महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-219
← आरण्यकपर्व-218 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-219 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-220 → |
धर्मव्याधेन नानाधर्मान्बोधितेन कौशिकेन गृहमेत्य स्वपित्रोः शुश्रूषणम् ।। 1 ।। मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरम्प्रति पतिव्रतामाहात्म्यादिकथनोपसंहारः ।। 2 ।।
व्याध उवाच। | 3-219-1x |
एवं शप्तोऽहमृषिणा तदा द्विजबरोत्तम। अहं प्रासादयमृषिं गिरा वाक्यविशारदम् ।। | 3-219-1a 3-219-1b |
अजानता मयाऽकार्यमिदमद्य कृतं मुने। क्षन्तुमर्हसि तत्सर्वं प्रसीद भगवन्निति ।। | 3-219-2a 3-219-2b |
ऋषिरुवाच। | 3-219-3x |
नान्यथा भविता शाप एवमेतदसंशयम्। आनृशंस्यात्त्वंहकिंचित्कर्ताऽनुग्रहमद्य ते ।। | 3-219-3a 3-219-3b |
शूद्रयोन्यां वर्तमानो धर्मज्ञो हि भविष्यसि। मातापित्रोश् शुश्रूषां करिष्यसि न संशयः ।। | 3-219-4a 3-219-4b |
तयोः शुश्रूषया सिद्धिं महतीं समवाप्स्यसि। जातिस्मरश् भविता स्वर्गं चैव गमिष्यसि ।। | 3-219-5a 3-219-5b |
`भूत्वाच धार्मिको व्याधः पित्रोः शुश्रूषणे रतः। शापक्षये तु निर्वृत्ते भविताऽसि पुनर्द्विजः ।। | 3-219-6a 3-219-6b |
एवं शप्तः पुरा तेन ऋषिणाऽस्म्युग्रतेजसा। प्रसादश्च कृतस्तेन ममैव द्विपदांवर ।। | 3-219-7a 3-219-7b |
शरं चोद्धृतवानस्मि तस्य वै द्विजसत्तम। आश्रमं च मया नीतो न च प्राणैर्व्ययुज्यत ।। | 3-219-8a 3-219-8b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा मम पुराऽभवत्। अभितश्चापि गन्तव्यो मया स्वर्गो द्विजोत्तम ।। | 3-219-9a 3-219-9b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-219-10x |
एवमेतानि पुरुषा दुःखानि च सुखानि च। आप्नुवन्ति महाबुद्धे नोत्कण्ठां कर्तुमर्हसि ।। | 3-219-10a 3-219-10b |
दुष्करं हि कृतंकर्म जानता जातिमात्मनः। [लोकवृत्तान्ततत्त्वज्ञ नित्यं धर्मपरायण ।।] | 3-219-11a 3-219-11b |
कर्मदोषाच्च वै विद्वन्नात्मजातिकृतेन वै। कंचित्कालं मृष्यतां वै ततोसि भविता द्विजः ।। | 3-219-12a 3-219-12b |
सांप्रतं च मतो मेऽसि ब्राह्मणो नात्र संशयः ।। | 3-219-13a |
ब्राह्मणः पतनीयेषु वर्तमानो विकर्मसु। दाम्भिक्वो दुष्कृतप्रायः शूद्रेण सदृशो भवेत् ।। | 3-219-14a 3-219-14b |
यस्तु शूद्रो दमे सत्ये धर्मे च सततोत्थितः। तं ब्राह्मणमहं मन्ये वृत्तेन हि भवेद्द्विजः ।। | 3-219-15a 3-219-15b |
कर्मदोषेण विषमां गतिमाप्तोसि दारुणाम्। क्षीणदोषमहं मन्ये चाभितस्त्वां नरोत्तम ।। | 3-219-16a 3-219-16b |
कर्तुमर्हसि नोत्कण्ठां त्वद्विधा ह्यविषादिनः। लोकवृत्तान्ततत्वज्ञा नित्यं धर्मपरायणाः ।। | 3-219-17a 3-219-17b |
व्याध उवाच। | 3-219-18x |
प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः। एतद्विज्ञानसामर्थ्यं न बालै समतामियात् ।। | 3-219-18a 3-219-18b |
अनिष्टसंप्रयोगाच्च विप्रयोगात्प्रयिस्य च। मनुष्या मानसैर्दुःखैर्युज्यन्ते चाल्पबुद्धयः ।। | 3-219-19a 3-219-19b |
