महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-210
← आरण्यकपर्व-209 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-210 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-211 → |
कौशिकनामकेन द्विजवरेण पतिव्रतावचनाद्धर्मावगतये धर्मव्याधंप्रति गमनम् ।। 1 ।। व्याधेन तस्मै नानाधर्मोपदेशः ।। 2 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
मार्कण्डेय उवाच। | 3-210-1x |
चिन्तयित्वा तदाश्चर्यं स्त्रिया प्रोक्तमशेपतः। विनिन्दन्स द्विजोऽऽत्मानमागस्कृत इवाबभौ ।। | 3-210-1a 3-210-1b |
चिन्तयानः स धर्मस्य सूक्ष्मां गतिमथाब्रवीत्। श्रद्दधानेन वै भाव्ये गच्छामि मिथिलामहम् ।। | 3-210-2a 3-210-2b |
कृतात्मा धर्मवित्तस्यां व्याधो निवसते किल। तं गच्चाम्यहमद्यैव धर्मं प्रष्टुं तपोधनम् ।। | 3-210-3a 3-210-3b |
इतिसंचिन्त्य मनसा श्रद्दधानः स्त्रिया वचः। बलाकाप्रत्ययेनासौ धर्म्यैश्च वचनैः शुभैः ।। | 3-210-4a 3-210-4b |
संप्रतस्थे स मिथिलां कौतूहलसमन्वितः। अतिक्रामन्नरण्यानि ग्रामांश्च नगराणि च ।। | 3-210-5a 3-210-5b |
ततो जगाम मिथिलां जनकेन सुरक्षिताम्। धर्मसेतुसमाकीर्णां यज्ञोत्सववतीं शुभाम् ।। | 3-210-6a 3-210-6b |
गोपुराट्टालकवतीं हर्म्यप्राकारशोभनाम्। प्रविश्य नगरीं रम्यां विमानैर्बहुभिर्युताम् ।। | 3-210-7a 3-210-7b |
पण्यैश्च बहुभिर्युक्तां सुविभक्तमहापथाम्। अश्वै रथैस्तथा नागैर्योधैश्च बहुभिर्युताम् ।। | 3-210-8a 3-210-8b |
हृष्टपुष्टजनाकीर्णां नित्योत्सवसमाकुलाम्। सोऽपस्यद्बहुवृत्तान्तां ब्राह्मणः समतिक्रमन् ।। | 3-210-9a 3-210-9b |
धर्मव्याधमपृच्छच्च स चास्य कथितो द्विजैः। अपश्यत्तत्रगत्वा तं सूनामध्ये व्यवस्थितम् ।। | 3-210-10a 3-210-10b |
मार्गमाहिपमांसानि विक्रीणन्तं तपस्विनम्। आकुलत्वाच्च क्रेतृणामेकान्ते संस्थितो द्विजः ।। | 3-210-11a 3-210-11b |
स तु ज्ञाता द्विजं प्राप्तं सहसा संभ्रमोत्थितः। आजगाम यतो विप्रः स्थित एकान्तआसने ।। | 3-210-12a 3-210-12b |
व्याध उवाच। | 3-210-13x |
अभिवादये त्वां भगवन्स्वागतं ते द्विजोत्तम। अहं व्याधो हि भद्रं ते किं करोमि प्रशाधि माम् ।। | 3-210-13a 3-210-13b |
एकपत्न्या यदुक्तोसि गच्छ त्वं मिथिलामिति। जानाम्येतदहं सर्वं यदर्थं त्वमिहागतः ।। | 3-210-14a 3-210-14b |
श्रुत्वा च तस्य तद्वाक्यं स विप्रो भृशविस्मितः। द्वितीयमिदमाश्चर्यमित्यचिन्तयत द्विजः ।। | 3-210-15a 3-210-15b |
अदेशस्थं हि ते स्तानमिति व्याघोऽब्रवीद्द्विजम्। गृहं गच्छाव भगवन्यदि ते रोचतेऽनघ ।। | 3-210-16a 3-210-16b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-210-17x |
