महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-297
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कदाचन नारदनिर्दिष्टेसत्यवतो मृतिदिवसे सावित्र्या परशुहस्तस्य वनंगच्छतो भर्तुरनुगमनम् ।। 1 ।।
मार्कण्डेय उवाच। | 3-297-1x |
ततः काले बहुतिथे व्यतिक्रान्ते कदाचन। प्राप्तः स कालो मर्व्यं यत्रसत्यवता नृप ।। | 3-297-1a 3-297-1b |
गणयन्त्याश्च सावित्र्या दिवसदिवसे गते। यद्वाक्यं नारदेनोक्तं वर्तते हृदि नित्यशः ।। | 3-297-2a 3-297-2b |
चतुर्थेऽहनि मर्तव्यमिति संचिन्त्य भामिनी। व्रतं त्रिरात्रमुद्दिश्य दिवारात्रं स्थिताऽभवत् ।। | 3-297-3a 3-297-3b |
`त्रयोदश्यां चोपवासं प्रतिपत्सु च पारणम्। आयुष्यं वर्धते भर्तुर्व्रतेनानि भारत' ।। | 3-297-4a 3-297-4b |
तं श्रुत्वा रकनियमं तस्या भृशं दुःखान्वितो नृपः। उत्थाय वाक्यं सावित्रीमब्रवीत्परिसान्त्वयन् ।। | 3-297-5a 3-297-5b |
अतितीव्रोऽयमारम्भस्त्वयाऽऽरब्धो नृपात्मजे। तिसृणां वसतीनां हि स्तानं परमदुश्चरम् ।। | 3-297-6a 3-297-6b |
सावित्र्युवाच। | 3-297-7x |
न कार्यस्तात संतापः पारयिष्याम्यहं व्रतम्। व्यसंसायकृतं हीदं व्यवसायश्च कारणम् ।। | 3-297-7a 3-297-7b |
द्युमत्सेन उवाच। | 3-297-8x |
व्रतं भिन्धीति वक्तुं त्वां नास्मि शक्तः कथंचन। पारयस्वेति वचनं युक्तमस्मद्विधो वदेत् ।। | 3-297-8a 3-297-8b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-297-9x |
एवमुक्त्वा द्युमत्सेनो विरराम महामनाः। तिष्ठन्ती चैव सावित्री काण्ठभूतेव लक्ष्यते ।। | 3-297-9a 3-297-9b |
श्वोभूते भर्तृमरणे सावित्र्या भरतर्षभ। दुःखान्वितायास्तिष्ठन्त्याः सा रात्रिर्व्यत्यवर्तत ।। | 3-297-10a 3-297-10b |
अद्य तद्दिवसं चेति हुत्वा दीप्तं हुताशनम्। युगमात्रोदिते सूर्येकृत्वा पौर्वाङ्णिकीः क्रियाः ।। | 3-297-11a 3-297-11b |
`व्रतं समाप्यसावित्री स्नात्वा शुद्धा यशस्विनी'। ततः सर्वान्द्विजान्वृद्धाञ्श्वश्रूं श्वशुरमेव च। अभिवाद्यानुपूर्व्येण प्राञ्जलिर्नियता स्थिता ।। | 3-297-12a 3-297-12b 3-297-12c |
अवैधव्याशिषस्ते तु सावित्र्यर्थं हिताः शुभाः। ऊचुस्तपस्विनः सर्वे तपोवननिवासिनः ।। | 3-297-13a 3-297-13b |
एवमस्त्विति सावित्री ध्यानयोगपरायणा। मनसा ता गिरः सर्वाः प्रत्यगृह्णात्तपस्विनी ।। | 3-297-14a 3-297-14b |
तं कालं तं मुहूर्तं च प्रतीक्षन्ती नृपात्मजा। यथोक्तं नारदवचश्चिन्तयन्ती सुदुःखिता ।। | 3-297-15a 3-297-15b |
ततस्तु श्वश्रूश्वशुरावूचतुस्तां नृपात्मजाम्। एकान्तमास्थितां वाक्यं प्रीत्या भरतसत्तम ।। | 3-297-16a 3-297-16b |
व्रतं यथोपदिष्टं तु तथा तत्पारितं त्वया। आहारकालः संप्राप्तः क्रियतां यदनन्तरम् ।। | 3-297-17a 3-297-17b |
सावित्र्युवाच। | 3-297-18x |
अस्तं गते मयाऽऽदित्ये भोक्तव्यं कृतकामया। एष मे हृदि संकल्पः समयश्च कृतो मया ।। | 3-297-18a 3-297-18b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-297-19x |
