | 3-213-6a 3-213-6b |
मूढो नैकृतिकश्चापि चपलश्च द्विजोत्तम। `न शुभं कर्म बध्नाति पुरुषं पाषनिश्चयम्' ।। | 3-213-7a 3-213-7b |
सुखदुःखविपर्यासो यदा समुपपद्यते। नैनं प्रज्ञा सुनीतं वा त्रायते नैव पौरुषम् ।। | 3-213-8a 3-213-8b |
यो यमिच्छेद्यथा कामं तं तं कामं स आप्नुयात्। यदि स्यादपराधीनं पौरुषस् क्रियाफलम् ।। | 3-213-9a 3-213-9b |
संयताश्चापि दक्षाश्च मतिमन्तश्च मानवाः। दृश्यन्ते निष्फलाः सन्तः प्रहीणाः सर्वकर्मभिः ।। | 3-213-10a 3-213-10b |
भूतानामपरः कश्चिद्धिंसायां सततोत्थितः। वञ्चनायां च लोकस्य स सुखेनैव युज्यते ।। | 3-213-11a 3-213-11b |
अचेष्टमपि चासीनं श्रीः कंचिदुपतिष्ठति। कश्चित्कर्माणि कुर्वन्हि न प्राप्यमधिगच्छति ।। | 3-213-12a 3-213-12b |
देवानिष्ट्वा तपस्तप्त्वा कृपणैः पुत्रगृध्नुभिः। दशमासधृता गर्भा जायन्ते कुलपांसनाः ।। | 3-213-13a 3-213-13b |
अपरे धनधान्यैश्च भोगैश्च पितृसंचितैः। विपुलैरभिजायन्ते लब्धास्तैरेव मङ्गलैः ।। | 3-213-14a 3-213-14b |
`न देहजा मनुष्याणां व्याधयो द्विजसत्तम'। कर्मजा हि मनुष्याणां रोगा नास्त्यत्र संशयः ।। | 3-213-15a 3-213-15b |
आधिभिश्चैव बाध्यन्ते व्यालैः क्षुद्रमृगा इव। व्याधयो विनिवार्यन्ते मृगा व्याधैरिव द्विज ।। | 3-213-16a 3-213-16b |
येषामस्ति च भोक्तव्यं ग्रहणीरोगपीडिताः। न शक्नुवन्ति ते भोक्तुं चेष्टितं पूर्वकर्मया ।। | 3-213-17a 3-213-17b |
अपरे बाहुबलिनः क्लिश्यन्ति बहवो जनाः। दुःखेन चाधिगच्छनति भोजनं द्विजसत्तम ।। | 3-213-18a 3-213-18b |
इति लोकमनाक्रन्दं देहशङ्कापरिप्लुतम्। स्रोतसाऽसकृदाक्षिप्तं ह्रियमाणं बलीयसा ।। | 3-213-19a 3-213-19b |
न म्रियेयुर्न जीर्यैयुः सर्वे स्युः सर्वकामिकाः। नाप्रियं प्रतिपश्येयुर्विधिश्च यदि नो भवेत् ।। | 3-213-20a 3-213-20b |
उपर्युपरि लोकस्य सर्वो गन्तुं समीहते। यतते च यथाथक्ति न च तद्वर्तते तथा ।। | 3-213-21a 3-213-21b |
बहवः संप्रदृश्यन्ते तुल्यनक्षत्रमङ्गलाः। महत्तु फलवैषम्यं दृश्यते कर्मसिद्धिषु ।। | 3-213-22a 3-213-22b |
न केचिदीशते ब्रह्मन्स्वयंग्राह्यस्य सत्तम। कर्मणां प्राकृतानां वै इह सिद्धिः प्रदृश्यते ।। | 3-213-23a 3-213-23b |
तथा श्रुतिरियंब्रह्मञ्जीवः किल सनातनः। शरीरमध्रुवं लोके सर्वेषां प्राणिनामिह ।। | 3-213-24a 3-213-24b |
वध्यमाने शरीरे तु देहनाशो भवत्युत। जीवः संक्रमतेऽन्यत्रकर्मबनधनिबन्धनः ।। | 3-213-25a 3-213-25b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-213-26x |
कथं धर्मविदांश्रेष्ठ जीवो भवति शाश्वतः। एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तत्त्वेन वदतांवर ।। | 3-213-26a 3-213-26b |
व्याध उवाच। | 3-213-27x |
न जीवनाशोस्ति हि देहभेदे मिथ्यैतदाहुर्म्रियतीति मूढाः। जीवस्तु देहान्तरितः प्रयाति दशार्धतैवास् शरीरभेदः ।। | 3-213-27a 3-213-27b 3-213-27c 3-213-27d |
