महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-261
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मुद्गलचित्तपरीक्षणाय दुर्वाससा षट्कृत्वोयाचनेष्यविकृतमनसा तेन तदातदाऽन्नदानेन तत्तोषणम् ।। 1 ।। तन्महिम्ना सविमानेन देवदूतेन सशरीरस्यैव मुद्गलस्य स्वर्गंप्रत्याह्नानम् ।। 2 ।। मुद्गलेन तंप्रति स्वर्गस्वरूपनिरूपणप्रार्थना ।। 3 ।।
युदिष्ठिर उवाच। | 3-261-1x |
व्रीहिद्रोणः परित्यक्तः कथं तेन महात्मना। कस्मै दत्तश्च भगवन्विधिना केन चात्थ मे ।। | 3-261-1a 3-261-1b |
प्रत्यक्षधर्मा भगवान्यस् तुष्टो हि कर्मभिः। सफलं तस्य जन्माहं मन्ये सद्धर्मचारिणः ।। | 3-261-2a 3-261-2b |
व्यास उवाच। | 3-261-3x |
शिलोञ्छवृत्तिर्धर्मात्मा मुद्गलः संयतेन्द्रियः। आसीद्राजन्कुरुक्षेत्रे सत्यवागनसूयकः ।। | 3-261-3a 3-261-3b |
अतिथिव्रती क्रियावांश्च कापोतीं वृत्तिमास्थितः। सत्रमिष्टीकृतंनाम समुपास्ते महातपाः ।। | 3-261-4a 3-261-4b |
सपुत्रदारो हि मुनिः पक्षाहारो बभूव ह। कपोतवृत्त्या पक्षेण व्रीहिद्रोयणमुपार्जयत् ।। | 3-261-5a 3-261-5b |
दर्शं च पौर्णमासं च कुर्वन्विगतमन्सरः। देवतातिथिशेषेण कुरुते देहयापनम् ।। | 3-261-6a 3-261-6b |
तत्रेन्द्रः सहितो देवैः साक्षात्रिभुवनेश्वरः। प्रत्यृह्णान्महाराज भागं पर्वणिपर्वणि ।। | 3-261-7a 3-261-7b |
स पर्वकाल्यं कृत्वा तु मुनिवृत्त्या समन्वितः। अतिथिभ्यो ददावन्नं प्रहृष्टेनान्तरात्मना ।। | 3-261-8a 3-261-8b |
व्रीहिद्रोणस्य तत्प्रीत्या ददतोऽन्नं महात्मनः। ऋषेर्मात्सर्यहीनस् वर्धत्यतिथिदर्शनात् ।। | 3-261-9a 3-261-9b |
तच्छतान्यपि भुञ्जन्ति ब्राह्मणानां मनीषिणाम्। मुनेस्त्यागविशुद्ध्या तु तदन्नं वृद्धिमृच्छति ।। | 3-261-10a 3-261-10b |
तं तु रशुश्राव धर्मिष्ठं मुद्गलं संशितव्रतम्। दुर्वासा नृप दिग्वासास्तमथाभ्याजगाम ह ।। | 3-261-11a 3-261-11b |
विभ्रच्चानियतं वेषमुन्मत्त इव पाण्डव। विकचः परुषा वाचो व्याहरन्विविधा मुनिः ।। | 3-261-12a 3-261-12b |
अभिगम्याथ तं विप्रमुवाच मुनिसत्तमः। अन्नार्थिनमनुप्राप्तं विद्धि मां मुनिसत्तम ।। | 3-261-13a 3-261-13b |
स्वागतं तेऽस्त्विति मुनिं मुद्गलः प्रत्यभाषत। पाद्यमाचमनीयं च प्रतिवेद्यान्नमुत्तमम् ।। | 3-261-14a 3-261-14b |
प्रादात्स तपसोपात्तं क्षुधितायातिथिप्रियः। उन्मत्ताय परां श्रद्धामास्थाय स धृतव्रतः ।। | 3-261-15a 3-261-15b |
ततस्तदन्नं रसवत्स एव क्षुधयाऽन्वितः। बुभुजे कृत्स्नमुन्मत्तः प्रादात्तस्मै च मुद्गलः ।। | 3-261-16a 3-261-16b |
भुक्त्वा चान्नं ततः सर्वमुच्छिष्टेनात्मनस्ततः। अथाङ्गं लिलिपेऽन्नेन यथागतमगाच्च सः ।। | 3-261-17a 3-261-17b |
`तेनैवात्मानमालिप्य हसन्गायन्प्रधावति। नृत्यते धावते चैव बुद्ध्या तत्क्रोशते तथा' ।। | 3-261-18a 3-261-18b |
एवं द्वितीये संप्राप्ते पर्वकाले मनीषिणः। आगम्य बुभुजे सर्वमन्नपुञ्छोपजीविनः ।। | 3-261-19a 3-261-19b |
निराहारस्तु स मुनिरुञ्छमार्जये पुनः। न चैनं विक्रियां नेतुमशकन्मुद्गलं क्षुधा ।। | 3-261-20a 3-261-20b |
न क्रोधो न च मात्सर्यं नावमानो न संभ्रमः। सपुत्रदारमुञ्छन्तमाविवेश द्विजोत्तमम् ।। | 3-261-21a 3-261-21b |
तथा तमुञ्छधर्माणं दुर्वासा मुनिसत्तमम्। उपतस्थे यथाकालं षट्कृत्वः कृतनिश्चयः ।। | 3-261-22a 3-261-22b |
