महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-252
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शकुन्यादिभिर्बहुधा परिसान्त्वनेपि दुर्योधनेन प्रायोपवेशानिश्चयादनिवर्तने पातालवासिनिर्दैत्यदानवैस्तदानयनाय जपहोमादिना कृत्यासर्जनम् ।। 1 ।। तथा कृत्यया प्रायोपविष्टस् दुर्योधनस्य पातालंप्रत्यानयनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-252-1x |
प्रायोपविष्टं राजानं दुर्योधनममर्षणम्। उवाच सान्त्वयन्राजञ्शकुनिः सौबलस्तदा ।। | 3-252-1a 3-252-1b |
सम्यगुक्तं हि कर्णेन तच्छ्रुतं कौरव त्वया। मया हृतां श्रियं स्फीतां तां मोहादपहासि किम् ।। | 3-252-2a 3-252-2b |
त्वमबुद्ध्या नृपवर प्राणानुत्स्रष्टुमिच्छसि। अद्य वाऽप्यवगन्छामि न वृद्धाः सेवितास्त्वया ।। | 3-252-3a 3-252-3b |
यः समुत्पतितं हर्षं दैन्यं वा न नियच्छति। स नश्यति श्रियं प्राप्य पात्रमाममिवाम्भसि ।। | 3-252-4a 3-252-4b |
अतिभीरुं मृदुं क्लीबं दीर्घसूत्रं प्रमादिनम्। व्यसनाद्विषयाक्रान्तं न भजन्ति नृपं श्रिताः ।। | 3-252-5a 3-252-5b |
सत्कृतस्य हि ते शोको विपरीते कथं भवेत्। मा कृतं शोभनं पार्थैः शोकमालम्ब्य नाशय ।। | 3-252-6a 3-252-6b |
यत्र हर्षस्त्वया कार्यः सत्कर्तव्याश्च पाण्डवाः। तत्र शोचसि राजेन्द्रविपरीतमिदं तव ।। | 3-252-7a 3-252-7b |
प्रसीदमा त्यजात्मानं तुष्टश्च सुकृतं स्मर। कप्रयच्छ राज्यं पार्थानां यशो धर्ममवाप्नुहि। क्रियामेतां समाज्ञाय कृतघ्नो न भविष्यसि ।। | 3-252-8a 3-252-8b 3-252-8c |
सौभ्रात्रं पाण्डवैः कृत्वा समवस्ताप्य चैव तान्। पित्र्यं राज्यं प्रयच्छैषां ततः सुखमवाप्स्यसि ।। | 3-252-9a 3-252-9b |
वैशंपायन उवाच। | 3-252-10x |
शकुनेस्तु वचः श्रुत्वा दुःशासनमवेक्ष्य च। पादयोः पतितं वीरं विकृतं भ्रातृसौहृदात् ।। | 3-252-10a 3-252-10b |
बाहुभ्यां साधुजाताभ्यां दुःशासनमरिंदमम्। उत्थाप्य संपरिष्वज्य प्रीत्याऽजिघ्रत मूर्धनि ।। | 3-252-11a 3-252-11b |
कर्णसौबलयोश्चापि संश्रुत्य वचनान्यसौ। निर्वेदं परमं गत्वा राजा दुर्योधनस्तदा। व्रीडयाऽभिपरीतात्मा नैराश्यमगमत्परम् ।। | 3-252-12a 3-252-12b 3-252-12c |
सुहृदां चैव तच्छ्रुत्वा समन्युरिदमब्रवीत्। न धर्मधनसौख्येन नैश्वर्येण न चाज्ञया ।। | 3-252-13a 3-252-13b |
नैव भोगैश्च मे कार्यं मा विहन्यत गच्छत। निश्चितेयं मम मतिः स्थिता प्रायोपवेशने ।। | 3-252-14a 3-252-14b |
गच्छध्वं नगरं सर्वे पूज्याश्च गुरवो मम। त एवमुक्ताः प्रत्यूच् राजानमरिमर्दनम् ।। | 3-252-15a 3-252-15b |
या गतिस्तव राजेन्द्र साऽस्माकमपि भारत। कथं वा संप्रवेक्ष्यामस्त्वद्विहीनाः पुरं वयम् ।। | 3-252-16a 3-252-16b |
वैशंपायन उवाच। | 3-252-17x |
स सुहृद्भिरमात्यैश्च भातृभिः स्वजनेन च। बहुप्रकारमप्युक्तो निश्चयान्न व्यचाल्यत ।। | 3-252-17a 3-252-17b |
दर्भास्तरणमास्तीर्य निश्चयाद्धृतराष्ट्रजः। संस्पृश्यापः शुचिर्भूत्वा भूतले समुपस्थितः ।। | 3-252-18a 3-252-18b |