अन्यो हि नाश्नाति कृतं हि कर्म मनुष्यलोके मनुजस् कश्चित्। यत्तेन किंचिद्धि कृतंहि कर्म तदश्नुते नास्ति कृतस्य नाशः ।। | 3-213-28a 3-213-28b 3-213-28c 3-213-28d |
सुपुण्यशीला हि भवन्ति पुण्या नराधमाः पापकृतो भवन्ति। नरोऽनुयातस्त्विह कर्मभिः स्वै- स्ततः समुत्पद्यति भावितस्तैः ।। | 3-213-29a 3-213-29b 3-213-29c 3-213-29d |
ब्राह्मण उवाच। | 3-213-30x |
कथं संभवते योनौ कथं वा पुण्यपापयोः। जातीः पुण्या ह्यपुण्याश् कथं गच्छति सत्तम ।। | 3-213-30a 3-213-30b |
व्याध उवाच। | 3-213-31x |
गर्भाधानसमायुक्तं कर्मेदं संप्रदृश्यते। समासेन तु ते क्षिप्रं प्रवक्ष्यामि द्विजोत्तम ।। | 3-213-31a 3-213-31b |
यथा संभृतसंभारः पुनरेव प्रजायते। शुभकृच्छुभयोनीषु पापकृत्पापयोनिषु ।। | 3-213-32a 3-213-32b |
शुभैः प्रयोगैर्देवत्वंव्यामिश्रैर्मानुषो भवेत्। मोहनीयैर्वियोनीषु त्वधोगामी च किल्बिषैः ।। | 3-213-33a 3-213-33b |
जातिमृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः। संसारे पच्यमानश्च दोषैरात्मकृतैर्नरः ।। | 3-213-34a 3-213-34b |
तिर्यग्योनिसहस्राणि गत्वा नरकमेव च। जीवाः संपरिवर्तन्ते कर्मबन्धनिबन्धनाः ।। | 3-213-35a 3-213-35b |
जन्तुस्तु कर्मभिस्तैस्तैः स्वकृतैः प्रेत्य दुःखितः। तद्दुःखप्रतिघातार्थमपुण्यां योनिमाप्नुते ।। | 3-213-36a 3-213-36b |
ततः कर्म समादत्ते पुनरन्यन्नवं बहु। पच्यते तु पुनस्तेन भुक्त्वाऽपथ्यमिवातुरः ।। | 3-213-37a 3-213-37b |
अजस्रमेव दुःखार्तोऽदुःखितः सुखिसंज्ञितः। ततो निवृत्तबन्धत्वात्कर्मणामुदयादपि ।। | 3-213-38a 3-213-38b |
परिक्रामति संसारे चक्रवद्बहुवेदनः। स चेन्निवृत्तबन्धस्तु विशुद्धश्चापि कर्मभिः ।। | 3-213-39a 3-213-39b |
तपोयोगसमारम्भं कुरुते द्विजसत्तम। कर्मभिर्बहुभिश्चापि लोकानश्नाति कर्मभिः ।। | 3-213-40a 3-213-40b |
[स चेन्निवृत्तबन्धस्तु विशुद्धश्चापि कर्मभिः।] प्राप्नोति सुकृताँल्लोकान्यत्रगत्वा न शोचति ।। | 3-213-41a 3-213-41b |
पापं कुर्वनपुण्यवृत्तः पुण्यस्यान्तं न गच्छति। `पुण्यं कुर्वन्पुण्यवृत्तः पुण्यस्यान्तं न गच्छति'। तस्मात्पुण्यं यतेत्कर्तुं वर्जयीत च पापकम् ।। | 3-213-42a 3-213-42b 3-213-42c |
अनसूयुः कृतज्ञश्च कल्याणान्येव सेवते। सुखानि धर्ममर्थं च स्वर्गं च लभते नरः ।। | 3-213-43a 3-213-43b |
संस्कृतस्य च दान्तस् नियतस्य यतात्मनः। प्राज्ञास्यानन्तरा वृत्तिरिहि लोके परत्र च ।। | 3-213-44a 3-213-44b |
सतां धऱ्मेण वर्तेत क्रियां शिष्टवदाचरेत्। असंक्लेशेन लोकस्य वृत्तिं लिप्सेत वै द्विजः ।। | 3-213-45a 3-213-45b |
सन्ति ह्यागमविज्ञानाः शिष्टाः शास्त्रे विचक्षणाः। स्वधर्मेण क्रिया लोके कुर्वाणास्ते ह्यसंकराः ।। | 3-213-46a 3-213-46b |