न चास् मनसः कश्चिद्विकारो दृश्यते मुनेः। शुद्धसत्वस्य शुद्धं स ददृशे निर्मलं मनः ।। | 3-261-23a 3-261-23b |
तमुवाच ततः प्रीतः स मुनिर्मुद्गलं तदा। त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिन्दाता मात्सर्यवर्जितः ।। | 3-261-24a 3-261-24b |
क्षुद्धर्मसंज्ञां प्रणुदत्यादत्ते धैर्यमेव च। विषयानुसारिणी जिह्वा कर्षत्येव रसान्प्रति ।। | 3-261-25a 3-261-25b |
आहारप्रभवाः प्राणा मनो दुर्निग्रहं चलम्। मनसश्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्र्यं निश्चितं तपः ।। | 3-261-26a 3-261-26b |
श्रमेणोपार्जितं त्यक्तं न च दुःखेन चेतसा। तत्सर्वं भवता साधो यथावदुपपादितम् ।। | 3-261-27a 3-261-27b |
प्रीताः स्मोऽनुगृहीताश्च समेत्य भवता सह। इन्द्रियाभिजयो धैर्यं संविभागो दमः शमः। दया सत्यं च धर्मश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् ।। | 3-261-28a 3-261-28b 3-261-28c |
`लोकाः समस्ता धर्मेण धार्यन्ते सचराचराः। धर्मोपि धार्यते येन धृतियुक्त त्वयाऽऽत्मना ।। | 3-261-29a 3-261-29b |
विशुद्धसत्वसंपन्नो न त्वदन्योस्ति कश्चन'। जितास्ते कर्मभिर्लोकाः प्राप्तोसि परमां गतिम् ।। | 3-261-30a 3-261-30b |
अहो दानं विघुष्टं ते सुमहत्स्वर्गवासिभिः। सशरीरो भवान्गन्ता स्वर्गं सुचरितव्रत ।। | 3-261-31a 3-261-31b |
इत्येवं वदतस्तस्य तदा दुर्वाससो मुनेः। देवदूतो विमानेन मुद्गलं प्रत्युपस्थितः ।। | 3-261-32a 3-261-32b |
हंससारसयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना। कामगेन विचित्रेण दिव्यगन्धवता तथा ।। | 3-261-33a 3-261-33b |
उवाच चैनं विप्रर्षिं विमानं कर्मभिर्जितम्। समुपारोह संसिद्धिं प्राप्तोसि परमां मुने ।। | 3-261-34a 3-261-34b |
तमेवंवादिनमृषिर्देवदूतमुवाच ह। इच्छामि भवता प्रोक्तान्गुणान्स्वर्गनिवासिनां ।। | 3-261-35a 3-261-35b |
के गुणास्तत्रवसतां किं तपः कश्च निश्चयः। स्वर्गे तत्रसुखं किं च दोषो वा देवदूतक ।। | 3-261-36a 3-261-36b |
सतां साप्तपदं मित्रमाहुः सन्तः कुलोचिताः। मित्रतां च पुरस्कृत्य पृच्छामि त्वामहं विभो ।। | 3-261-37a 3-261-37b |
यदत्र तथ्यं पथ्यं च तद्ब्रवीह्यविचारयन्। श्रुत्वा तथा करिष्यामि व्यवसायं गिरा तव ।। | 3-261-38a 3-261-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि व्रीहिद्रौणिकपर्वणि एकषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 261 ।। |
3-261-2 प्रत्यक्षधर्मा नृणां धर्मस्य वेत्ता। भगवान् ईश्वरः ।। 3-261-3 उञ्छः कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलमिति यादवः। ते उभे वृत्तिर्जीवनं यस् स शिलोञ्छवृत्तिः ।। 3-261-4 कापोतींवृत्तिं अल्पसंग्रहरूपाम्। इष्टीकृतंइष्टिभिरेव निर्वर्त्यं नतु पश्वादिना सत्रं यज्ञम् ।। 3-261-9 व्रीहिद्रोणमात्रं यदा सिध्यति तदा ददाति तदा च दीयमानं तद्वर्धति वर्धते ।। 3-261-10 ऋच्छति प्राप्नोति ।। 3-261-12 विकचः हसन्मुण्डो वा ।। 3-261-19 द्वितीये पक्षे ।। 3-261-25 क्षुत् क्षुधा ।। 3-261-27 त्यक्तुं दुःखं शुद्धेन चेतसा इति ख. झ. ध. पाठः ।। 3-261-38 व्यवसायं निश्चयम् ।।
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