महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-217
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धर्मव्याधेन कौशिकाय स्वगृहप्रवेशनपूर्वकं वृद्धयोः स्वपित्रोः प्रदर्शनम् ।। 1 ।। तथा मातापितृविषये स्वानुसंधानप्रकारनिवेदनम् ।। 2 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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मार्कण्डेय उवाच। | 3-217-1x |
एवं संकथिते कृत्स्ने मोक्षधर्मे युधिष्ठिर। दृढप्रीतमना विप्रो धर्मव्याधमुवाच ह ।। | 3-217-1a 3-217-1b |
न्याययुक्तमिदं सर्वं भवता परिकीर्तितम्। न तेऽस्त्यविदितं किंचिद्धर्मेष्वभिसमीक्ष्यते ।। | 3-217-2a 3-217-2b |
व्याध उवाच। | 3-217-3x |
प्रत्यक्षं मम यो धर्मस्तं च पश्य द्विजोत्तम। येन सिद्धिरियं प्राप्ता मया ब्राह्मणपुङ्गव ।। | 3-217-3a 3-217-3b |
उत्तिष्ठ भगवन्क्षिप्रं प्रविश्याभ्यन्तरं गृहम्। द्रष्टुमर्हसि धर्मज्ञ मातरं पितरं च मे ।। | 3-217-4a 3-217-4b |
इत्युक्तः स प्रविश्याथ ददर्श परमार्चितम्। सौधं हृद्यं चतुःशालमतीव च मनोरमम् ।। | 3-217-5a 3-217-5b |
देवतागृहसंकाश दैवतैश्च सुपूजितम्। शयनासनसंबाधं गन्धैश्च परमैर्युतम् ।। | 3-217-6a 3-217-6b |
तत्रशुक्लाम्बरधरौ पितरावस्य पूजितौ। कृताहारौ तु संतुष्टावुपविष्टौ वरासने ।। | 3-217-7a 3-217-7b |
`तस्य व्याधस्य पितरौ ब्राह्मणः संददर्श ह'। धर्मव्याधस्तु तौ दृष्ट्वा पादेषु शिरसाऽपतत् ।। | 3-217-8a 3-217-8b |
वृद्धावूचतुः। | 3-217-9x |
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ धर्मज्ञ धर्मस्त्वामभिरक्षतु। प्रीतौ स्वस्तव शौचेन दीर्घमायुरवाप्नुहि। [गतिमिष्टां तपो ज्ञानं मेधां च परमां गतः] ।। | 3-217-9a 3-217-9b 3-217-9c |
सत्पुत्रेण त्वया पुत्र नित्यं काले सुपूजितौ। `सुखमेव वसावोऽत्र देवलोकगताविव' ।। | 3-217-10a 3-217-10b |
न तेऽन्यद्दैवतं किंचिद्दैवतेष्वपि वर्तते। प्रयतसत्वाद्द्विजातीनांदमेनासि समनवितः ।। | 3-217-11a 3-217-11b |
पितुः पितामहा ये च तथैव प्रपितामहाः। प्रीतास्ते सततं पुत्र दमेनावां च पूजया ।। | 3-217-12a 3-217-12b |
मनसा कर्मणा वाचा शुश्रूषा नैव हीयते। न चान्या हि तथा बुद्धिर्दृश्यते सांप्रतं तव ।। | 3-217-13a 3-217-13b |
जामदग्न्येन रामेण यथा वृद्धौ सुपूजितौ। तथा त्वया कृतंसर्वंतद्विशिष्टं च पुत्रक ।। | 3-217-14a 3-217-14b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-217-15x |
ततस्तं ब्राह्मणं ताभ्यां धर्मव्याधो न्यवेदयत्। तौ स्वागतेन तं विप्रमर्चयामासतुस्तदा ।। | 3-217-15a 3-217-15b |
प्रतिगृह्यच तां पूजां द्विजः पप्रच्छ तावुभौ। सपुत्राभ्यां सभृत्याभ्यां कच्चिद्वां कुशलं गृहे। अनामय च वां कच्चित्सुखं वेह शरीरयोः ।। | 3-217-16a 3-217-16b 3-217-16c |
वृद्धावूचतुः। | 3-217-17x |
कुशलं नौ गृहे विप्र भृत्यवर्गे च सर्वशः। कच्चित्त्वमप्यविघ्नेन संप्राप्तो भगवन्निति ।। | 3-217-17a 3-217-17b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-217-18x |
हाढमित्येव तौ विप्रः प्रत्युवाच मुदान्वितः। धर्मव्याधस्तु तं विप्रमर्थवद्वाक्यमब्रवीत् ।। | 3-217-18a 3-217-18b |
पिता माता च भगवन्नेतौ मे दैवतं परम्। यद्दैवतेभ्यः कर्तव्यं तदेताभ्यां करोम्यहम् ।। | 3-217-19a 3-217-19b |
त्रयस्त्रिंशद्यथा देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः। संपूज्याः सर्वलोकस्य तथा वृद्धाविमौ मम ।। | 3-217-20a 3-217-20b |
उपाहारानाहरन्तो देवतानां यथा द्विजः। कुर्वन्ति तद्वदेताभ्यां करोम्यहमतन्द्रितः ।। | 3-217-21a 3-217-21b |
एतौ मे परमं ब्रह्मन्पिता माता च दैवतम्। एतौ पुष्पैः फलैरन्नैस्तोषयामि सदा द्विज ।। | 3-217-22a 3-217-22b |
एतावेवाग्नयो मह्यं यान्वदन्ति मनीषिणः। यज्ञा वेदाश्च चत्वारः सर्वमेतौ मम द्विज ।। | 3-217-23a 3-217-23b |
एतदर्थं मम प्राणा भार्या पुत्रः सुहृज्जनः। सपुत्रदारः शुश्रूषां नित्यमेव करोम्यहम् ।। | 3-217-24a 3-217-24b |
स्वयं च स्नापयाम्येतौ तथा पादौ प्रधावये। आहारं च प्रयच्छामि स्वयंच द्विजसत्तम ।। | 3-217-25a 3-217-25b |
अनुकूलाः कथा वच्मि विप्रियं परिवर्जये। अधर्मेणापि संयुक्तं प्रियमाभ्यां करोम्यहम् ।। | 3-217-26a 3-217-26b |
धर्ममेव गुरुं मत्वा साक्षादेतौ द्विजोत्तम। अतन्द्रितः सदा विप्र शुश्रूषां वै करोम्यहम् ।। | 3-217-27a 3-217-27b |
पञ्चैव गुरवो ब्रह्मनपुरुषस्य बुभूषतः। पिता माताऽग्निरात्मा च गुरुश्च द्विजसत्तम ।। | 3-217-28a 3-217-28b |
एतेषु यस्तु वर्तेत सम्यगेव द्विजोत्तम। भवेयुरप्रयस्तेन परिचीर्णास्तु नित्यशः। गार्हस्थ्ये वर्तमानस्य एष धर्मः सनातनः ।। | 3-217-29a 3-217-29b 3-217-29c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 217 ।। |
3-217-6 शयनासनसबाधं शयनादिसंकीर्णम् ।। 3-217-16 वां युवयोः ।। 3-217-17 नौ आवयोः ।।
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