प्राज्ञो धर्मेण रमते धर्मं चैवोपजीवति। तस्माद्धर्मादवाप्तेन धनन द्विजसत्तम ।। | 3-213-47a 3-213-47b |
तस्यैव सिंचते मूलं गुणान्पश्यति यत्र वै। धर्मात्मा भवति ह्येवं चित्तं चास्य प्रसीदति। स मित्रजनसंतुष्ट इह प्रेत्य च नन्दति ।। | 3-213-48a 3-213-48b 3-213-48c |
शब्दं स्पर्शं तथा रूपं गन्धानिष्टांस्च सत्तम। प्रभुत्वं लभते चापि धर्मस्यैतत्फलं विदुः ।। | 3-213-49a 3-213-49b |
धरमस्य च पलं लब्ध्वा न तुष्यति महाद्विज। अतुष्यमाणो निर्वेदमादत्ते ज्ञानचक्षुषा ।। | 3-213-50a 3-213-50b |
प्रज्ञाचक्षुर्नर इह दोषं नैवानुरुध्यते। विरज्ये यथाकामं न च धर्मं विमुञ्चति ।। | 3-213-51a 3-213-51b |
फलत्यागे च यतते दृष्ट्वा लोकं क्रियात्मकम्। ततो मोक्षे प्रयतते नानुपायादुपायतः ।। | 3-213-52a 3-213-52b |
एवं निर्वेदमादत्ते पापं कर्म जहाति च। धार्मिकश्चापि भवति मोक्षं च लभते परम् ।। | 3-213-53a 3-213-53b |
तपो निःश्रेयसं जन्तोस्तस्य मूलं शमो दमः। तेन सर्वानवाप्नोति कामान्यान्मनसेच्छति ।। | 3-213-54a 3-213-54b |
इन्द्रियाणां निरोधेन सत्येन च दमेन च। ब्रह्मणः पदमाप्नोति यत्परं द्विजसत्तम ।। | 3-213-55a 3-213-55b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-213-56x |
इन्द्रियाणीति यान्याहुः कानि तानि यतव्रत। निग्रहश्च कथं कार्यो निग्रहस्य च किं फलम् ।। | 3-213-56a 3-213-56b |
कथं च फलमाप्नोति तेषां धर्मभृतांवर। एतदिच्छामि तत्त्वेन धर्मं ज्ञातुं सुधार्मिक ।। | 3-213-57a 3-213-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमस्यापर्वणि त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्याः ।। 213 ।। |
3-213-4 धारणा अवधारणं। निश्चय इत्यर्थः ।। 3-213-8 सनीतं गुरुशिक्षा ।। 3-213-10 प्रहीणाः श्रान्ता अपीत्यर्थः ।। 3-213-13 पुत्रगृध्रुभिः पुतर्कामैः ।। 3-213-19 अनाक्रन्दं असहायम्। आक्रन्दः क्रन्दने ह्वाने मित्रदारुणयुद्धयोरिति मेदिनी। स्रोतसा कर्मप्रवाहेण ।। 3-213-23 स्वीयमपि वस्तु स्वस्यानधीनं प्राक्कर्मवशाद्भवतीत्यर्थः ।। 3-213-27 दशार्धता पञ्चत्वम् ।। 3-213-27 मोहनीयैस्तामसै। अधः नरकतिर्यक्षु ।। 3-213-33 प्रेत्य मृत्वा। 3-213-36 दुःखात्मकः प्रतीघातः। दुखं भोक्तुमित्यर्थः ।। 3-213-39 निवृत्तबन्धो वीतरागः। तत्र हेतुः विशुद्धश्चेति ।। 3-213-40 तपोयोगयोः आलोचनध्यानयो समारम्भम् ।। 3-213-42 यतेत् यतेत ।। 3-213-49 प्रभुत्वं अप्रतिहतेच्छत्वम् ।। 3-213-51 अतुष्यमाणः प्रीतिमलभमानः निर्वेदं वैराग्यं दोषं रागद्वेषादिकं नानुरुध्यते तद्वशो न भवतीत्यर्थः ।। 3-213-52 उपायत एव मोक्षे प्रयतते नन्वनुपायाद्दैवमात्राश्रयादिति योजना ।। 3-213-54 तपः ज्ञानम्। निःश्रेयसं मोक्षसाधनम् ।। 3-213-57 तेषां इन्द्रियाणां निग्रहादिति शेषः ।।
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