बाढमित्येव तं विप्रो हृष्टो वचनमब्रवीत्। अग्रतस्तु द्विजं कृत्वा स जगाम गृहं प्रति ।। | 3-210-17a 3-210-17b |
प्रविश्य च गृहंरम्यमासनेनाभिपूजितः। `अर्ध्येण च स वै तेन व्याधेन द्विजसत्तमः' ।। | 3-210-18a 3-210-18b |
पाद्यमाचमनीयं च प्रतिगृह्य द्विजोत्तमः। ततः सुखोपविष्स्तं व्याधं वचनमब्रवीत् ।। | 3-210-19a 3-210-19b |
कर्मैतद्वै न सदृशं भवतः प्रतिभाति मे। अनुतप्ये भृशं तात तव घोरेण कर्मणा ।। | 3-210-20a 3-210-20b |
व्याध उवाच। | 3-210-21x |
कुलोचितमिदं कर्म पितृपैतामहं परम्। वर्तमानस्य मे धर्मे स्वे मन्युं मा कृथा द्विज ।। | 3-210-21a 3-210-21b |
विधात्रा विहितं पूर्वं कर्म स्वमनुपालयन्। प्रयत्नाच्च गुरू वृद्धौ शुश्रूषेऽहं द्विजोत्तम ।। | 3-210-22a 3-210-22b |
सत्यं वदे नाभ्यसूये यथाशक्ति ददामि च। देवतातिथिभृत्यानामवशिष्टेन वर्तये ।। | 3-210-23a 3-210-23b |
न कुत्सयाम्यहं किंचिन्न गर्हे बलवत्तरम्। कृतमन्वेति कर्तारं पुरा कर्म द्विजेत्तम ।। | 3-210-24a 3-210-24b |
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यमिह लोकस्य जीवनम्। दण्डनीतिस्त्रयो विद्या तेन लोको भवत्युत ।। | 3-210-25a 3-210-25b |
कर्म शूद्रे कृषिर्वैश्ये संग्रामः क्षत्रिये स्मृतः। ब्रह्मचर्यतपोमन्त्राः सत्यं च ब्राह्मणे सदा ।। | 3-210-26a 3-210-26b |
राजा प्रशास्ति धर्मेण स्वकर्मनिरताः प्रजाः। विकर्माणश्च ये केचित्तान्युनक्ति स्वकर्मसु ।। | 3-210-27a 3-210-27b |
भेतव्यं हि सदा राज्ञां प्रजानामधिपा हिते। मारयन्ति विकर्मस्थं लुब्धा मृगमिवेषुभिः ।। | 3-210-28a 3-210-28b |
जनकस्येह विप्रर्षे विकर्मस्थो न विद्यते। स्वकर्मनिरता वर्णाश्चत्वारोपि द्विजोत्तम ।। | 3-210-29a 3-210-29b |
स एष जनको राजा दुर्वृत्तमपि चेत्सुतम्। दण्ड्यं दण्डे निक्षिपति यथा न ग्लाति धार्मिकम् ।। | 3-210-30a 3-210-30b |
सुयुक्तचारो नृपतिः सर्वं धर्मेण पश्यति। श्रीश्च राज्यं च दण्डश्च क्षत्रियाणां द्विजोत्तम ।। | 3-210-31a 3-210-31b |
राजानो हि स्वधर्मेण श्रियमिच्छन्ति भूयसीम्। सर्वेषामेव वर्णानां त्राता राजा भवत्युत ।। | 3-210-32a 3-210-32b |
परेण हि हतान्ब्रह्मन्वराहमहिषानहम्। न स्वयं हन्मि विप्रर्षे विक्रीणामि सदा त्वहम् ।। | 3-210-33a 3-210-33b |
न भक्षयामि मांसानि ऋतुगामी तथाह्यहम्। सदोपवासी च तथा नक्तभोजी सदा द्विज ।। | 3-210-34a 3-210-34b |
अशीलश्चापि पुरुषो भूत्वा भवति शीलवान्। प्राणिहिंसारतिश्चापि भवते धार्मिकः पुनः ।। | 3-210-35a 3-210-35b |
