महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-203
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मार्कण्डेयेन युधिष्ठिरंप्रति स्वार्गकारणीभूतसाधारणधर्मकथनम् ।। 1 ।।
महाभारतस्य पर्वाणि |
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वैशंपायन उवाच। | 3-203-1x |
श्रुत्वा स राजा राजर्षिरिन्द्रद्युम्नस्य तत्तदा। मार्कण्डेयान्महाभागात्स्वर्गस्य प्रतिपादनम् ।। | 3-203-1a 3-203-1b |
युधिष्ठिरो महाराज पुनः पप्रच्छ तं मुनिम्। कीदृशीषु ह्यवस्थासु दत्त्वा दानं महामुने। इन्द्रलोकं त्वनुभवेत्पुरुषस्तद्ब्रवीहि मे ।। | 3-203-2a 3-203-2b 3-203-2c |
गार्हस्थ्येऽप्यथवा बाल्ये यौवने स्थाविरेऽपि वा। यथा फलं समश्नाति तथा त्वं कथयस्व मे ।। | 3-203-3a 3-203-3b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-203-4x |
वृथा जन्मानि चत्वारि वृथा दानानि षोडश। वृथा जन्म ह्यपुत्रस् ये च धर्मबहिष्कृताः ।। | 3-203-4a 3-203-4b |
परपाकं च येऽश्नन्ति आत्मार्थं च पचेत्तु यः। पर्यश्नन्ति वृथा यत्र तदसत्यं प्रकीर्त्यते ।। | 3-203-5a 3-203-5b |
आरूढपतिते दत्तमन्यायोपहृतं च यत्। व्यर्थं तु पतिते दानं ब्राह्मणे तस्करे तथा ।। | 3-203-6a 3-203-6b |
गुरौ चानृतिके पापे कृतघ्ने ग्रामयाजके। वेदविक्रयिणे दत्तं तथा वृषलयाजके ।। | 3-203-7a 3-203-7b |
ब्रह्मबन्धुषु यद्दत्तं यद्दत्तं वृषलीपतौ। स्त्रीजितेषु च यद्दत्तं व्यालग्राहे तथैव च ।। | 3-203-8a 3-203-8b |
परिचारकेषु यद्दत्तं वृथा दानानि षोडश। तमोवृतस्तु यो दद्याद्भयात्क्रोधात्तथैव च ।। | 3-203-9a 3-203-9b |
भुङ्क्ते च दानं तत्सर्वं गर्भस्थस्तु नरः सदा। ददद्दानं द्विजातिभ्यो वृद्धभावेन मानवः ।। | 3-203-10a 3-203-10b |
तस्मात्सर्वास्ववस्थासु सर्वदानानि पार्थिव। दातव्यानि द्विजातिभ्यः स्वर्गमार्गजिगीषया ।। | 3-203-11a 3-203-11b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-203-12x |
चातुर्वर्ण्यस्य सर्वस्य वर्तमानाः प्रतिग्रहे। केन विप्रा विशेषेण तारयन्ति तरन्ति च ।। | 3-203-12a 3-203-12b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-203-13x |
जपैर्मन्त्रैश्च होमैश्च स्वाध्यायाध्यायनेन च। नावं वेदमयीं कृत्वातारयन्ति तरन्ति च ।। | 3-203-13a 3-203-13b |
ब्राह्मणांस्तोषयेद्यस्तु तुष्यन्ते तस्य देवताः। वचनाच्चापि विप्राणां स्वर्गलोकमवाप्नुयात् ।। | 3-203-14a 3-203-14b |
अनन्तं पुण्यलोकं तु गन्ताऽसौ तु न संशयः। श्लेष्मादिभिर्व्याप्ततनुर्म्रियमाणोऽविचेतनः ।। | 3-203-15a 3-203-15b |
ब्राह्णा एव संपूज्याः पुण्यं स्वर्गमभीप्सता। श्राद्धकाले तु यत्नेन भोक्तव्या ह्यजुगुप्सिताः ।। | 3-203-16a 3-203-16b |
दुर्बलः कुनस्वी कुष्ठी मायावी कुण्डगोलकौ। वर्जनीयाः प्रयत्नेन काण्डपृष्ठाश्च देहिनः ।। | 3-203-17a 3-203-17b |
