महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-180
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वने मृगयार्थमटतो भीमस्य महताऽजगरेण ग्रहणम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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जनमेजय उवाच। | 3-180-1x |
कथं नागायुतप्राणो भीमो भीमपराक्रमः। भयमाहारयत्तीव्रं तस्मादजगरान्मुने ।। | 3-180-1a 3-180-1b |
पौलस्त्यं धनदं युद्दे य आह्वयति दर्पितः। नलिन्यां कदनं कृत्वा निहन्ता यक्षरक्षसाम् ।। | 3-180-2a 3-180-2b |
तं संससि भयाविष्टमापन्नमरिसूदनम्। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे ।। | 3-180-3a 3-180-3b |
वैशंपायन उवाच। | 3-180-4x |
बह्वाश्चर्ये वने तेषां वसतामुग्रधन्विनाम्। प्राप्तानामाश्रमं राजन्राजर्षेर्वृषपर्वणः ।। | 3-180-4a 3-180-4b |
यदृच्छया धनुष्पाणिर्बद्धखङ्गो वृकोदरः। ददर्श तद्वनं रम्यं देवगन्धर्वसेवितम् ।। | 3-180-5a 3-180-5b |
स ददर्श शुभान्देशान्गिरेर्हिमवतस्तदा। देवर्षिसिद्धचरितानप्सरोगणसेवितान् ।। | 3-180-6a 3-180-6b |
चकोरैरुपचक्रैशच् पक्षिभिर्जीवजीवकैः। कोकिलैर्भृङ्गराजैश्च तत्र तत्र निनादितान् ।। | 3-180-7a 3-180-7b |
नित्यपुष्पफलैर्वृक्षैर्हिमसंस्पर्शकोमलैः। उपेतान्बहुलच्छायैर्मनोनयननन्दनैः ।। | 3-180-8a 3-180-8b |
स संपश्यन्गिरिनदीर्वैडूर्यमणिसंनिभैः। सलिलैर्हिमसंकाशैर्हंसकारण्डवायुतैः ।। | 3-180-9a 3-180-9b |
वनानि देवदारूणां मेघानामिव वागुराः। हरिचन्दनमिश्राणि तुङ्गकालीयकान्यपि ।। | 3-180-10a 3-180-10b |
मृगयां परिधावन्स समेषु मरुधन्वसु। विध्यन्मृगाञ्शरैः शुद्धैश्चचार स महाबलः ।। | 3-180-11a 3-180-11b |
भीमसेनस्तु विख्यातो महान्तं दंष्ट्रिणं बलात्। निघ्नन्नागशतप्राणो वने तस्मिन्महाबलः ।। | 3-180-12a 3-180-12b |
मृगाणां सवराहाणां महिषाणां महाभुजः। विनिघ्नंस्तत्रतत्रैव भीमो भीमपराक्रमः ।। | 3-180-13a 3-180-13b |
स मातङ्गशतप्राणो मनुष्यशतवारणः। सिंहशार्दूलविक्रान्तो वने तस्मिन्महाबलः ।। | 3-180-14a 3-180-14b |
वृक्षानुत्पाटयामास तरसा वै बभञ्ज च। पृथिव्याश्च प्रदेशान्वै नादयंस्तु वनानि च ।। | 3-180-15a 3-180-15b |
पर्वताग्राणि वै मृद्गन्नादयानश्च विज्वरः। प्रक्षिपन्पादपांश्चापि नादेनापूरयन्महीम् ।। | 3-180-16a 3-180-16b |
वेगेन न्यपतद्भीमो निर्भयश्च पुनः पुनः। आस्फोटयन्क्ष्वेडयंश्च तलतालांश्च वादयन्। चिरसंबद्धदर्पस्तु भीमसेनो वने तदा ।। | 3-180-17a 3-180-17b 3-180-17c |
गजेनद्राश्च महासत्वा मृगेन्द्राश्च महाबलाः। भीमसेनस्य नादेन व्यमुञ्चन्त गुहा भयात् ।। | 3-180-18a 3-180-18b |
क्वचित्प्रधावंस्तिष्ठंश्च क्वचिच्चोपविशंस्तथा। मृगप्रेप्सुर्महारौद्रे वने चरति निर्भयः ।। | 3-180-19a 3-180-19b |
स तत्रमनुजव्याघ्रो वने वनचरोपमः। पद्भ्यामभिसमापेदे भीमसेनो महाबलः ।। | 3-180-20a 3-180-20b |
स प्रविष्टो महारण्ये नादान्नदति चाद्भुतान्। त्रासयन्सर्वभूतानि महासत्वपराक्रमः ।। | 3-180-21a 3-180-21b |
ततो भीमस्य शब्देन भीताः सर्पा गुहाशयाः। अतिक्रान्तास्तु वेगेन जगामानुसृतः शनैः। ततोऽमरवरप्रख्यो भीमसेनो महाबलः ।। | 3-180-22a 3-180-22b 3-180-22c |
स ददर्श महाकायं भुजङ्गं रोमहर्षणम्। गिरिदुर्गे समापन्नं कायेनावृत्य कन्दरम् ।। | 3-180-23a 3-180-23b |
पर्वताभोगवर्ष्माणं भोगैश्चन्द्रार्कमण्डलैः। चित्राङ्गमङ्गजैश्चित्रैर्हरिद्रासदृशच्छविम् ।। | 3-180-24a 3-180-24b |
गुहाकारेण वक्रेण चतुर्दंष्ट्रेण राजता। दीप्ताक्षेणातिताम्रेण लिहानं सृक्विणी मुहुः ।। | 3-180-25a 3-180-25b |
त्रासनं सर्वभूतानां कालान्तकयमोपमम्। निःश्वासक्ष्वेडनादेन भर्त्सयन्तमिव स्थितम् ।। | 3-180-26a 3-180-26b |
स भीमं सहसाऽभ्येत्य पृदाकुः क्षुधितो भृशम्। जग्राहाजगरो ग्राहो भुजयोरुभयोर्बलात् ।। | 3-180-27a 3-180-27b |
तेन संस्पृष्टगात्रस्य भीमसेनस्य वै तदा। संज्ञा मुमोह सहसा वरदानेन तस्य हि ।। | 3-180-28a 3-180-28b |
दशनागसहस्राणि धारयन्ति हि यद्बलम्। इद्रलं भीमसेनस्य भुजयोरसमं परैः ।। | 3-180-29a 3-180-29b |
स तेजस्वी तथा तेन भुजगेन वशीकृतः। विम्फुरञ्शनकैर्भीमो न शशाक विचेष्टितुम् ।। | 3-180-30a 3-180-30b |
नागायुतसमप्राणः सिंहस्कन्धो महाभुजः। गृहीतो व्यजहात्सत्वं वरदानविमोहितः ।। | 3-180-31a 3-180-31b |
स हि प्रयत्नमकरोत्तीव्रमात्मविमोक्षणे। न चैनमशकद्वीरः कथंचित्प्रतिबाधितुम् ।। | 3-180-32a 3-180-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि आजगरपर्वणि अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 180 ।। |
3-180-10 तुङ्गं कालीयकं च काष्ठविशेषौ ।। 3-180-11 मरुधन्वसु गिरेर्निर्जलप्रदेशेषु। मरुर्ना गिरिधन्वनोरिति मेदिनी ।। 3-180-24 पर्वतस्याभोगः विस्तीर्णता तत्परिमाणं वर्ष्म शरीरं यस्य तम् ।। 3-180-27 पृदाकुः सर्पः ।। 3-180-31 सत्वं बुद्धिम् ।।
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