व्यभिचाराननरेन्द्राणां धर्मः संकीर्यते महान्। अधर्मो वर्तते चापि संकीर्यन्ते ततः प्रजाः ।। | 3-210-36a 3-210-36b |
भेरुण्डा वामनाः कुब्जाः स्थूलशीर्षास्तथैव च। क्लीबाश्चान्धाश्च बधिरा जायन्तेऽत्युच्चलोचनाः ।। | 3-210-37a 3-210-37b |
पार्थिवानामधर्मत्वात्प्रजानामभवः सदा। स एष राजा जनकः प्रजा धर्मेण पश्यति ।। | 3-210-38a 3-210-38b |
अनुगृह्णन्प्रजाः सर्वाः स्वधर्मनिरताः सदा। `पात्येष राजा जनकः पितृवद्द्विजसत्तम' ।। | 3-210-39a 3-210-39b |
येचैव मां प्रशंसन्ति येच निन्दन्ति मानवाः। सर्वान्सुपरिणीतेन कर्माणा तोषयाम्यहम् ।। | 3-210-40a 3-210-40b |
ये जीवन्ति स्वधर्मेण संयुञ्जन्ति च पार्थिवाः। न किंचिदुपजीवनति दान्ता उत्थानसीलिनः ।। | 3-210-41a 3-210-41b |
शक्त्याऽन्नदानं सततं तितिक्षा धर्मनित्यता। यथार्हं प्रतिपूजा च सर्वभूतेषु वै दया ।। | 3-210-42a 3-210-42b |
त्यागान्नान्यत्र मर्त्यानां गुणास्तिष्ठान्ति पूरुषे। मृषावादं परिहरेत्कुर्यात्प्रियमयाचितः ।। | 3-210-43a 3-210-43b |
न च कामान्न संरम्भान्न द्वेषाद्धर्ममुत्सृजेत्। प्रिये नातिभृशं हृष्येदप्रिये न च संज्वरेत् ।। | 3-210-44a 3-210-44b |
न मुह्येदर्थकृच्छ्रेषु न च धऱ्मं परित्यजेत्। कर्म चेत्किंचिदन्यत्स्यादितरन्न तदाचरेत् ।। | 3-210-45a 3-210-45b |
यत्कल्याणमभिध्यायेत्तत्रात्मानं नियोजयेत्। न पापं प्रति पापः स्यात्साधुरेव सदा भवेत् ।। | 3-210-46a 3-210-46b |
आत्मनैव हतः पापो यः पापं कर्तुमिच्छति। कर्म चैतदसाधूनां वृजिनानामसाधुकम् ।। | 3-210-47a 3-210-47b |
न धर्मोस्तीति मन्वानाः शुचीनवहसन्ति ये। अश्रद्दधाना धर्मस् ते नश्यन्ति न संशयः ।। | 3-210-48a 3-210-48b |
महादृतिरिवाध्मातः पापो भवति नित्यदा। `साधुः सन्नतिमानेव सर्वत्रद्विजसत्तम' ।। | 3-210-49a 3-210-49b |
मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं भवेत्। दर्शयन्त्यन्तरात्मानं दिवा रूपमिवांशुमान् ।। | 3-210-50a 3-210-50b |
न लोके राजते मूर्खः केवलात्मप्रशंसया। अपिचेह मृजाहीनः कृतविद्यः प्रकाशते ।। | 3-210-51a 3-210-51b |
अब्रुवन्कस्यचिन्निन्दामात्मपूजामवर्णयन्। न कश्चिद्गुणसंपन्नः प्रकाशो भुवि दृश्यते ।। | 3-210-52a 3-210-52b |
विकर्मणा तप्यमानः पापाद्विपरिमुच्यते। न तत्कुर्यां पुनरिति द्वितीयात्परिमुच्यते ।। | 3-210-53a 3-210-53b |
कर्मणा येन केनापि पापात्मा द्विजसत्तम। एवं श्रुतिरियं ब्रह्मन्धर्मेषु प्रतिदृश्यते ।। | 3-210-54a 3-210-54b |