जुगुप्सितं हि यच्छ्राद्धं दहत्यग्निरिवेन्धनम् ।। | 3-203-18a |
ये ये श्राद्धे न पूज्यन्ते मूकान्धबधिरादयः। तेऽपिसर्वे नियोक्तव्या मिश्रिता वेदपारगैः ।। | 3-203-19a 3-203-19b |
प्रतिग्रहश्च वै देयः शृणु यस् युधिष्ठिर। प्रदातारं तथाऽऽत्मानं यस्तारयति शक्तिमान् ।। | 3-203-20a 3-203-20b |
तस्मिन्देयं द्विजे दानं सर्वागमविजानता। प्रदातारं तथाऽऽत्मानं तारयेद्यः स शक्तिमान् ।। | 3-203-21a 3-203-21b |
न तथा हविषो होमैर्न पुष्पैर्नानुलेपनैः। अग्नयः पार्थ तुष्यन्ति यथा ह्यतिथिभोजने ।। | 3-203-22a 3-203-22b |
तस्मात्त्वंसर्वयत्नेन यतस्वातिथिभोजने ।। | 3-203-23a |
पादोदकंपादघृतंदीपमन्नं प्रतिश्रयम्। प्रयच्छन्ति तु ये राजन्नोपसर्पन्ति ते यमम् ।। | 3-203-24a 3-203-24b |
देवमाल्यापनयनं द्विजोच्छिष्टावमार्जनम्। आकल्पपरिचर्या च गात्रसंवाहनानि च। अत्रैकैकं नृपश्रेष्ठ गोदानाद्व्यतिरिच्यते ।। | 3-203-25a 3-203-25b 3-203-25c |
कपिलायाः प्रदानात्तु मुच्यते नात्र संशयः। तस्मादलंकृतां दद्यात्कपिलां तु द्विजातये ।। | 3-203-26a 3-203-26b |
श्रोत्रियाय दरिद्राय गृहस्थायाग्निहोत्रिणे। पुत्रदाराभिभूताय तथा ह्यनुपकारिणे ।। | 3-203-27a 3-203-27b |
एवंविधेषु दातव्या न समृद्धेषु भारत। को गुणो भरतश्रेष्ठ समृद्धेष्वभिवर्जितम् ।। | 3-203-28a 3-203-28b |
एकस्यैका प्रदातव्या न बहूनां कदाचन। सा गौर्विक्रयमापन्ना हन्यात्रिपुरुषं कुलम्। न तारयति दातारं ब्राह्मणं नैव नैव तु ।। | 3-203-29a 3-203-29b 3-203-29c |
ब्राह्मणस्य विशुद्धस्य सुवर्णं यः प्रयच्छति। सुवर्णानां शतं तेन दत्तं भवति शाश्वतम् ।। | 3-203-30a 3-203-30b |
अनड्वाहं तु यो दद्याद्बलवन्तं धुरंधरम्। स निस्तरति दुर्गाणि स्वर्गलोकं च गच्छति ।। | 3-203-31a 3-203-31b |
वसुंधरां तु यो दद्याद्द्विजाय विदुषात्मने। दातारं ह्यनुगच्छन्ति सर्वे कामाभिवाञ्छिताः ।। | 3-203-32a 3-203-32b |
पृच्छन्ति चान्नदातारं वदन्ति पुरुषा भुवि। अध्वनि क्षीणगात्राश्च पांसुना चावकुण्ठिताः ।। | 3-203-33a 3-203-33b |
तेषामेव श्रमार्तानां यो ह्यन्नं कथयेद्बुधः। अन्नदातृसमः सोपि कीर्त्यते नात्र संशयः ।। | 3-203-34a 3-203-34b |
तस्मात्त्वं सर्वदानानि हित्वाऽन्नं संप्रयच्छ ह। न हीदृशं पुण्यफलं विचित्रामिह विद्यते ।। | 3-203-35a 3-203-35b |
यथाशक्ति च यो दद्यादन्नं विप्रेषु संस्कृतम्। स तेन कर्मणाऽऽप्नोति प्रजापतिसलोकताम् ।। | 3-203-36a 3-203-36b |
अन्नमेव विशिष्टं हि तस्मात्परतरं न च। अन्नं प्रजापतिश्चोक्तः स च संवत्सरो मतः ।। | 3-203-37a 3-203-37b |
संवत्सरस्तु यज्ञोऽसौ सर्वं यज्ञे प्रतिष्ठितम्। तस्मात्सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च ।। | 3-203-38a 3-203-38b |
तस्मादन्नं विशिष्टं हि सर्वेभ्यइति विश्रुतम् ।। | 3-203-39a |
