महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-226
← आरण्यकपर्व-225 | महाभारतम् तृतीयपर्व महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-226 वेदव्यासः |
आरण्यकपर्व-227 → |
कन्यया इन्द्रंप्रतिस्वस्य दक्षपुत्रीत्वकथनपूर्वकं भर्तृकामनानिवेदनम् ।। 1 ।। इन्द्रेण कन्याया उचितपतिं प्रार्थितेन ब्रह्मणा कन्याभर्तुरनतिचिरभावित्वकथनपूर्वकं तस्यैव तत्सेनापतीभवनकथनम् ।। 2 ।। सप्तर्षिमस्वे तत्पत्नीनामवलोकनेन क्षुभितमनसाऽग्निना तासामलाभेन निर्वेदाद्वनंप्रति गमनम् ।। 3 ।। चिरेणाग्निकामया स्वाहयाऽत्रावसरे सप्तर्षिपत्नीसमानरूपस्वीकारेणाग्निवशीकरणनिर्धारणम् ।। 4 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
कन्योवाच। | 3-226-1x |
अहं प्रजापतेः कन्या देवसेनेति वुश्रुता। भगिनी मे दैत्यसेना सा पूर्वं कोशिना हृता ।। | 3-226-1a 3-226-1b |
सहैवावां भगिन्यौ तु सखीभिः सह मानसम्। आगच्छावो विहारार्थमनुज्ञाप्य प्रजापतिम् ।। | 3-226-2a 3-226-2b |
नित्यं चावां प्रार्थयते हर्तुं केशी महासुरः। इच्छत्येनं दैत्यसेना न चाहं पाकशासन ।। | 3-226-3a 3-226-3b |
सा हृताऽनेन भगवान्मुक्ताऽहं त्वद्बलेन तु। त्वया देवेन्द्र निर्दिष्टं पतिमिच्छामि दुर्जयम् ।। | 3-226-4a 3-226-4b |
इन्द्र उवाच। | 3-226-5x |
मम मातृष्वसेयी त्वं माता दाक्षायणी मम। आख्यातुं त्वहमिच्छामि स्वयमात्मबलं त्वया ।। | 3-226-5a 3-226-5b |
कन्योवाच। | 3-226-6x |
अबलाऽहं महाबाहो पतिस्तु बलवान्मम। वरदानात्पितुर्भावी सुरासुरनमस्कृतः ।। | 3-226-6a 3-226-6b |
इन्द्र उवाच। | 3-226-7x |
कीदृशं तु बलंदेवि पत्युस्तव भविष्यति। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तव वाक्यमनिन्दिते ।। | 3-226-7a 3-226-7b |
कन्योवाच। | 3-226-8x |
देवदानवयक्षाणां किन्नरोरगरक्षसाम्। जेता यो दुष्टदैत्यानां महावीर्यो महाबलः ।। | 3-226-8a 3-226-8b |
यस्तु सर्वाणि भूतानि त्वया सह विजेष्यति। स हि मे भविता भर्ता ब्रह्मण्यः कीर्तिवर्धनः ।। | 3-226-9a 3-226-9b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-226-10x |
इन्द्रस्तस्या वचः श्रुत्वा दुःखितोऽचिन्तयद्भृशम्। अस्या देव्याः पतिर्नास्ति यादृशं संप्रभाषते ।। | 3-226-10a 3-226-10b |
अथापश्यत्स उदये भास्करं भास्करद्युतिः। सोमं चैव महाभागं प्रविशन्तं दिवाकरम् ।। | 3-226-11a 3-226-11b |
अमावास्यां प्रवृत्तायां मुहूर्ते रौद्र एव तु। देवासुरं च संग्रामं सोऽपश्यदुदये गिरौ ।। | 3-226-12a 3-226-12b |
लोहितैश्च घनैर्युक्तां पूर्वां संध्यां शतक्रतुः। अपश्यल्लोहितोदं च मघवान्वरुणालयम् ।। | 3-226-13a 3-226-13b |
भृगुभिश्चाङ्गिरोभ्यश्च हुतं मन्त्रैः पृथग्विधैः। हव्यं गृहीत्वा वह्निं च प्रविशन्तं दिवाकरम् ।। | 3-226-14a 3-226-14b |
पर्व चैव चतुर्विंशं तदा सूर्यमुपस्थितम्। तथा सूर्यं वह्निगतं सोमं सूर्यगतं च तम् ।। | 3-226-15a 3-226-15b |
समालोक्यैकतामेव शशिनो भास्करस्य च। समवायं तु तं रौद्रं दृष्ट्वा शक्रोऽन्वचिन्तयत् ।। | 3-226-16a 3-226-16b |
सूर्याचन्द्रमसोर्घोरं दृश्यते परिवेषणम्। एतस्मिन्नेव रात्र्यन्ते महद्युद्धं तु शंसति ।। | 3-226-17a 3-226-17b |
सरित्सिन्धुरपीयं तु प्रत्यसृग्वाहिनी भृशम्। शृगालिनयग्निवक्रा च प्रत्यादित्यं विराविणी ।। | 3-226-18a 3-226-18b |
एष रौद्रश्चसंघातो महान्युक्तश्च तेजसा। सोमस्य वह्निसूर्याभ्यामद्भुतोऽयं समागमः ।। | 3-226-19a 3-226-19b |