गुणैर्भूतानि युज्यन्ते वियुज्यन्ते तथैव च। सर्वाणि नैतदेकस्य शोकस्थानं हि विद्यते ।। | 3-219-20a 3-219-20b |
अनिष्टनान्वितं पश्यंस्तथा क्षिप्रं विरज्यते। ततश्च प्रतिकुर्वन्ति यदि पश्यन्त्युपक्रमम् ।। | 3-219-21a 3-219-21b |
शोचतो न भवेत्किंचित्केवलं परितप्यते। परित्यजन्ति ये दुःखं सुखं वाऽप्युभयं नराः ।। | 3-219-22a 3-219-22b |
त एव सुखमेधन्ते ज्ञानतृप्ता मनीषिणः। असंतोषपरा मूढाः संतोषं यानति पण्डिताः ।। | 3-219-23a 3-219-23b |
असंतोषस्य नास्त्यन्तस्तुष्टिस्तु परमं सुखम्। न शोचन्ति गताध्वानः पश्यन्तः परमां गतिं ।। | 3-219-24a 3-219-24b |
न विषादे मनः कार्यं विषादो विषमुत्तमम्। मारयत्यकृतप्रज्ञं बालं क्रुद्ध इवोरगः ।। | 3-219-25a 3-219-25b |
यंविषादोऽभिभवति विषमे समुपस्थिते। तेजसा तस् हीनस्य पुरुषार्थो न विद्यते ।। | 3-219-26a 3-219-26b |
अवश्यं क्रियमाणस् कर्मणो दृश्यते फलम्। न हि निर्वेदमागम्य किंचित्प्राप्नोति शोभनम् ।। | 3-219-27a 3-219-27b |
अथाप्युपायं पश्येत दुःखस् परिमोक्षणे। अशोचन्नारभेतैव युक्तश्चाव्यसनी भवेत् ।। | 3-219-28a 3-219-28b |
भूतेष्वभावं संचिन्त्य ये तु बुद्धेः परं गताः। न शोचन्ति कृतप्रज्ञाः पश्यन्तः परमां गतिम् ।। | 3-219-29a 3-219-29b |
न शोचामि रमे विद्वन्कालाकाङ्क्षी स्थितोस्म्यहम्। एतैर्निदर्शनैर्ब्रह्मन्नावसीदामि सत्तम ।। | 3-219-30a 3-219-30b |
ब्राह्मण उवाच। | 3-219-31x |
कृतप्रज्ञोसि मेधावी बुद्धिश्च विपुला तव। पापान्निवृत्तोसि सदा ज्ञानवृद्धोसि धर्मवित् ।। | 3-219-31a 3-219-31b |
आपृच्छे त्वां स्वस्ति तेऽस्तु धर्मस्त्वां परिरक्षतु। अप्रमादस्तु कर्तव्यो धर्मे धर्मभृतांवर ।। | 3-219-32a 3-219-32b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-219-33x |
बाढमित्येव तं व्याधः कृताञ्जलिरुवाच ह। प्रदक्षिणमथो कृत्वा प्रस्थितो द्विजसत्तमः ।। | 3-219-33a 3-219-33b |
स तु गत्वाद्विजः सर्वां शुश्रूषां कृतवांस्तदा। मातापितृभ्यामन्धाभ्यां यथान्यायं सुसंशितः ।। | 3-219-34a 3-219-34b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं निखिलेन युधिष्ठिर। पृष्टवानसि यं तात धर्मं धर्मभृतांवर ।। | 3-219-35a 3-219-35b |
पतिव्रताया माहात्म्यं ब्राह्मणस्य च सत्तम। मातापित्रोश्च शुश्रूषा धर्मव्याधेन कीर्तिता ।। | 3-219-36a 3-219-36b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-219-37x |
अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मन्धर्माख्यानमनुत्तमम्। सर्वधर्मविदांश्रेष्ठ कथितं मुनिसत्तम ।। | 3-219-37a 3-219-37b |
सुखश्राव्यतया विद्वन्मुहूर्त इव मे गतः। न हि तृप्तोस्मि भगवञ्शृण्वानो धर्ममुत्तमम् ।। | 3-219-38a 3-219-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि एकोनिविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 219 ।। |
3-219-20 गुणैः गुणकार्यैः सुखदुःखमोहैः ।। 3-219-24 गताध्वानः प्राप्तज्ञानमार्गाः ।। 3-219-29 बुद्धेस्तत्त्वज्ञानात्। परं ब्रह्म गताः प्राप्ताः ।।
आरण्यकपर्व-218 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-220 |