येषां तटाकानि महोदकानि वाप्यश्चकूपाश्चप्रतिश्रयाश्च। अन्नस्य दानं मधुरा च वाणी यमस्य ते निर्वचना भवन्ति ।। | 3-203-40a 3-203-40b 3-203-40c 3-203-40d |
धान्यं श्रमेणार्जितवित्तसंचितं विप्रे सुशीले प्रतियच्छते यः। वसुंधरा तस्य भवेत्सुतुष्टा धारां वसूनां प्रतिमुञ्चतीव ।। | 3-203-41a 3-203-41b 3-203-41c 3-203-41d |
अन्नदाः प्रथमं यान्ति सत्यवाक्यदनन्तरम्। अयाचितप्रदाता च समं यान्ति त्रयो जनाः ।। | 3-203-42a 3-203-42b |
वैशंपायन उवाच। | 3-203-43x |
कौतूहलसमुत्पन्नः पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः। मार्कण्डेयं महात्मानं पुनरेव सहानुजः ।। | 3-203-43a 3-203-43b |
यमलोकस्य चाध्वानमन्तरं मानुषस्य च। कीदृशं किंप्रमाणं वा कथं वा तन्महामुने। तरन्ति पुरुषाश्चैव केनोपायेन शंस मे ।। | 3-203-44a 3-203-44b 3-203-44c |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-203-45x |
सर्वगुह्यतनं प्रश्नं पवित्रमृषिसंस्तुतम्। कथयिष्यामि ते राजन्धर्मं धर्मभृतांवर ।। | 3-203-45a 3-203-45b |
षडशीतिसहस्राणि योजनानां नराधिप। यमलोकस्य चाध्वानमन्तरं मानुषस्य च ।। | 3-203-46a 3-203-46b |
आकाशं तदपानीयं घोरं कान्तारदर्शनम्। न तत्र वृक्षच्छाया वा पानीनं केतनानि च ।। | 3-203-47a 3-203-47b |
विश्रमेद्यत्र वै श्रान्तः पुरुषोऽध्वनि कर्शितः। नीयते यमदूतैस्तु यमस्वाज्ञाकरैर्बलात् ।। | 3-203-48a 3-203-48b |
नराः स्त्रियस्तथैवान्ये पृथिव्यां जीवसंज्ञिताः। ब्रह्मणेभ्यः प्रदानानि नानारूपाणि पार्थिव ।। | 3-203-49a 3-203-49b |
हयादीनां प्रकृष्टानि तेऽध्वानं यान्ति वै नराः। सन्निवार्यातपं यानति च्छत्रेणैव हि च्छत्रदाः ।। | 3-203-50a 3-203-50b |
तृप्ताश्चैवान्नदातारो ह्यतृप्ताश्चाप्यनन्नदाः। वस्त्रिणो वस्त्रदा यान्ति अवस्त्रा यान्त्यवस्त्रदाः ।। | 3-203-51a 3-203-51b |
हिरण्यदाः सुखं यान्ति पुरुषास्त्वभ्यलंकृताः। भूमिदास्तुसुखं यान्ति सर्वैः कामैः सुतर्पिताः ।। | 3-203-52a 3-203-52b |
यान्ति चैवापरिक्लिष्टा नरा सस्यप्रदावकाः। नराः सुखतरं यान्ति विमानेषु गृहप्रदाः ।। | 3-203-53a 3-203-53b |
पानीयदा ह्यतृषिताः प्रहृष्टमनसो नराः। पन्थानं द्योतयन्तश्च यान्ति दीपप्रदाः सुखम् ।। | 3-203-54a 3-203-54b |
गोप्रदास्तु सुखं यान्ति निर्मुक्ताः सर्वपातकैः। विमानैर्हंससंयुक्तैर्यान्ति मासोपवासिनः ।। | 3-203-55a 3-203-55b |
तथा बर्हिप्रयुक्तैश्च षष्ठरात्रोपवासिनः। त्रिरात्रं क्षपते यस्तु एकभक्तेन पाण्डव ।। | 3-203-56a 3-203-56b |
अन्तरा चैव नाश्नाति तस्य लोका ह्यनामयाः। पानीयस्य गुणा दिव्याः प्रेतलोकसुखावहाः ।। | 3-203-57a 3-203-57b |
तत्र पुष्पोदका नाम नदी तेषां विधीयते। शीतलं सलिलं तत्रपिबन्ति ह्यमृतोपमम् ।। | 3-203-58a 3-203-58b |