कुशचीराम्बरधरः परं नियममास्थितः। वाग्यतो राजशार्दूलः स स्वर्गगतिकाम्यया ।। | 3-252-19a 3-252-19b |
मनसोपचितिं कृत्वा निरस् च बहिःक्रियाः। `तस्थौप्रायोपवेशेऽथमतिं कृत्वा सुनिश्चयाम्' ।। | 3-252-20a 3-252-20b |
अथ तं निश्चयं तस्य बुद्ध्वा दैतेयदानवाः। पातालवासिनो रौद्राः पूर्वं देवैर्विनिर्जिताः ।। | 3-252-21a 3-252-21b |
ते स्वपक्षक्षयं तं तु ज्ञात्वा दुर्योधनस्य वै। आह्वानाय तदा चक्रुः कर्म वैतानसंभवम् ।। | 3-252-22a 3-252-22b |
बृहस्पत्युशनोक्तैश्च मन्त्रैर्मन्त्रविशारदाः। अथर्ववेदप्रोक्तैश्च याश्चौपनिषदाः क्रियाः। मन्त्रजप्यसमायुक्तास्तास्तदा समवर्तयन् ।। | 3-252-23a 3-252-23b 3-252-23c |
जुह्वत्यग्नौ हविः क्षीरं मन्त्रवत्सुसमाहिताः। ब्राह्मणा वेदवेदाङ्गपारगाः सुदृढव्रताः ।। | 3-252-24a 3-252-24b |
`अध्वर्यवो दानवानां कर्म प्रावर्तयंस्ततः' ।। | 3-252-25a |
कर्मसिद्धौ तदा तत्र जृम्भमाणा महाद्भुता। कृत्या समुत्थिता राजन्किं करोमीति चाब्रवीत् ।। | 3-252-26a 3-252-26b |
आहुर्दैत्याश्च तां तत्र सुप्रीतेनान्तरात्मना। प्रायोपविष्टं राजानं धार्तराष्ट्रमिहानय ।। | 3-252-27a 3-252-27b |
तथेति च प्रतिश्रुत्य सा कृत्या प्रययौ तदा। निमेषादगमच्चापि यत्र राजा सुयोधनः ।। | 3-252-28a 3-252-28b |
समादाय च राजानं प्रविवेश रसातलम्। दानवानां मुहूर्ताच्च पुरतस्तं न्यवेदयत् ।। | 3-252-29a 3-252-29b |
तमानीतं नृपं दृष्ट्वा रात्रौ संगत्य दानवाः। प्रहृष्टमनसः सर्वे किंचिदुत्फुल्ललोचनाः ।। | 3-252-30a 3-252-30b |
`दृढमेनं परिष्यज्य दृष्ट्वा च कुशलं तदा'। साभिमानमिदं वाक्यं दुर्योधनमथाब्रुवन् ।। | 3-252-31a 3-252-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि घोषयात्रापर्वणि द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। |
3-252-4 पात्रं मृत्पात्रम्। आममपक्वम् ।। 3-252-5 क्लीवं सामर्थ्यहीनम्। दीर्घसूत्रं चिरकारिणम्। प्रमादिनमनवहितम्। व्यसनात् द्यूतपानमृगयादिरूपात्। विषयैः स्त्र्यादिभिराक्रान्तम्। त्वं तु तेषां मध्ये प्रमादी विषयाक्रान्तश्चेति भावः ।। 3-252-6 पार्थैः कृतं मा नाशयेति संबन्धः ।। 3-252-8 आत्मानं शरीरं मा त्यज ।। 3-252-10 विकृतं म्लानम् ।। 3-252-12 निर्वेदं जीविते वैराग्यम्। नैराश्यं राज्यलाभे इति शेषः ।। 3-252-13 समन्युः दैन्यवान्। धर्मेण धनेन सौख्येन वा न मम कार्यमिति संबन्धः। धर्मधनाभ्यां यत्सौख्यं तेन वा ।। 3-252-14 मा विहन्यत मम संकल्पं मा नाशयत ।। 3-252-19 वाग्यतो मौनी ।। 3-252-20 मनसा उप समीपे चितिं दाहार्थं काष्ठसंचयं कृत्वासंकल्प्य अवश्यं मर्तव्यमिति निश्चित्येत्यर्थः। बहिःक्रियाः स्नानपानाद्याः ।। 3-252-22 वैतानसंभवमग्निविस्तारसाध्यं नवकुण्ड्यादिविधानम् ।। 3-252-23 उपनिषदि आरण्यके प्रोक्ताः औपनिषदाः। समवर्तयन् संप्रावर्तयन् दैतेयदानवा इतिपूर्वेण संबन्धः ।। 3-252-26 कृत्या आज्ञाकरी देवता ।।
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