महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-311
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इन्द्रेण ब्राह्मणवेपधारणेन कर्णप्रति कवचकुण्डलयाचनम् ।।
तस्येन्द्रत्वं जानता कर्णेन तस्माच्छक्तिग्रहणपूर्वकं तस्मै कवचकुण्डलदानम् ।।
वैशंपायन उवाच। | 3-311-1x |
देवराजमनुप्राप्तं ब्राह्मणच्छद्मनाऽऽवृतम्। दृष्ट्वास्वागतमित्याह न बुबोधास्य मानसम् ।। | 3-311-1a 3-311-1b |
हिरण्यकण्ठीः प्रमदा ग्रामान्वा बहुगोकुलान्। किं ददानीति तं विप्रमुवाचाधिरथिस्ततः ।। | 3-311-2a 3-311-2b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-311-3x |
हिरण्यकण्ठ्यः प्रमदा यच्चान्यत्प्रीतिवर्धनम्। नाह दत्तमिहेच्छामि तदर्थिभ्यः प्रदीयताम् ।। | 3-311-3a 3-311-3b |
यदेतत्सहजं वर्म कुण्डले च तवानघ। एतदुत्कृत्य मे देहि यदि सत्यव्रतो भवान् ।। | 3-311-4a 3-311-4b |
एतदिच्छाम्यहं भिक्षां त्वया दत्तां परंतप। एष मे सर्वलाभानां लाभः परमको मतः ।। | 3-311-5a 3-311-5b |
कर्ण उवाच। | 3-311-6x |
अवनिं प्रमदा गाश्च निर्वापं बहुवार्षिकम्। तत्ते विप्र प्रदास्यामि न तु वर्म सकुण्डलम् ।। | 3-311-6a 3-311-6b |
वैशंपायन उवाच। | 3-311-7x |
एवं बहुविधैर्वाक्यैर्वार्यमाणः स तु द्विजः। रकर्णेन भरतश्रेष्ठ नान्यं वरमयाचत ।। | 3-311-7a 3-311-7b |
सान्त्वितश्च यथाशक्ति पूजितश्च यथाविधि। न चान्यं स द्विजश्रेष्ठः कामयामास वै वरम् ।। | 3-311-8a 3-311-8b |
यदा नान्य प्रवृणुते वरं वै द्विजसत्तमः। `विनाऽस् सहजं वर्म कुण्डले च विशांपते'। तदैनमब्रवीद्भूयो राधेयः प्रहसन्निव ।। | 3-311-9a 3-311-9b 3-311-9c |
सहजं वर्म मे विप्र कुण्डले चामृतोद्भवे। तेनावध्योस्मि लोकेषु ततो नैतज्जहाम्यहम् ।। | 3-311-10a 3-311-10b |
विशालं पृथिवीराज्यं क्षेमं निहतकण्टकम्। प्रतिगृह्णीष्व मत्तस्त्वं साधु ब्राह्मणपुङ्गव ।। | 3-311-11a 3-311-11b |
कुण्डलाभ्यां विमुक्तोऽहंवर्मणा सहजेन च। दमनीयो भविष्यामि शत्रूणां द्विजसत्तम ।। | 3-311-12a 3-311-12b |
वैशंपायन उवाच। | 3-311-12x |
यदन्यं न वरं वव्रे भगवान्पाकशासनः। ततः प्रहस् कर्णस्तं पुनरित्यब्रवीद्वचः ।। | 3-311-13a 3-311-13b |
विदितो देवदेवेश प्रागेवासि मम प्रभो। न तु न्याय्यं मया दातुं तव शक्र वृथा वरम् ।। | 3-311-14a 3-311-14b |
त्वं हि देवेश्वरः साक्षात्त्वया देयो वरो मम। अन्येषां चैव भूतानामीश्वरो ह्यसि भूतकृत् ।। | 3-311-15a 3-311-15b |