ये चदृष्कृतकर्माणः पूयं तेषां विधीयते। एवं नदी महाराज सर्वकामप्रदा हि सा ।। | 3-203-59a 3-203-59b |
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र पूजयैनान्यथाविधि। अध्वनिं क्षीणगात्रश्च पथि पांशुसमन्वितः ।। | 3-203-60a 3-203-60b |
पृच्छते ह्यन्नदातारं गृहमायाति चाशया। तं पूजयाथ यत्नेन सोऽतिथिर्ब्राह्यणश्च सः ।। | 3-203-61a 3-203-61b |
तं यान्तमनुगच्छन्ति देवाः सर्वे सवासवाः। तस्मिन्संपूजिते प्रीता निराशा यान्त्यपूजिते ।। | 3-203-62a 3-203-62b |
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र पूजयैनं यथाविधि। एतत्ते शतशः प्रोक्तं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। | 3-203-63a 3-203-63b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-203-64x |
पुनः पुनरहं श्रोतुं कथां धर्मसमाश्रयाम्। पुण्यामिच्छामि धर्मज्ञ कथ्यमानां त्वया विभो ।। | 3-203-64a 3-203-64b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-203-65x |
धर्मान्तरं प्रति कथां कथ्यमानां मया नृप। सर्वपापहरां नित्यं शृणुष्वावहितो मम ।। | 3-203-65a 3-203-65b |
कपिलायां तु दत्तायां यत्फलंज्येष्ठपुष्करे। तत्फलंभरतश्रेष्ठ विप्राणां पादधावने ।। | 3-203-66a 3-203-66b |
द्विजपादोदकक्लिन्ना यावत्तिष्ठति मेदिनी। तावत्पुष्करपर्णेन पिबन्ति पितरो जलम् ।। | 3-203-67a 3-203-67b |
स्वागतेनाग्नयस्तृप्ता आसनेन शतक्रतुः। पितरः पादशौचेन अन्नाद्येन प्रजापतिः ।। | 3-203-68a 3-203-68b |
यावद्वत्सस्य पादौ द्वौ शिरश्चैव प्रदृश्यते। तस्मिन्काले प्रदातव्या प्रयतेनान्तरात्मना ।। | 3-203-69a 3-203-69b |
अन्तरिक्षगतो वत्सो यावद्योन्यां प्रदृश्यते। तावद्गौः पृथिवी ज्ञेया यावद्गर्भं न मुञ्चति ।। | 3-203-70a 3-203-70b |
यावन्ति तस्यां रोमाणि वत्सस्य च युधिष्ठिर। तावद्युगसहस्राणि स्वर्लोके महीयते ।। | 3-203-71a 3-203-71b |
सुवर्णनासां यः कृत्वा सखुरां कृष्णधेनुकाम्। तिलैः प्रच्छादितां दद्यात्सर्वरत्नैरलंकृताम् ।। | 3-203-72a 3-203-72b |
प्रतिग्रहं गृहीत्वा यः पुनर्ददति साधवे। फलानां फलमश्नाति तदा दत्त्वा च भारत ।। | 3-203-73a 3-203-73b |
ससमुद्रगुहा तेन सशैलवनकानना। चतुरन्ता भवेद्दत्ता पृथिवी नात्र संशयः ।। | 3-203-74a 3-203-74b |
अन्तर्जानुशयो यस्तु भुञ्जते सक्तभाजनः। यो द्विजः शब्दरहितं संयन्तुस्तारणाय वै ।। | 3-203-75a 3-203-75b |
ये पानीयानि ददति तथाऽन्ये ये द्विजातयः। जपन्ति संहितां सम्यक्ते नित्यं तारणक्षमाः ।। | 3-203-76a 3-203-76b |
हव्यंकव्यं च यत्किंचित्सर्वं तच्छ्रोत्रियोऽर्हति। दत्तं हि श्रोत्रिये साधौज्यलितेऽग्नौ यथा हुतम् ।। | 3-203-77a 3-203-77b |
मन्युप्रहरणा विप्रा न विप्राः शस्त्रयोधिनः। निहन्युर्मन्युना विप्रा वज्रपाणिरिवासुरान् ।। | 3-203-78a 3-203-78b |