पापनि बुद्ध्वेह पुरा कृतानि स्वधर्मशीलो विनिहन्ति पश्चात्। धर्मो ब्रह्मन्नुदते ब्राह्मणानां यत्कुर्वते पापमिह प्रमादात् ।। | 3-210-55a 3-210-55b 3-210-55c 3-210-55d |
पापं कृत्वा हि मन्येत नाहमस्मीति पूरुषः। [तं तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुषः] ।। | 3-210-56a 3-210-56b |
चिकीर्षेदेव कल्यायणं श्रद्दधानोऽनसूयकः ।। | 3-210-57a |
वसनस्येव च्छिद्राणइ साधूनां विवृणोति यः। `अपश्यन्नात्मनो दोषान्स पापः प्रेत्य नश्यति' ।। | 3-210-58a 3-210-58b |
पापं चेत्पुरुषः कृत्वा कल्याणमभिपद्यते। मुच्यते सर्वपापेभ्यो महाभ्रेणेव चन्द्रमाः ।। | 3-210-59a 3-210-59b |
यथाऽऽदित्यः समुद्यन्वै तमः सर्वं व्यपोहति। एवं कल्याणमातिष्ठन्सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। | 3-210-60a 3-210-60b |
पापानां विद्ध्यधिष्ठानं लोभमोहौ द्विजोत्तम। `तस्मात्तौ विदुषा विप्र वर्जनीयौ विशेषतः' ।। | 3-210-61a 3-210-61b |
लुबधाः पापं व्यवस्यन्ति नरा नातिबहुश्रुताः। अधर्म्या धर्मरूपेण तृणैः कूपा इवावृताः ।। | 3-210-62a 3-210-62b |
येषां पञ् पवित्राणि प्रलापा धर्मसंश्रितः। सर्वं हि विद्यते तेषु शिष्टाचारः सुदुर्लभः ।। | 3-210-63a 3-210-63b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 210 ।। |
3-210-1 आगोऽपराधः कृतमननेत्यागस्कृतः ।। 3-210-7 विमानैः साप्तभौमिकगृहैः ।। 3-210-10 सूना वधस्थानं तन्मध्ये ।। 3-210-16 अदेशस्थं अयोग्यदेशस्थम् ।। 3-210-22 गुरू मातापितरौ ।। 3-210-23 वर्तये जीवामि ।। 3-210-24 कुत्सा विद्यमानदोषसंकीर्तनम्। गर्हा अविद्यमानदोषारोपः। पुराकृतं कर्मेति संबन्धः ।। 3-210-25 लोकः परलोकः ।। 3-210-30 न ग्लाति न ग्लानि नयति ।। 3-210-36 व्यभिचारात्स्वैरगतेः ।। 3-210-37 भेरुण्डाः भयानकाः। उरुण्डाः इति ख. थ.ध. पाठः ।। 3-210-40 सुपरिणीतेन साधुना ।। 3-210-41 ये संयुञ्जन्ति सम्यग्योगं सेनाविनेशं कुर्वन्ति तएव पार्तिवा अन्ये चोरो इत्यर्थः ।। 3-210-44 संरम्भाद्भयात् ।। 3-210-45 अन्त् विपरीतं स्यात् इतरत्तादृशं द्वितीयं कल्याणमेवाचरेत् ।। 3-210-46 पापः पापी ।। 3-210-47 वृजिनानां व्यसनवताम् ।। 3-210-49 दृतिर्भस्त्रा। आध्यातः सन्नसारोपि पुष्टो भवेत् ।। 3-210-51 मृजाहीनः मलिनदेहः ।। 3-210-52 मूढस्वरूपमाह अब्रुवन्निति ।। 3-210-53 पापात् प्राक्कृतात्। द्वितीयात्करिष्यमाणात् ।। 3-210-54 जपतपस्तीर्थाद्यन्यतमेन येनकेनचिदपि कर्मणा पापात् परिमुच्यत् इत्यनुषज्ज्यते ।।
आरण्यकपर्व-209 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-211 |