महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-177
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अर्जुनेन युधिष्ठिराय दिव्यास्त्रप्रदर्शनन् ।। 1 ।।
अस्रतेजसा जगत्क्षोभे सति इन्द्रचोदनया नरादेनार्जुनप्रत्यस्त्रप्रदर्शन प्रतिषेधनम् ।। 2 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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वैशंपायन उवाच। | 3-177-1x |
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां धर्मराजो युधिष्ठिरः। उत्थायावश्यकार्याणि कृतवान्भ्रातृभिः सह ।। | 3-177-1a 3-177-1b |
ततः संचोदयामास सोऽर्जुनं मातृनन्दनम्। दर्शयास्त्राणि कौन्तेय यैर्जिता दानवास्त्वया ।। | 3-177-2a 3-177-2b |
ततो धनंजयो राजन्देवैर्दत्तानि पाण्डवः। अस्त्राणि तानि दिव्यानि दर्शयामास भारत ।। | 3-177-3a 3-177-3b |
यथान्यायं महातेजाः शौचं परममास्थितः। `नमस्कृत्य त्रिनेत्राय वासवाय च पाण्डवः' ।। | 3-177-4a 3-177-4b |
गिरिकूबरपादाक्षं शुभवेणु त्रिवेणुमत्। पार्थिवं रथमास्थाय शोभमानो धनंजयः ।। | 3-177-5a 3-177-5b |
दिव्येन संवृतस्तेन कवचेन सुवर्चसा। धनुरादाय गाण्डीवं देवदत्तं स वारिजम् ।। | 3-177-6a 3-177-6b |
शोशुभ्यमानः कौन्तेय आनुपूर्व्यान्महाभुजः। अस्त्राणि तानि दिव्यानि दर्शनायोपचक्रमे ।। | 3-177-7a 3-177-7b |
अथ प्रयोक्ष्यमाणेषु दिव्येष्वस्त्रेषु तेषु वै। समाक्रान्ता मही पद्भ्यां समकम्पत सद्रुमा ।। | 3-177-8a 3-177-8b |
क्षुभिताः सरितश्चैव तथैव च महोदधिः। शैलाश्चापि व्यदीर्यन्त न ववौ च समीरणः ।। | 3-177-9a 3-177-9b |
न बभासे सहस्रांशुर्न जज्वाल च पावकः। न वेदाः प्रतिभान्ति स्म द्विजातीनां कथंचन ।। | 3-177-10a 3-177-10b |
अन्तर्भूमिगता ये च प्राणिनो जनमेजय। पीड्यमानाः समुत्थाय पाण्डवं पर्यवारयन् ।। | 3-177-11a 3-177-11b |
वेपमानाः प्राञ्जलयस्ते सर्वे विकृताननाः। दह्यमानास्तदाऽस्त्रैस्ते याचन्ति स्म धनंजयम् ।। | 3-177-12a 3-177-12b |
ततो ब्रह्मर्षयश्चैव सिद्धा ये च महर्षयः। जङ्गमानि च भूतानि सर्वाण्येवावतस्थिरे ।। | 3-177-13a 3-177-13b |
देवर्षयश्च प्रवरास्तथैव च दिवौकसः। यक्षराक्षसगन्धर्वास्तथैव च पतत्रिणः। खेचराणि च भूतानि सर्वाण्येवावतस्थिरे ।। | 3-177-14a 3-177-14b 3-177-14c |
ततः पितामहश्चैव लोकपालाश्च सर्वशः। भगवांश्च महादेवः सगणोऽभ्याययौ तदा ।। | 3-177-15a 3-177-15b |
ततो वायुर्महाराज दिव्यैर्माल्यैः समन्वितः। अभितः पाण्डवंचित्रैरवचक्रे समन्ततः ।। | 3-177-16a 3-177-16b |
जगुश्च गाथा विविधा गन्धर्वाः सुरचोदिताः। ननृतुः सङ्घशश्चैव राजन्नप्सरसां गणाः ।। | 3-177-17a 3-177-17b |
तस्मिंश्च तादृशे काले नारदश्चोदितः सुरैः। आगम्याह वचः पार्थं श्रवणीयमिदं नृप ।। | 3-177-18a 3-177-18b |
अर्जुनार्जुन मा युङ्क्ष दिव्यान्यस्त्राणि भारत। नैतानि निरधिष्ठाने प्रयुज्यन्ते कथंचन ।। | 3-177-19a 3-177-19b |
अधिष्ठाने न वाऽनार्तः प्रयुञ्जीत कदाचन। प्रयोगेषु महान्दोषो ह्यस्त्राणां कुरुनन्दन ।। | 3-177-20a 3-177-20b |
एतानि रक्ष्यमाणानि धनंजय यथागमम्। बलवन्ति सुखार्हाणि भविष्यन्ति न संशयः ।। | 3-177-21a 3-177-21b |
अरक्ष्यमाणान्येतानि त्रैलोक्यस्यापि पाण्डव। भवन्ति स्म विनाशाय मैवं भूयः कृथाः क्वचित् ।। | 3-177-22a 3-177-22b |
अजातशत्रो त्वं चैव द्रक्ष्यसे तानि संयुगे। योज्यमानानि पार्थे नद्विषतामवमर्दने ।। | 3-177-23a 3-177-23b |
वैशंपायन उवाच। | 3-177-24x |
निवार्याथ ततः पार्थं सर्वे देवा यथागतम्। जग्मुरन्ये च ये तत्र रसमाजग्मुर्नरर्षभ ।। | 3-177-24a 3-177-24b |
तेषु सर्वेषु कौरव्य प्रतियातेषु पाण्डवाः। तस्मिननेव वने हृष्टास्त ऊषुः सह कृष्णया ।। | 3-177-25a 3-177-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि निवातकवचयुद्धपर्वणि सप्तमप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ।। 177 ।। |
3-177-2 मातृनन्दनं मातुः सुखकरम् ।। 3-177-5 गिरयएव कूवरादयस्तद्वन्तम्। कूबरो यस्मिन् युगं ध्रियते तद्दारु। पादौ चक्रे। अक्षः तयोः संधानं दारु। शुभाः वेणवइव वेणवो यस्मिन् तत् शुभवेमु त्रिवेणु अक्षकूबरयोः संधानार्थं त्रिशिख दारु तद्वन्तम्। सुपां सुलुगिति द्वितीयाया आर्षो लुक्। रथपदे वा क्लीबत्वं ध्येयम्। पृथिवीमेव पार्थिवं मानसं भूमिरूपं रथम् ।। 3-177-6 वारिजं शङ्खम्। देवदत्तं नामतः ।। 3-177-7 दर्शनाय दर्शयितुम् ।। 3-177-19 निरधिष्ठाने लक्ष्याभावे सति ।। 3-177-20 अधिष्ठानेपि वा अनार्तः न प्रयुञ्जीत ।।
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