धर्माश्रितेयं तु कथा कथिता हि तवानघ। यां श्रुत्वा मुनयः प्रीता नैमिषारण्यवासिनः ।। | 3-203-79a 3-203-79b |
वीतशोकभयक्रोधा विपाप्मानस्तथैव च। श्रुत्वेमां तु कथां राजन्भवन्तीह तु मानवाः ।। | 3-203-80a 3-203-80b |
युधिष्ठिर उवाच। | 3-203-81x |
किं तच्छौचं भवेद्येन विप्रः शुद्धः सदा भवेत्। तदिच्छामि महाप्राज्ञ श्रोतुं धर्मभृतांवर ।। | 3-203-81a 3-203-81b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-203-82x |
वाक्शौचं क्रमशौचं च यच्च शौचं जलात्मकम्। त्रिभिः शौचैरुपेतो यः स स्वर्गी नात्र संशयः ।। | 3-203-82a 3-203-82b |
सायं प्रातश्च संध्यां यो ब्राह्मणोऽभ्युपसेवते। प्रजपन्पावनीं देवीं गायत्रीं वेदमातरम् ।। | 3-203-83a 3-203-83b |
स तया पावितो देव्या ब्राह्मणो नष्टकिल्बिषः। न सीदेत्प्रतिगृह्णानो महीमपि ससागराम् ।। | 3-203-84a 3-203-84b |
ये चास् दारुणा केचिद्ग्रहाः सूर्यादयो दिवि। ते चास्य सौम्या जायन्ते शिवाः शिवतराः सदा ।। | 3-203-85a 3-203-85b |
सर्वेनानुगतं चैनं दारुणाः पिशिताशनाः। घोररूपा महाकाया धर्षयन्ति द्विजोत्तमम् ।। | 3-203-86a 3-203-86b |
नाध्यापनाद्याजनाद्वा अन्यायाद्वा प्रतिग्रहात्। दोषो भवति विप्राणां ज्वलिताग्निससा द्विजाः ।। | 3-203-87a 3-203-87b |
दुर्वेदा वा सुवेदा वा प्राकृताः संस्कृतास्तथा। ब्राह्मणा नावमन्तव्या भस्मच्छन्ना इवाग्नयः ।। | 3-203-88a 3-203-88b |
यथा श्मशाने दीप्तौजाः पावको नैव दुष्यति। एवं विद्वानविद्वान्वा ब्राह्मणो दैवतं महत् ।। | 3-203-89a 3-203-89b |
प्राकरैश्च पुरद्वारैः प्रासादैश्च पृथग्विधैः। नगराणि न शोभन्ते हीनानि ब्राह्मणोत्तमैः ।। | 3-203-90a 3-203-90b |
वेदाढ्ञा वृत्संपन्ना ज्ञानवन्तस्तपस्विनः। यत्रतिष्न्ति वै विप्रास्तन्नाम नगरं नृप ।। | 3-203-91a 3-203-91b |
व्रजे वाऽप्यथवाऽरण्ये यत्रसन्ति बहुश्रुताः। तत्तन्नगरमित्याहुः पार्थ तीर्थं च तद्भवेत् ।। | 3-203-92a 3-203-92b |
रक्षितारं च राजानं ब्राह्मणं च तपस्विनम्। अभिगम्याभिपूज्याथ सद्यः पापात्प्रमुच्यते ।। | 3-203-93a 3-203-93b |
पुण्यतीर्थाभिषेकं च पवित्राणां च कीर्तनम्। सद्भिः संभाषणं चैव प्रशस्तं कीर्त्यते बुधैः ।। | 3-203-94a 3-203-94b |
साधुसङ्गमपूतेन वाक्सुभाषितवारिणा। पवित्रीकृतमात्मानं सन्तो मन्न्ति नित्यशः ।। | 3-203-95a 3-203-95b |
त्रिदण्डधारणं मौनं जटाभारोऽथ मुण्डनम्। वल्कलाजिनसंवेष्टं व्रतचर्याऽभिषेचनम् ।। | 3-203-96a 3-203-96b |
अग्निहोत्रं वने वासः शरीरपरिशोषणम्। सर्वाण्येतानि मिथ्या स्युर्यदि भावो न निर्मलः ।। | 3-203-97a 3-203-97b |
विशुद्धिं चक्षुरादीनां षण्णामिन्द्रियगामिनाम्। विकारि तेषां राजेन्द्र सुदुष्करतरं मनः ।। | 3-203-98a 3-203-98b |
ये पापानि न कुर्वन्ति मनोवाक्कर्मबुद्धिभिः। ते तपन्ति महात्मानो न शरीरस्य शोषणम् ।। | 3-203-99a 3-203-99b |
