महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-208
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मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरंप्रति पतिव्रतामाहात्म्यकथनारम्भः ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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वैशंपायन उवाच। | 3-208-1x |
ततो युधिष्ठिरो राजा मार्कण्डेयं महाद्युतिम्। प्रपच्छ भरतश्रेष्ठ धर्मप्रश्नं स दुर्वचम् ।। | 3-208-1a 3-208-1b |
श्रोतुमिच्छामि भगवन्स्त्रीणां माहातम्यमुत्तमम्। कथ्यमानं त्वया विप्र सूक्ष्मं धर्म्यं च तत्त्वतः ।। | 3-208-2a 3-208-2b |
प्रत्यक्षमिह विप्रर्षे देवा दृश्यन्ति सत्तम। सूर्याचन्द्रमसौ वायुः पृथिवी वह्निरेव च ।। | 3-208-3a 3-208-3b |
पिता माता च भगवान्गाव एव च सत्तम। यच्चान्यदेव विहितं तच्चापि भृगुनन्दन ।। | 3-208-4a 3-208-4b |
मन्येऽहं गुरुवत्सर्वमेकपत्न्यस्तथा स्त्रियः। पतिव्रतानां शुश्रूषा दुष्करा प्रतिभाति मे। पतिव्रतानां महात्म्यं वक्तुमर्हसि नः प्रभो ।। | 3-208-5a 3-208-5b 3-208-5c |
निरुध्य चेन्द्रियग्रामं मनः संरुध्य चानघ। पतिं दैवतवच्चापि चिन्तयन्त्य स्थिता हि या ।। | 3-208-6a 3-208-6b |
भगवन्दुष्करं त्वेतत्प्रतिभाति मम प्रभो। मातापित्रोश्च शुश्रूषा स्त्रीणां भर्तरि च द्विज ।। | 3-208-7a 3-208-7b |
स्त्रीणां धर्मात्सुघोराद्धि नान्यं पश्यामि दुष्करम्। साध्वाचाराः स्त्रियो ब्र्हमन्कुर्वन्तीह सदादृताः ।। | 3-208-8a 3-208-8b |
दुष्करं खलु कुर्वन्ति पितरो मातरश्च वै। एकपत्न्यश्च या नार्यो याश् सत्यं वदन्त्युत ।। | 3-208-9a 3-208-9b |
कुक्षिणा दशमासांश्च गर्भं संधारयन्ति याः। नार्यः कालेन संबूय किमद्भुततरं ततः ।। | 3-208-10a 3-208-10b |
संशयं परमं प्राप्य वेदनामतुलामपि। प्रजायन्ते सुतान्नार्यो दुःखेन महता विभो ।। | 3-208-11a 3-208-11b |
पुष्णन्ति चापि महता स्नेहेन द्विजपुङ्गव। `चिन्तयन्ति ततश्चापि किंशीलोऽयंभविष्यति' ।। | 3-208-12a 3-208-12b |
याश्च क्रूरेषु सर्वेषु वर्तमाना जुगुप्सिताः। स्वकर्म कुर्वन्ति सदा दुष्करं तच्च मे मतम् ।। | 3-208-13a 3-208-13b |
क्षत्रधर्मसमाचारतत्त्वं व्याख्याहि मे द्विज। धर्मः सुदुर्लभो विप्र नृशंसेन महात्मना ।। | 3-208-14a 3-208-14b |
एतदिच्छामि भगवन्प्रश्नं प्रश्नविदांवर। श्रोतुं भृगुकुलश्रेष्ठ शुश्रूषे तव सुव्रत ।। | 3-208-15a 3-208-15b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-208-16x |
हन्त तेऽहं समाख्यास्ये प्रश्नमेतं सुदुर्वचम्। तत्त्वेन भरतश्रेष्ठ गदतस्तन्निबोध मे ।। | 3-208-16a 3-208-16b |
मातरंश्रेयसीं तात पितृनन्ये तु मेनिरे। दुष्करं कुरुते माता विवर्धयति या प्रजाः ।। | 3-208-17a 3-208-17b |
तपसा देवतेज्याभिर्वन्दनेन तितिक्षया। सुप्रशस्तैरुपायैश्चापीहन्ते पितरः सुतान् ।। | 3-208-18a 3-208-18b |
एवं कृच्छ्रेण महता पुत्रं प्राप्य सुदुर्लभम्। चिन्तयन्ति सदा वीर कीदृशोऽयं भविष्यति ।। | 3-208-19a 3-208-19b |
आशंसते हि पुत्रेषु पिता माता च भारत। यशः कीर्तिमथैश्वर्यं तेजो धर्मं तथैव च ।। | 3-208-20a 3-208-20b |
`मातुः पितुश्च राजेन्द्र सततं हितकारिंणोः'। तयोराशां तु सफलां यः करोति स धर्मवित् ।। | 3-208-21a 3-208-21b |
पिता माता च राजेन्द्र तुष्यतो यस् नित्यशः। इह प्रेत्य च तस्याथ कीर्तिर्धर्मश्र शाश्वतः ।। | 3-208-22a 3-208-22b |
नैव यज्ञक्रियाः काश्चिन्न श्राद्धं नोपवासकम्। या तु भर्तरि शुश्रूषा तया स्वर्गं जयत्युत ।। | 3-208-23a 3-208-23b |
एतत्प्रकरणं राजन्नधिकृत्य युधिष्ठिर। पतिव्रतानां नियतं धर्मं चावाहितः शृणु ।। | 3-208-24a 3-208-24b |
।। इति श्रीमन्महाबारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वयणि अष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 208 ।। |
3-208-13 ये चक्रूरेषु इति झ. पाठः ।। 3-208-20 प्रजाधर्मं इति झ. पाठः ।।
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