यदि दास्यामि ते देव कुण्डले कवचं तथा। वध्यतामुपयास्यामि त्वं च शक्रावहास्यताम् ।। | 3-311-16a 3-311-16b |
तस्माद्विनिमयं कृत्वा कुण्डलेवर्म चोत्तमम्। हरस्व शक्रकामं मे न दद्यामहमन्यथा ।। | 3-311-17a 3-311-17b |
शक्र उवाच। | 3-311-18x |
विदितोऽहं रवेः पूर्वमायानेव तवान्तिकम्। तेन ते सर्वमाख्यातमेवमेतन्न संशयः ।। | 3-311-18a 3-311-18b |
काममस्तु तथा तात तव कर्ण यथेच्छसि। वर्जयित्वा तु मे वज्रं प्रवृणीष्व यथेच्छसि ।। | 3-311-19a 3-311-19b |
वैशंपायन उवाच। | 3-311-20x |
ततः कर्णः प्रहृष्टस्तु उपसंगम्य वासवम्। अमोघां शक्तिमभ्येत्य वव्रे सम्पूर्णमानसः ।। | 3-311-20a 3-311-20b |
क्रण उवाच। | 3-311-21x |
वर्मणा कुण्डलाभ्यां च शक्तिं मे देहि वासव। अमोघां शत्रुसङ्घानां घातिनीं पृथनामुखे ।। | 3-311-21a 3-311-21b |
ततः सञ्चिन्त्य मनसा मुहूर्तमिव वासवः। शक्त्यर्थं पृथिवीपाल कर्णं वाक्यमथाब्रवीत् ।। | 3-311-22a 3-311-22b |
कुण्डले मे प्रयच्छस्व वर्म चैव शरीरजम्। गृहाण कर्ण शक्तिं त्वमनेन समयेन च ।। | 3-311-23a 3-311-23b |
अमोघा हन्ति शतशः शत्रून्मम करच्युता। पुनश्च पाणिमभ्येति मम दैत्यान्विनिघ्नतः ।। | 3-311-24a 3-311-24b |
सेयं तव करप्राप्ता हत्वैरकं रिपुमूर्जितम्। गर्जन्तं प्रतपन्तं च मामेवैष्यति सूतज ।। | 3-311-25a 3-311-25b |
कर्ण उवाच। | 3-311-25x |
एकमेवाहमिच्छामि रिपुं हन्तुं महाहवे। गर्जन्तंप्रतपन्तं च यतो मम भयं भवेत् ।। | 3-311-26a 3-311-26b |
इन्द्र उवाच। | 3-311-27x |
एकं हनिष्यसि रिपुं गर्जन्तं बलिनं रणे। त्वं तु यं प्रार्थयस्येकं रक्ष्यते स महात्मना ।। | 3-311-27a 3-311-27b |
यमाहुर्वेदविद्वांसो वराहमपराजितम्। नारायणमचिन्त्यं च तेन कृष्णेन रक्ष्यते ।। | 3-311-28a 3-311-28b |
कर्ण उवाच। | 3-311-29x |
`एवमेतद्यथाऽऽत्थ त्वं दानवानां निषूदन। वधिष्यामि रणे शत्रुं यो मे स्थाता पुरस्सरः' ।। | 3-311-29a 3-311-29b |
एवमप्यस्तु भगवन्नेकवीरवधे मम। अमोघां देहि मे शक्तिं यथा हन्यां प्रतापिनम् ।। | 3-311-30a 3-311-30b |
उत्कृत्य तु प्रदास्यामि कुण्डले कवचं च ते। निकृत्तेषु तु गात्रेषु न मे बीभत्सता भवेत् ।। | 3-311-31a 3-311-31b |
इन्द्र उवाच। | 3-311-32x |
न ते बीभत्सता कर्ण भविष्यति कथञ्चन। ब्रणश्चैव न गात्रेषु यस्त्वं नानृतमिच्छसि ।। | 3-311-32a 3-311-32b |
यादृशस्ते पितुर्वर्णस्तेजश्च वदतांवर। तादृशेनैव वर्णेन त्वं कर्ण भविता पुनः ।। | 3-311-33a 3-311-33b |
विद्यमानेषु शस्त्रेषु यद्यमोघामसंशये। प्रमत्तो मोक्ष्यसे चापि त्वय्येवैषा पतिष्यति ।। | 3-311-34a 3-311-34b |