न ज्ञातिभ्यो दया यस्य शुक्लदेहोऽविकल्मषः। हिंसा सा तपसस्तस्य नानाशित्वं तपः स्मृतम् ।। | 3-203-100a 3-203-100b |
तिष्ठन्गृहे चैव मुनिर्नित्यं शुचिरलंकृतः। यावज्जीवं दयावांश् सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। | 3-203-101a 3-203-101b |
न हि पापानि कर्माणि शुद्ध्यन्त्यनशनादिभिः। सीदत्यनशनादेव मांसशोणितलेपनः ।। | 3-203-102a 3-203-102b |
अज्ञातं कर्म कृत्वा च क्लेशो नान्यत्प्रहीयते। नाग्निर्दहति कर्माणि भावशून्यस्य देहिनः ।। | 3-203-103a 3-203-103b |
पुण्यादेव प्रव्रजन्ति शुध्यन्त्यनशनानि च। न मूलफलभक्षित्वान्न मौनान्नानिलाशनात् ।। | 3-203-104a 3-203-104b |
शिरसो मुण्डनाद्वाऽपि न स्थानकुटिकासनात्। न जटाधारणाद्वाऽपिन तु स्थानकुटिकासनात्। | 3-203-105a 3-203-105b |
नित्यं ह्यनशनाद्वाऽपि नाग्निशुश्रूषणादपि। न चोदकप्रवेशेन न च क्ष्माशयनादपि ।। | 3-203-106a 3-203-106b |
ज्ञानेन कर्मणा वापि जरामरणमेव च। व्याधयश्च प्रहीयन्ते प्राप्यते चोत्तमं पदम् ।। | 3-203-107a 3-203-107b |
बीजानि ह्यग्निदग्धानि न रोहन्ति पुनर्यथा। ज्ञानदग्धैस्तधा क्लेशैर्नात्मा संडुज्यते पुनः ।। | 3-203-108a 3-203-108b |
आत्मना विप्रहीणानि काष्ठकुण्ठोपमानि च। विनश्यन्ति न संदेहः फेनानीव महार्णवे ।। | 3-203-109a 3-203-109b |
आत्मानं विन्दते येन सर्वभूतगुहाशयम्। श्लोकेन यदि वाऽर्धेन क्षीणं तस्य प्रयोजनम् ।। | 3-203-110a 3-203-110b |
द्व्यक्षरादभिसंधाय केचिच्छ्लोकपदाङ्कितैः। शतैरन्यैः सहस्रैश्च प्रत्ययो मोक्षलक्षणम् ।। | 3-203-111a 3-203-111b |
नायं लोकोस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः। ऊटुर्ज्ञानविदो वृद्धाः प्रत्ययो मोक्षलक्षणम् ।। | 3-203-112a 3-203-112b |
विदितार्थस्तु वेदानां परिवेद प्रयोजनम्। उद्विजेत्स तु देवेभ्यो दावाग्नेरिव मानवः ।। | 3-203-113a 3-203-113b |
शुष्कं तर्कं परित्यज्यआश्रयस्व श्रुतिं स्मृतिम्। एकाराभिसंबद्धं तत्त्वं हेतुभिरिच्छसि। बुद्धिर्न तस्य सिद्ध्येत साधनस्य विपर्ययात् ।। | 3-203-114a 3-203-114b 3-203-114c |
वेद्यं पूर्वं वेदितव्यं प्रयत्ना- त्तद्धीर्वेदस्तस्य वेदः शरीरम्। वेदस्तत्त्वं तत्समासोपलब्धिः क्लीबस्त्वात्मा न स वेद्यं न वेदः ।। | 3-203-115a 3-203-115b 3-203-115c 3-203-115d |
वेदोक्तमायुर्देवानामाशिषश्चैव कर्मणाम्। फलत्यनुयुगं लोके प्रभावश्च शरीरिणाम् ।। | 3-203-116a 3-203-116b |
इन्द्रियाणां प्रसादेन तदेतत्परिवर्जयेत्। तस्मादनशनं दिव्यं निरुद्धेन्द्रियगोचरम् ।। | 3-203-117a 3-203-117b |
तपसा स्वर्गगमनं भोगो दानेन जायते। ज्ञानेन मोक्षो विज्ञेयस्तीर्थस्नानादघक्षयः ।। | 3-203-118a 3-203-118b |
वैशंपायन उवाच। | 3-203-119x |