जनयेद्यं सुतं सोमः सोऽस्या देव्याः पतिर्भवेत्। अथानेकैर्गुणैश्चाग्निरग्निः सर्वाश्च देवताः ।। | 3-226-20a 3-226-20b |
एष चेञ्जनयेद्गर्भं सोऽस्या देव्याः पतिर्भवेत्। एवं संचिन्त्य भगवान्ब्रह्मलोकं तदा गतः ।। | 3-226-21a 3-226-21b |
गृहीत्वा देवसेनां तां ववन्दे स पितामहम्। उवाच चास्या देव्यास्त्वं साधु शूरं पतिं दिशा ।। | 3-226-22a 3-226-22b |
ब्रह्मोवाच। | 3-226-23x |
यथैतच्चिन्तितंकार्यं त्वया दानवसूदन। तथा स भविता गर्भो बलवानुरुविक्रमः ।। | 3-226-23a 3-226-23b |
स विष्यति सेनानीस्त्वया सह शतक्रतो। अस्या देव्याः पतिश्चैव स भविष्यति वीर्यवान् ।। | 3-226-24a 3-226-24b |
एतच्छ्रुत्वा नमस्तस्मै कृत्वाऽसौ मह कन्यया। तत्राभ्यगच्छद्देवेन्द्रो यत्र सप्तर्षयोऽभवन् ।। | 3-226-25a 3-226-25b |
वसिष्ठप्रमुखा मुख्या विप्रेन्द्राः सुमहाप्रभाः। भागार्थं तपसोपात्तं तेषां सोमं तथाऽध्वरे ।। | 3-226-26a 3-226-26b |
पिपासवो ययुर्देवाः शतक्रतुपुरोगमाः। इष्टिं कृत्वयतान्यायं सुसमिद्धे हुताशने ।। | 3-226-27a 3-226-27b |
जुहुवुस्ते महात्मानो हव्यं सर्वदिवौकसाम्। समाहूतो हुतवहःसोऽद्भुतः सूर्यमण्डलात् ।। | 3-226-28a 3-226-28b |
विनिःसृत्य ययौ वह्निः पार्श्वतो विधिवत्प्रभुः। आगम्याहवनीयं वै तैर्द्विजैर्मन्त्रतो हुतम् ।। | 3-226-29a 3-226-29b |
सतत्र विविधं हव्यं प्रतिगृह्यहुताशनः। ऋषिभ्यो भरतश्रेष्ठ प्रायच्छत दिवौकसाम् ।। | 3-226-30a 3-226-30b |
निष्क्रामंश्चाप्यपश्यत्स पत्नीस्तेषां महात्मनाम्। स्वेष्वासतेषूपविष्टाः स्नायन्तीश्च यथासुस्वम् ।। | 3-226-31a 3-226-31b |
रुक्मवेदिनिभास्तास्तु चन्द्रलेखा इवामलाः। हुताशनार्चिःप्रतिमाः सर्वास्तारा इवाद्भुताः ।। | 3-226-32a 3-226-32b |
स तत्रतेन मनसा बभूव क्षुभितेन्द्रियः। पत्नीर्दृष्ट्वा द्विजेन्द्राणां वह्निः कामवशं ययौ ।। | 3-226-33a 3-226-33b |
भूयः संचिन्तयामास न न्याय्यं क्षुभितो ह्यहम्। साध्व्यः पत्न्यो द्विजेन्द्राणामकामा कामयाम्यहम् ।। | 3-226-34a 3-226-34b |
नैताः शक्या मया द्रष्टुं स्प्रष्टुं वाऽप्यनिमित्ततः। गार्हपत्यं समाविश्य तस्मात्पश्याम्यभीक्ष्णशः ।। | 3-226-35a 3-226-35b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-226-36x |
संस्पृशन्निव सर्वास्ताः शिखाभिः काञ्चनप्रभाः। पश्यमानश्च मुमुदे गार्हपत्यं समाश्रितः ।। | 3-226-36a 3-226-36b |
निरुध्य तत्रसुचिरमेवं वह्निर्वनं गतः। मनस्तासु विनिक्षिप्य कामयानो वराङ्गनाः ।। | 3-226-37a 3-226-37b |
कामसंतप्तहृदयो देहत्यागे विनिश्चितः। अलाभे ब्राह्मणस्त्रीणामग्निर्वनमुपागमत् ।। | 3-226-38a 3-226-38b |
स्वाहा तं दक्षदुहिता प्रथमाऽकामयत्तदा। सा तस्य च्छिद्रमन्वैच्छच्चिरात्प्रभृतिभामिनी। | 3-226-39a 3-226-39b |
सा तं ज्ञात्वा यथावत्तु वर्हिं वनमुपागतम्। तत्त्वतः कामसंतप्तं चिन्तयामास भामिनी ।। | 3-226-40a 3-226-40b |
अहं सप्तर्षिपत्नीनां कृत्वा रूपाणि पावकम्। कामयिष्यामि कामार्तं तासां रूपेण मोहितम्। एवं कृते प्रीतिरस् कामावाप्तिश्च मे भवेत् ।। | 3-226-41a 3-226-41b 3-226-41c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि षङ्घिंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 226 ।। |
3-226-12 अप्यमावस्यमावासी चामामास्यप्यमामसाति शब्दार्णवः ।। 3-226-20 अग्निस्च तैर्गुणैर्युक्तः सर्वैरग्निश्च देवतेति झ. पाठः ।।
आरण्यकपर्व-225 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आरण्यकपर्व-227 |