कर्ण उवाच। | 3-311-35x |
संशयं परमं प्राप्य विमोक्ष्ये वासवीमिमाम्। यथा मामौत्थ शक्र त्वं सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ।। | 3-311-35a 3-311-35b |
वैशंपायन उवाच। | 3-311-36x |
ततः शक्तिं प्रज्वलितां प्रतिगृह् विशांपते। शस्त्रं गृहीत्वा निशितं सर्वगात्राण्यकृन्तत ।। | 3-311-36a 3-311-36b |
ततो देवा मानवा दानवाश्च निकृन्तन्तं कर्णमात्मानमेव। दृष्ट्वा सर्वे सिंहनादान्प्रणेदु- र्न ह्यस्यासीन्मुखजो वै विकारः ।। | 3-311-37a 3-311-37b 3-311-37c 3-311-37d |
ततो दिव्या दुन्दुभयः प्रणेदुः पपातोच्चैः पुष्पवर्षं च दिव्यम्। दृष्ट्वा कर्णं शस्त्रसंकृत्तगात्रं महुश्चापि स्मयमानं नृवीरम् ।। | 3-311-38a 3-311-38b 3-311-38c 3-311-38d |
ततश्छित्त्वा कवचं दिव्यमङ्गा- त्तथैवार्द्रं प्रददौ वासवाय। तथोत्कृत्य प्रददौ कुण्डले ते कर्णात्तस्मात्कर्मणा तेन कर्णः ।। | 3-311-39a 3-311-39b 3-311-39c 3-311-39d |
ततः पश्चाद्दिवमेवोत्पपात ।। | 3-311-40f |
श्रुत्वा कर्णं मुषितं धार्तराष्ट्रा दीनाः सर्वे भग्नदर्पा इवासन्। तां रचावस्थां गमितं सूतपुत्रं श्रुत्वा पार्था जहृपुः काननस्थाः ।। | 3-311-41a 3-311-41b 3-311-41c 3-311-41d |
जनमेजय उवाच। | 3-311-42x |
क्वस्ता वीराः पाण्डवास्ते बभूवुः कुतश्चैते श्रुतवन्तः प्रियं तत्। किं वाऽकार्षुर्द्वादशेऽब्दे व्यतीते तन्मे सर्वं भगवान्व्याकरोतु ।। | 3-311-42a 3-311-42b 3-311-42c 3-311-42d |
वैशंपायन उवाच। | 3-311-43x |
लब्ध्वा कृष्णां सैन्धवं द्रावयित्वा विप्रैः सार्धं काम्यकादाश्रमात्ते। मार्कण्डेयाच्छ्रुतवन्तः पुराणं कदेवर्षीणआं चरितं विस्तरेण ।। | 3-311-43a 3-311-43b 3-311-43c 3-311-43d |
`प्रत्याजग्मुः सरथाः सानुयात्राः सर्वैः सार्धं सूतपौरोगवैस्ते। ततो ययुर्द्वैतवनं नृवीरा निस्तीर्यैवं वनवासं समग्रम्' ।। | 3-311-44a 3-311-44b 3-311-44c 3-311-44d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि कुण्डलाहरणपर्वणि एकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।। 311 ।। |
3-311-3 यच्चान्यत्पादवन्धनम् इति ध. पाठः ।। 3-311-6 अवनि गृहार्थम्। निवापं न्युप्यते बीजमम्मिन्निति क्षेत्रम्। बहुवर्पिकं यावज्जीविकवृत्तिरूपम् .। 3-311-18 आयानेव आगच्छन्नेव ।। 3-311-39 कृणाति हिनस्ति कृन्तति छिनत्ति वा अङ्गानीति कर्ण इत्यर्थः ।।
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