एवं संभाषमाणायाः सावित्र्या भोजनं प्रति। स्कन्धे परशुमादाय सत्यवान्प्रस्थितो वनम् ।। | 3-297-19a 3-297-19b |
सावित्री त्वाह भर्तारं नैकस्त्वं गन्तुमर्हसि। सह त्वया गमिष्यामि न हित्वां हातुमुत्सहे ।। | 3-297-20a 3-297-20b |
सत्यवानुवाच। | 3-297-21x |
वनं न गतपूर्वं ते दुःख पन्थाश्च भामिनि। व्रतोपवासक्षामा च कथं पद्भ्यां गमिष्यसि ।। | 3-297-21a 3-297-21b |
सावित्र्युवाच। | 3-297-22x |
उपवासान्न मे ग्लानिर्नास्ति चापि परिश्रमः। गमने च कृतोत्साहां प्रतिषेद्धुं न माऽर्हसि ।। | 3-297-22a 3-297-22b |
सत्यवानुवाच। | 3-297-23x |
यदि ते गमनोत्साहः करिष्यामि तव प्रयम्। मम त्वामन्त्रय गुरून्न मां दोषः स्पृशेदयम् ।। | 3-297-23a 3-297-23b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-297-24x |
साऽभिवाद्याब्रवीच्छ्वश्रूं श्वशुरं च महाव्रता। अयं गच्छति मे भर्ता फलाहारो महावनम् ।। | 3-297-24a 3-297-24b |
इच्छेयमभ्यनुज्ञाता आर्यया श्वशुरेण ह। अनेन सह निर्गन्तुं न मेऽद्य विरहः क्षमः ।। | 3-297-25a 3-297-25b |
गुर्वग्निहोत्रार्तकृतेप्रस्थितश्च सुतस्तव। न निवार्यो निवार्यः स्यादन्यथा प्रस्थितो वनम् ।। | 3-297-26a 3-297-26b |
संवत्सरः किंचिदूनो न निष्क्रान्ताऽहमाश्रमात्। वनं कुसुमितं द्रष्टुं परं कौतूहलं हि मे ।। | 3-297-27a 3-297-27b |
द्युमत्सेन उवाच। | 3-297-28x |
यदा प्रभृति सावित्री पित्रा दत्ता स्नाषु मम। नानयाऽभ्यर्थनायुक्तमुक्तपूर्वं स्मराम्यहम् ।। | 3-297-28a 3-297-28b |
तदेषा लभतां कामं यथाभिलषितं वधूः। अप्रमादश्च कर्तव्यः पुत्रि सत्यवतः पथि ।। | 3-297-29a 3-297-29b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-297-30x |
उभाभ्यामभ्यनुज्ञाता सा जगाम यशस्विनी। सहभर्त्रा हसन्तीव हृदयेन विदूयता ।। | 3-297-30a 3-297-30b |
सा वनानि विचित्राणि रमणीयानि सर्वशः। मयूरगणजुष्टानि ददर्श विपुलेक्षणा ।। | 3-297-31a 3-297-31b |
नदीः पुण्यवहाश्चैव पुष्पितांश्च नगोत्तमान्। सत्यवानाह पश्येति सावित्रीं मधूरं वचः ।। | 3-297-32a 3-297-32b |
नीरीक्षमाणा भर्तारं सर्वावस्थमनिन्दिता। मृतमेव हिं मेने काले मुनिवचः स्मरन् ।। | 3-297-33a 3-297-33b |
अनुव्रजन्ती भर्तारं जगाम मृदुगामिनी। द्विधेव हृदयं कृत्वा तं च कालमवेक्षती ।। | 3-297-34a 3-297-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि पतिब्रतामाहात्म्यपर्वणि सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 297 ।। |
3-297-6 वसतीनां स्थानं भोजनत्रयनिरोधः। उपवसतीत्यादौ वसतेस्तादर्थ्यदर्शनात् ।। 3-297-7 पारयिष्यामि समापयिष्यामि। व्यवसायकृतमुद्योगकृतम् ।। 3-297-11 रकयुगं हस्तचतुष्कं तावदुदिते उपरि याते ।। 3-297-33 सर्वावस्थमतन्द्रिता इति क. थ. पाठः। स्मरन्निति व्यत्ययेन पुंस्त्वम् ।।
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