एवमुक्तस्तु राजेन्द्र प्रत्युवाच महायशाः। भगवञ्श्रोतुमिच्छामि प्रदानविधिमुत्तमम् ।। | 3-203-119a 3-203-119b |
मार्कण्डेय उवाच। | 3-203-120x |
यत्तत्पृच्छसि राजेन्द्रदानधर्मं युधिष्ठिर। इष्टं चेदं सदा मह्यं राजन्गौरवतस्तथा ।। | 3-203-120a 3-203-120b |
शृणु दानरहस्यानि श्रुतिस्मृत्युदितानि च। छायायां करिणः श्राद्धं तत्कर्म परिवीजितम्। दशकल्पायुतानीह न क्षीयेत युधिष्ठिर ।। | 3-203-121a 3-203-121b 3-203-121c |
जीवनाय समाक्लिन्नं वसु दत्त्वा महीपते। विप्रं तु वासयेद्यस्तु सर्वयज्ञैः स इष्टवान् ।। | 3-203-122a 3-203-122b |
प्रतिस्रोतश्चित्रवाहाः पर्जन्योऽन्नानुसंचरन्। महाधुरि यथा नावा महापापैः प्रमुच्यते। विषुवे विप्रदत्तानि दधिमध्वक्षयाणि च ।। | 3-203-123a 3-203-123b 3-203-123c |
पर्वसु द्विगुणं दानमृतौ दशगुणं भवेत्। `अब्दे दशगुणं प्रोक्तमनन्तं विषुवे भवेत्' ।। | 3-203-124a 3-203-b124 |
अयने विषुवे चैवषडशीतिमुखेषु च। चन्द्रसूर्योपरागे च दत्तमक्षयमुच्यते ।। | 3-203-125a 3-203-125b |
ऋतुषु दशगुणं वदन्ति दत्तं शतगुणमृत्वयनादिषु ध्रुवम्। भवति सहस्रगुणं दिनस्य राहो- र्विषुवति चाक्षयमश्नुते फलम् ।। | 3-203-126a 3-203-126b 3-203-126c 3-203-126d |
नाभूमिदो भूमिमश्नाति राज- न्नायानदो यानमारुह्य याति। यान्यान्कामान्ब्राह्मणेभ्यो ददाति तांस्तान्कामाञ्जायमानः स भुङ्क्ते ।। | 3-203-127a 3-203-127b 3-203-127c 3-203-127d |
अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णं भूर्वैष्णवी सूर्यसुताश्च गावः। लोकाश्त्रयस्तेन भवन्ति दत्ता यः काञ्चनं गाश्च महीं च दद्यात् ।। | 3-203-128a 3-203-128b 3-203-128c 3-203-128d |
परंहि दानान्न बभूव शाश्वतं भव्यं त्रिलोके भवते कुतः पुनः। तस्मात्प्रधानं परमं हि दानं वदन्ति लोकेषु विशिष्टबुद्धयः ।। | 3-203-129a 3-203-129b 3-203-129c 3-203-129d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 203 ।। |
3-203-5 यत्र जन्मनि असत्यं वृथा गोब्राह्मणादित्राणं विना कीर्त्यते तदपि वृथेत्यर्थः ।। 3-203-6 आरूढश्चासौ पतितः ।। 3-203-7 गुरावप्यानृतिकेऽनृतप्रिये। वृषलः शूद्रः ।। 3-203-8 ब्राह्मबन्धवो जातिमात्रब्राह्मणआ वृत्ताध्ययनशून्याः ।। 3-203-10 दानं दानफलं अन्यत्तु दानं वृद्धभावेन जरया भुङ्क्ते ।। 3-203-17 काण्डपृष्ठाः बाणनिषङ्गधराः क्षात्रवृत्तय इत्यर्थः। दुर्वर्णः कुनखीति झ. पाः ।। 3-203-25 माल्यं निर्माल्यम्। आकल्पः गन्धादिनालंकरणम्। अरोगिप्रतिचर्याचेति नृपश्रेष्ठगोशतादिति च ध. पाठः ।। 3-203-27 अभिभूताय दारिद्र्यादेव ।। 3-203-28 अभिवर्जितं दत्तम् ।। 3-203-29 सा बहुभ्यो दत्ता ।। 3-203-40 प्रतिश्रया गृहाः येषां यैः उत्सृष्टा इति शेषः। निर्वचनाः यमवार्तामपि न शृण्वन्तीत्य्रतः ।। 3-203-41 वसूनां धनानाम् ।। 3-203-42 सत्योक्तास्तदनन्तरमिति ध. पाठः ।। 