महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-103
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लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति विन्ध्यगिरेरिवृद्धेरगस्त्येन तन्निरोधस् च हेतुकथनम् ।। 1 ।। देवैः समुद्रशोषणं प्रार्थितेनागस्त्येन तैःसह समुद्रंप्रति गमनम् ।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 3-103-1x |
किमर्थं सहसा विन्ध्यः प्रवृद्धः क्रोधमूर्च्छितः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महामुने ।। | 3-103-1a 3-103-1b |
लोमश उवाच। | 3-103-2x |
अद्रिराजं महाघोरं रमेरुं कनकपर्वतम्। उदयास्तमने भानुः प्रदक्षिणमवर्तत ।। | 3-103-2a 3-103-2b |
तं तु दृष्ट्वा तथा विन्ध्य शैलः सूर्यमथाब्रवीत्। यथा हि मेरुर्भवता नित्यशः परिगम्यते ।। | 3-103-3a 3-103-3b |
प्रदक्षिणश्च क्रियते मामेवं करु भास्कर। एवमुक्तस्ततः सूर्यः शैलेन्द्रं प्रत्यभापत ।। | 3-103-4a 3-103-4b |
नाहमात्मेच्छया शैल करोम्येनं प्रदक्षिणम्। एष मार्गः प्रदिष्टो मे येनेदं निर्मितं जगत् ।। | 3-103-5a 3-103-5b |
एवमुक्तस्ततः क्रोधात्प्रवृद्धः सहसाऽचलः। सूर्याचन्द्रमसोर्मार्गं रोद्धुमिच्छन्परंतप ।। | 3-103-6a 3-103-6b |
ततो देवाः सहिताः सर्व एव। सेन्द्राः समागम्य महाद्रिराजम्। निवारयामासुरुपायतस्तं न च स्म तेषां वचनं चकार ।। | 3-103-7a 3-103-7b 3-103-7c 3-103-7d |
अथाभिजग्मुर्मुनिमाश्रमस्थं तपस्विनं धर्मभृतां वरिष्ठम्। अगस्त्यमत्यद्भुतवीर्यदीप्तं तं चार्थमूचुः सहिताः सुरास्ते ।। | 3-103-8a 3-103-8b 3-103-8c 3-103-8d |
सूर्याचन्दर्मसोर्मार्गं नक्षत्राणां गतिं तथा। शैलराजो वृणोत्येप विन्ध्यः क्रोधवशानुगः ।। | 3-103-9a 3-103-9b |
तं निवारयितुं शक्तो नान्यः कश्चिद्द्विजोत्तम। ऋते त्वां हि महाभाग तस्मादेनं निवारय ।। | 3-103-10a 3-103-10b |
तच्छ्रुत्वा वचनं विप्रः सुराणां शैलमभ्यगात्। सोभिगम्याब्रवीद्विन्ध्यं सदारः समुपस्थितः ।। | 3-103-11a 3-103-11b |
मार्गमिच्छाम्यहं दत्तं भवता पर्वतोत्तम। दक्षिणामभिगन्तास्मि दिशे कार्येण केनचित् ।। | 3-103-12a 3-103-12b |
यावदागमनं मह्यं तावत्त्वं प्रतिपालय। निवृत्ते मयि शैलेन्द्र ततो वर्धस्व कामतः ।। | 3-103-13a 3-103-13b |
एवं स समयं कृत्वाविन्ध्येनामित्रकर्शन। अद्यापि दक्षिणाद्देशाद्वारुणिर्न निवर्तते ।। | 3-103-14a 3-103-14b |
विन्ध्योऽपितद्भयाद्राजन्कुञ्चिताङ्गो न वर्धते। अगस्त्यस्य प्रभावेण यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।। | 3-103-15a 3-103-15b |
कालेयास्तु यथा राजन्सुरैः सर्वैर्निषूदिताः। अगस्त्याद्वरमासाद्य तन्मे निगदतः शृणु ।। | 3-103-16a 3-103-16b |
त्रिदशानां वचः श्रुत्वा मैत्रावरुणिरब्रवीत्। किमर्थमभियाता स्थ वरं मत्तः कमिच्छथ ।। | 3-103-17a 3-103-17b |
एवमुक्तास्ततस्तेन देवता मुनिमब्रुवन्। `सर्वे प्राञ्जलयो भूत्वा पुरन्दरपुरोगमाः' ।। | 3-103-18a 3-103-18b |
एवं त्वयोच्छाम कृतं हि कार्यं महार्णवं पीयमानं महात्मन्। ततो वधिष्याम सहानुबन्धा- न्कालोपसृष्टान्सुरविद्विषस्तान् ।। | 3-103-19a 3-103-19b 3-103-19c 3-103-19d |
त्रिदशानां वचः श्रुत्वा तथेति मुनिरब्रवीत्। करिष्ये भवतां कामं लोकानां च महत्सुखम् ।। | 3-103-20a 3-103-20b |
एवमुक्त्वा ततोऽगच्छत्समुद्रं सरितांपतिम्। ऋषिभिश्च तपःसिद्धै सार्धं देवैश्च सुव्रत ।। | 3-103-21a 3-103-21b |
मनुष्योरगगन्धर्वयक्षकिंपुरुषास्तथा। अनुजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुकानास्तदद्भुतम् ।। | 3-103-22a 3-103-22b |
ततोऽभ्यगच्छन्सहिताः समुद्रं भीमनिःखनम्। नृत्यन्तमिव चोर्मीभिर्वल्गन्तमिव वायुना ।। | 3-103-23a 3-103-23b |
हसन्तमिव फेनौघैः स्खलन्तं कन्दरेषु च। तानाग्राहसमाकीर्णं नानाद्विजगणान्वितम् ।। | 3-103-24a 3-103-24b |
अगस्त्यसहिता देवाः सगन्धर्वमहारगाः। ऋषयश्च महाभागाः समासेदुर्महोदधिम् ।। | 3-103-25a 3-103-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्तयात्रापर्वणि त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 103 ।। |
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