3-203-45 सर्वं पूज्यतमं प्रश्नमिति ध. पाठः ।। 3-203-51 प्रावृता वस्त्रदातार इति ध. पाठः ।। 3-203-76 अपानपा नगदितास्तथा इति झ. पाठः। अपानपा अमद्यपाः नगदिताः न केनचिद्दोषवत्तया कीर्तिताः ।। 3-203-80 राजन्न भवन्तीह इति झ. पाठः। न भवन्तीह मानवाः स्वर्गं प्राप्योपर्युपरि गच्छन्तो मुक्तिमेव प्राप्नुवन्तीत्यर्थः ।। 3-203-87 अन्यस्माद्वा इति झ. पाठः ।। 3-203-94 पवित्राणां त्रिसुपर्णादिमन्त्राणाम् ।। 3-203-96 अभिषेचनं तीर्थेषु ।। 3-203-97 भावश्चित्तम् ।। 3-203-98 न दुष्करमिति इन्द्रियगामिनां विषयाणां विशुद्धिं विना अशनं भोगः सुकरम्। भोगो विषयशुद्धिं नापेक्षते। पण्याङ्गनासङ्गादिनापि तत्सिद्धेः। किंतु अनाशित्वं अमृतत्वं भोगवर्जनं वा तां विना न सुकरम्। यतो दुष्करं खभावतो दुःसंपादमिति योजना। दुष्करत्वे हेतुमाहार्धेन विकारीति। सुदुष्करतरं दुर्जयम् ।। 3-203-100 ज्ञातिभ्यः पुत्राद्यर्थे। शुक्लदेहः शुक्लवत्त्युपजीवी। अविकल्मषः शुक्लवृत्त्या यः कुटुम्बं पीडयति स निष्कल्मषो न भवतीत्यर्थः। तस्योपपादनमुत्तरार्धेन हिंसेति। अनाशित्वं अशनत्यागः ।। 3-203-101 मांसशोणितलेपनः देहः ।। 3-203-103 अज्ञातं शास्त्रत्किंतु स्वयमेव कल्पितं तप्तशिलारेहणादि। तेन क्लेश एव नतु अन्यत्पापं प्रहीयते ।। 3-203-105 स्थानकुटिकासनात्स्थावरगृहत्यागात् ।। 3-203-109 आत्मनेति शरीराणीति शेषः ।। 3-203-113 स तु वेदेभ्यः इति झ. पाठः ।। 3-203-115 वेदपूर्वं वेदितव्यं प्रयत्नात्तद्वै वेदस्तस्य वेदः शरीरम्। वेदस्तत्वं तत्समासोपलब्धौ क्लीवस्त्वात्मा तत्सवेद्यस्य वेद्यम्। इति झ.पाठः ।। 3-203-117 प्रसादेन नैर्मल्येन। अनशनं नाम चित्तेन्द्रियनिरोधो नत्वाहारत्याग इत्याह तस्मादिति ।। 3-203-121 छायायां करिणः। गुर्वमायोगेऽश्वत्थच्छाया गजच्छायाख्यं पर्व देशकालयोगजम्। तत्कर्णपरिवीजिते इति झ. पाठः। कर्णाइव कर्णा अश्वत्थपल्लवास्तैर्वीजिते देशे जलोपान्ते ।। 3-203-122 समाक्लिन्नं आर्द्रं वसु अन्नादिद्रव्यं दत्त्वा महीयते। वैश्यं तु इति झ. पाठः ।। 3-203-123 प्रति प्रतीपं पूर्ववाहिन्याः नद्याः पश्चिमाभिमुखं स्नोतः प्रवाहो यत्रतत् तीर्थं प्रतिस्नोतः। तत्र पात्रेऽर्पिताश्चित्रबाहा उत्तमाश्वाः। विपरिणम्य अक्षया इत्यपकृष्यते। अक्षयफला इत्यर्थः। पर्जन्योऽन्नानुसंचरन् अन्नार्थं अनुसंचरन्पर्जन्य इन्द्रोऽप्यक्षयः। अतिथिरूपेण तृप्त इन्द्रोप्यक्षयस्वर्गप्रद इत्यर्थः। महाधुरि महति धूसदृशे प्रवाहे ना पुरुषोवा यथा महाधुरि योगभारे। यथा सर्वपापैः प्रमुच्यते तथैव गजच्छायाश्राद्धदिकर्तारोपि मुच्यन्त इत्यर्तः ।। 3-203-124 विप्लवे विप्रदत्तानि दधिमस्त्वक्षयाणि च इति झ. पाठः ।। 3-203-125 विषुवे तुलामेषसंक्रान्त्योः। षडशीतिमुखे मिथुनकनयामीनसंक्रान्तिषु ।। 3-203-127 कामान् काम्यमानान्विषयान् ।।
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